गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

दूर  जाएँ तो  कसक  बढ़ जाए,
पास आएँ तो ललक  बढ़ जाए।

उनके देखे से बढ़े आँखों का नूर,
और चेहरे  की चमक  बढ़ जाए।

शक – ओ – शुब्हात से टूटें रिश्ते,
ऐतिबारी   से   लचक  बढ़ जाए।

टूट कर फिर है  बिखरने का डर,
बर्तनों में  जो   खनक  बढ़ जाए।

तौबा   टूटे   तो  कहीं  यूँ  ना  हो,
और  पीने की   चसक  बढ़ जाए।

ख्वाहिशों  का है  सफर ये,  प्यारे,
पा  तले   जैसे   सड़क  बढ़ जाए।

हुस्न बे – शर्मो – हया, ‘होश’, है यूँ,
जैसे  खाने   में   नमक  बढ़ जाए।

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    दूर जाएँ तो कसक बढ़ जाए,

    पास आएँ तो ललक बढ़ जाए। वाह ,शुरुआत ही धमाकेदार !

    • मनोज पाण्डेय 'होश'

      बहुत धन्यवाद

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