गीत : हम उतने अफज़ल मारेंगे
जेएनयू के परिसर में देखो कैसा अंधेर हुआ
कुछ लोगों की नज़रों में इक कुत्ता कैसे शेर हुआ
भारत देश में रहना इन्हें भयानक सपना लगता है
हनुमंथप्पा गैर लगे और अफज़ल अपना लगता है
तार जुड़े हैं उनके हाफिज़, लखवी से बगदादी तक
जो कहते हैं जंग चलेगी भारत की बर्बादी तक
भेजा था माँ-बाप ने पढ़ने कितने ही अरमानों से
लेकिन क्या उम्मीद करें जब मिल गए ये शैतानों से
कितनी मन्नतें मांगी थीं इसके होने की माँ जी ने
बड़े प्यार से नाम कन्हैया रखा था बाबू जी ने
लेकिन उनके विश्वासों का ये कैसा विध्वंस हुआ
कृष्ण नामधारी इस कलयुग में क्यों साबित कंस हुआ
करने क्या आए थे दिल्ली क्या इन्होंने कर डाला
मिट्टी अपने मात-पिता के सब सपनों को कर डाला
आंतक फैलाने वालों का ये महिमामंडन करते हैं
अपने देश की न्याय व्यवस्था का ये खंडन करते हैं
हम भयभीत नहीं छाती पर होने वाले वारों से
असली खतरा हमको है अपने घर के गद्दारों से
कुछ नेताओं ने भी इनके सर पर हाथ फिराया है
भेड़ की खाल में छुपे भेड़ियों का सच सामने आया है
राह दिखाने के बदले तुम बच्चों को भड़काते हो
अपनी रोटी सेंकने को क्यों देश में आग लगाते हो
लड़नी है अब जंग आखरी, आखरी झटका देना है
देशद्रोहियों को चुन-चुन फांसी पर लटका देना है
हम राणा के वंशज हैं तुम क्या हमको धमकाते हो
घर-घर से अफज़ल निकलेगा कहके किसे डराते हो
लड़ेंगे अंतिम साँस तक अपनी लेकिन कभी ना हारेंगे
तुम जितने अफज़ल लाओगे हम उतने अफज़ल मारेंगे
तुम जितने अफज़ल लाओगे हम उतने अफज़ल मारेंगे
— भरत मल्होत्रा
बहुत शानदार गीत !
वाह बहुत खुब!!