ग़ज़ल
किसलिये माहौल ये तपने लगा है दोस्तों,
कौन शोलों पर हवा करने लगा है दोस्तों।
किस सियासत की ग़र्ज़ है ये हिमायत आग की,
आँच में जिसकी, शहर जलने लगा है दोस्तों।
इस कदर बेबाक हो बैठे हैं लतेवर शहर के,
मुस्कराने से भी डर लगने लगा है दोस्तों।
कल तलक खामोश थे जो लोग बातिल हो उठे,
रहनुमाई का असर दिखने लगा है दोस्तों।
हाथ में कानून ले कर घूमता है आदमी,
और गुस्सा नाक पर धरने लगा है दोस्तों।
खो गए जाने कहाँ मा’नी हया -ओ- शर्म के,
था जिसे झुकना, वो सर उठने लगा है दोस्तों।
‘होश’ कैसा सूर्य है जिससे, उजालों की जगह,
क़द अंधेरों का ही कुछ बढ़ने लगा है दोस्तों।
उत्तम ग़ज़ल !
उत्तम ग़ज़ल !
धन्यवादजी
प्रिय मनोज भाई जी, अच्छी ग़ज़ल. बातिल शब्द बहुत अच्छा लगा.
धन्यवाद
खूब .
धन्यवाद।
Sundar
धन्यवाद।