गीतिका/ग़ज़ल

वफ़ा का फिर सिला धोखा रहा है

वफ़ा का फिर सिला धोखा रहा है

बस अपना तो यही क़िस्सा रहा है

उन्हीं जालों में ख़ुद ही फंस गया अब
जिन्हें रिश्तों से दिल बुनता रहा है।

समेटूँ जीस्त के सपने नज़र में,
मेरा अस्तित्व तो बिखरा रहा है।

बुझी आँखों में जुगनू टिमटिमाये,
कोई भूला हुआ याद आ रहा है।

ख़्यालों में तेरे खोया है इतना,
नदीश हर भीड़ में तनहा रहा है।।

©® लोकेश नदीश

One thought on “वफ़ा का फिर सिला धोखा रहा है

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुंदर !

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