संस्मरण

मेरी कहानी 118

कुलवंत के लिए मायके के अब कोई माने नहीं हैं लेकिन उस के मायके तो यह बुआ फुफड़ ही हैं । हर समय वह हमारे साथ रहे और रह रहे हैं। जैसे जैसे बच्चे बड़े हो रहे थे ,बुआ फुफड़ और भी हमारे नज़दीक आते गए। फुफड़ तो बच्चों के साथ खेलता रहता। जब भी हम बच्चों को कहते ,निंदी के घर जाना है तो बच्चे उछलने लगते। फुफड़ दो साल काम पर गया नहीं था लेकिन अब एक फैक्टरी में काम करने लगा था यहां बुआ काम करती थी ,तन्खोआह अच्छी थी ,इस लिए आर्थिक हालत भी बहुत अच्छी हो गई थी। जब भी हम बर्मिंघम जाते तो कभी कभी बहादर भी आ जाता और हम तीनों घूमने निकल जाते। इतनी सख्त ज़िंदगी थी तो साथ ही आपसी भाईचारा भी बहुत था। नए नए लोगों से मिलना हमारा शौक होता था। आज वह बात रही नहीं और जो कभी हमारे साथी हुआ करते थे अब किसी के घर जाने से भी कतराते हैं क्यूँकि आज की पीढ़ी बिलकुल अलग है। इस बात का हमें कोई रंज नहीं है , क्योंकि ज़माना बदलता रहता है।

अभी पिछले हफ्ते की बात है ,मेरा एक साथी मेरे साथ ही काम किया करता था और मुझ से आठ वर्ष छोटा है , उसको रिटायरमेंट हुई है। एक दिन मेरी पत्नी को टाऊन में मिला और मेरे बारे में पूछा। जब पत्नी ने बताया कि मैं ठीक नहीं हूँ तो मुझ से मिलने के लिए आया। मेरा मन इतना खुश हुआ कि बताना मुश्किल है और मेरा दोस्त मुझे दस साल बाद मिला था और उसने अपने मन की बात बता दी कि वह अपने सब दोस्तों से मिलना चाहता है लेकिन बहुत लोगों के बच्चों का व्यवहार ऐसा होता है कि दुबारा जाने की हिम्मत नहीं होती।

फिर उस ने कुछ दोस्तों के बारे में अपना तज़ुर्बा मुझे बताया। कुलवंत भी चाय ला कर हमारे साथ ही बैठी थी और बातें कर रही थी। इस शख्स का नाम है सोहन सिंह। हम तीनों ने इतनी बातें की कि वह बहुत खुश हुआ और कहने लगा कि वह अब इंडिया जा रहा था और आकर फिर मिलने आएगा और ऐसे ही आता रहेगा। ऐसे ही वह दिन थे जब हम इतनी मिहनत मशक्त भी करते थे और आपस में मिलते भी बहुत थे ,और यही कारण था कि इतनी सख्त मिहनत के बावजूद ,दिन कैसे बीत गए पता ही नहीं चला।

हमारे काम पे भी बहुत तब्दीलिआं आ रही थीं। इसका कारण यह था कि बहुत साल पहले इंगलैंड कॉमन मार्किट का सदस्य बन गया था। अगर हम यूरोप का इतहास देखें पढ़ें तो पता चलेगा कि युरपीयन देशों की आपस में बहुत लड़ाइयां हुई थीं और वर्ल्ड वार सैकंड में तो यह देश बर्बाद ही हो गए थे और इंगलैंड की अर्थवयवस्था तबाह हो चुकी थी। अक्सर हम भारतीय कहते रहते हैं कि हम ने अंग्रेज़ों को भगा दिया लेकिन सच्चाई यह नहीं है। यह जो हमारी पार्लीमैंट बिल्डिंग है आज़ादी से अभी बीस साल पहले ही तो बनी थी। यह बिल्डिंग 1921 में बननी शुरू हुई थी और 1927 में कम्प्लीट हुई थी। ज़ाहर है अँगरेज़ भारत छोड़ने वाले नहीं थे लेकिन वर्ल्ड वार सैकंड जो हुई ,अँगरेज़ बैंक्रप्ट हो गए थे और इन लोगों को भारत को अपने कब्ज़े में रखना बहुत कॉस्टली पढ़ रहा था ,अँगरेज़ जल्दी से जल्दी भारत से भागना चाहते थे ।

यही नहीं धीरे धीरे इन्हों को और सभी देशों को आज़ादी देनी पडी। यह व्यापारी देश है ,हर बिज़नेस के लिए प्रॉफिट को ही मद्देनज़र रखते हैं। यह मैंने यहां रह कर देखा है। जब कोई कारोबार को बंद करना होता है, लोग काम पर जाते हैं और उनके हाथों में नोटिस पकड़ा देते हैं और साथ ही सारा हिसाब किताब कर देते हैं। अब इंग्लैण्ड की इन्वैस्टमैंट इंडिया में बहुत है ,जैसे ही इन को इंडिया में घाटा दिखाई देने लगेगा ,एक दिन में ही कारोबार बंद करके किसी और देश में ले जाएंगे।

वर्ल्ड वार सैकंड में सारे देशों का नुक्सान हो गया था ,इसी लिए ही कॉमन मार्किट की सोच पैदा हुई ताकि झगडे बंद करके आपस में इकठे हो कर कारोबार करें। पहले पहल तीन चार देश ही थे लेकिन धीरे धीरे इस क्लब्ब में और देश शामिल होने लगे और अब यह 28 देश इकठे हो गए हैं और धीरे धीरे और यूरपी भी शामिल हो रहे हैं। बहुत से देशों की करंसी भी यूरो हो गई है लेकिन इस में इंगलैंड अपना पाउंड रखना चाहता है। इंगलैंड में लड़ाई के बाद देश में बहुत नई नई फैक्ट्रियां लग रही थी किओंकी इंगलैंड में रीबिल्डिंग का काम शुरू हो गया था।

यही वजह थी कि इंगलैंड को काम करने वाले लोगों की जरुरत थी ,इसी लिए पहले कोई वीज़ा लेना नहीं पड़ता था ,सिर्फ जिस को किसी भी कॉमनवैल्थ देश की हकूमत पासपोर्ट इशू कर देती वह सीधे इंगलैंड आ जाता था और इंडिया की हकूमत पड़े लिखे लोगों को ही पासपोर्ट देती थी, पहले पहल तो अनपढ़ लोग भी आ सकते थे और इसी तहत मैं और मेरे जैसे लाखों लोग उस समय इंग्लैंड आये थे। इंगलैंड में लेबर हकूमत ने नेशनलाइजेशन का प्रोग्राम शुरू कर दिया था। पोस्ट ऑफिस, रेल, ब्रिटिश टेलीकॉम ,नेशनल लेलैंड ,नैशनल कोल ,स्टील और इस के इलावा बहुत ही अन्य महकमों का कौमिकर्ण हो गया था।

लोग खुशहाल हो गए थे ,नैशनल हैल्थ सर्विस सब से बढियाँ काम हुआ ,जिस से हर एक शहरी को हर तरह की महंगी से महंगी सिहत सहूलत हो गई ,यहां तक कि उस समय यूनिवर्सिटी एजुकेशन भी फ्री हो गई थी। यह समय इंगलैंड का सुनेहरी ज़माना था लेकिन धीरे धीरे इस का बोझ इकॉनॉमी पर इतना पड़ा कि हैरोल्ड विल्सन की लेबर हकूमत को पाउंड devalue करना पड़ा ,देश की इकॉनोमी बिगड़ गई। ट्रेड यूनिअंज इतनी ताकतवर हो गई कि वह किसी भी हकूमत को वोट के जोर से गिरा देते। उस समय इतनी स्ट्राइकेँ हुईं कि सब रिकार्ड टूट गए। यूनिअंज किंग मेकर हो गई थीं।

और इसी वक्त एक ऐसी स्टेटस वोमेन स्त्री आई ,जो सब से ज़्यादा समय इंगलैंड की प्राइममिनिस्टर रही ,वह थी टोरी पॉर्टी की लीडर मारग्रेट थैचर जिस को आयरन लेडी कहा जाता है। 1979 में वह प्राइममिनिस्टर बनी और आते ही उस ने डीरेगुलेशन का काम शुरू कर दिया। पहले पहल हम हर साल अपने अपने देशों को पांच सौ पाउंड से ज़्यादा नहीं भेज सकते थे लेकिन थैचर ने फ्री एक्सचेंज कंट्रोल कर दिया ,जिस का असर यह हुआ कि बड़े बड़े बिज़नेस कॉरपोरेट्स अपने काम इंग्लैण्ड में बंद करके पैसे देश से बाहर ले जाने लगे और अपनी इन्वैस्टमैंट भारत चीन और अन्य देशों में करने लगे।

इंगलैंड में फैक्टरियां बंद होने लगीं। बड़ी इंडस्ट्री कोल और स्टील की थीं ,यूनियन स्ट्राइकेँ करने लगीं। आर्थर स्कारगिल जैसे कोल यूनियन के नेता हकूमत से टक्कर लेने लगे लेकिन मिसेज़ थैचर ने कोई भी स्ट्राइक कामयाब होने नहीं दी ,सब को सख्ती से कुचल दिया। बहुत पुलिस वाले ज़ख़्मी हुए ,कई स्ट्राइकर मारे गए ,कयोंकि कुछ लोग स्ट्राइक के हक्क में नहीं थे , इस लिए उन का आपस में झगड़ा शुरू हो गया ,इसमें कुछ लोग मारे गए ,जो काम पर जाते थे ,उनको जाने से रोकते थे। कई गोरे परिवार कई पुश्तों से कोयले की कानों में करते थे ,इन परिवारों की आपस में दुश्मनी हो गई।

जिस इंडस्ट्री में मैं काम कर रहा था ,इस पर भी इस का असर शुरू हो गया ,बात यह ही थी कि खर्चे कम किये जाएँ। उस समय हकूमत को हर साल बसें चलाने के लिए कई मिलियन पाउंड की सब्सिडी देनी पड़ती थी और मुझे मालुम है कि ऐसा क्यों था। हम मज़े से काम करते थे। हमारे कई लोगों ने तो इस सिस्टम को बहुत अब्यूज किया ,लोग सिक नोट भेज देते थे कि वह बीमार थे लेकिन वह अपना कोई छोटा मोटा बिज़नैस कर रहे होते थे। अपना काम भी करते रहते और सिक मनी भी लेते रहते जो काफी होती थी , ऐसे ही और भी बहुत काम ऐसे होते थे जिस से ट्रांसपोर्ट को हर साल घाटा पड़ता था।

एक नई बात हमारे काम पर यह हुई कि एक रुट पे नया तज़ुर्बा किया गया जिस को OMO यानि वन मैंन ऑपरेशन बस का नाम दिया गया। एक नई बस लाइ गई और इस में एक डिजिटल टिकट मशीन फिट की गई और एक तरफ बॉक्स लगाया गया ,जिस में पैसेंजर पैसे डालते थे। बॉक्स में लगे शीशे में पैसे दिखाई देते थे और ड्राइवर इन पैसों को देख कर मशीन पर लगे टिकट की कीमत का बटन दबा देता था और पैसेंजर आगे जा कर एक और मशीन से बाहर आये उस टिकट को ले लेता था। पहले थोड़े ड्राइवरों को चांस दिया गया जिस में मेरा भी नाम था और इस वन मैंन बस की तन्खोआह का रेट ज़्यादा था।

पहले तो लोग बस पर चढ़ते ही बस में घुस जाते थे लेकिन अब उन को टिकट की कीमत की सही कीमत डालनी पड़ती थी ,इस लिए देरी हो जाती थी क़्योंकि कभी कभी उस के पास चेंज होती नहीं थी ,इस लिए वह पैसेंजर लोगों से चेंज मांगता था लेकिन धीरे धीरे लोगों को पता चल गया और बसें टाइम टेबल के अनुसार चलने लगीं। जब यह तज़ुर्बा कामयाब हो गया तो अन्य रूटों पर भी वन मैंन बसें चलने लगीं और साथ ही कनडक्ट्रों की भी छुटी होने लगी। कनडक्ट्रों को कुछ हज़ार पाउंड और उन की सर्विस के हिसाब से पेंशन दे कर उन की छुटी होने लगी।

जिस ने यह काम शुरू किया ,उस का नाम था मिस्टर वॉकर। यह यूनिवर्सिटी से डिग्री ले कर आया था और बस ड्राइव भी करता था। यह पहला ऐसा मैनेजर था जिस ने खुद ड्राइविंग शुरू कर दी। इस लिए सभी ड्राइवर उस से डरते थे किओंकी वह हर दम घूमता रहता था और अन्य ड्राइवरों पर नज़र भी रखता था ,बहुत सख्त था ,छोटी सी गलती पर काम से छुटी कर देता था लेकिन अच्छे कर्मचारिओं को रिवार्ड भी देता था।
एक बात के लिए वह बहुत पॉपुलर था कि उस ने कैंटीन में टॉयलेट की सफाई करने वाली एक लड़की से शादी की थी जो बहुत सधारण पढ़ी लिखी थी।

वॉकर दो साल ही रहा लेकिन एक ऐसा रास्ता बन गया जिस पर सभी नए आने वाले मैनेजर चलने लगे। धीरे धीरे सभी रूटों पर वन मैंन बसें चलने लगीं और कुछ कंडक्टर ड्राइवर बन गए और कई पैसे ले कर कहीं और काम करने लगे। जैसे जैसे वक्त बीतता गया ,कुछ इंस्पैक्ट्रों की छुटी भी हो गई। मैनजमैंट जो फैसला लेती थी वह सीकरट रखती थी। क़्योंकि यह बहुत बड़ी ट्रांसपोर्ट कम्पनी थी ,इस लिए इस में बहुत से मैनेजर काम करते थे और एक दफा तो ऐसा हुआ कि इतनी छांटी हुई कि एक मैनेजर जो कैंडल की जगह आया था ,जब वह दफ्तर में गया तो उस के टेबल पर डिसमिसल का लफाफा रखा हुआ था, जब उस ने पड़ा तो उस में लिखा था कि आप को काम से जवाब है और कृपा दस मिंट में ऑफिस खाली कर दो ,आप का सारा हिसाब कर दिया गया है। जब वह मैंनेजर दफ्तर से बाहर निकला तो वह रो रहा था किओंकी उस ने अभी नया नया घर लिया था जिस पर उसने बहुत बड़ा लोन लिया हुआ था । यह मैनेजर हमारे लोगों के बहुत खिलाफ था ,इस लिए हमारे लोग खुश थे।

अब हैड ऑफिस में काम करने वाले कलर्कों की भी छुटी होने लगी जिस में ज़्यादा तर लड़कियां ही थीं और इन में से कुछ लड़कियां ड्राइविंग करने लगीं। जिस सेक्शन में बसें रिपेयर होती थीं उन में भी छांटी होने लगी। मुक्तसर बात यह है कि कोई डिपार्टमेंट नहीं बचा जिस में से लोग निकाले न गए हों। यही बात मैं पहले लिख चुका हूँ कि यह लोग प्रॉफिट के लिए कुछ भी कर सकते हैं और इन्होने दुनिया के इतने देशों पर राज किया कि कभी इन के राज में सूरज छिपता नहीं था ,अगर किसी एक देश में सूरज अभी चढ़ा होता तो दूसरे देश में छिप रहा होता।

अब इन्होने सभी देशों को आज़ादी दे दी है क्यूंकि इन को कोई फायदा नहीं है। इस के साथ ही यह लिबरलाइजेशन का सिलसिला शुरू हुआ है ,यह भी एक नया ढंग ही शुरू हुआ है। पहले यह लोग मिलिटरी के जोर से अन्य देशों पर राज करके प्रॉफिट बनाते थे और अब इन की कम्पनीआं इन्वैस्टमैंट करके प्रॉफिट बना रही हैं और यह ढंग लड़ाई करने से बहुत आसान है किओंकी जब भी घाटा शुरू हुआ ,यह लोग रातो रात अपनी इन्वैस्टमैंट को किसी दूसरे देश में शिफ्ट कर देंगे। और ऐसा ही अब टाटा सटील का कारोबार इंगलैंड से खत्म हो रहा है क्योंकि टाटा को एक मिलियन पाउंड रोज़ का घाटा हो रहा है।

बस यही हालात मारग्रेट थैचर के आने से शुरू हो गए जो अब तक जारी है।

चलता. . . . . . . . . .

9 thoughts on “मेरी कहानी 118

  • Man Mohan Kumar Arya

    Namaste aadarniya Sh Gurmail Singh ji. Aaj ke lekh me de gai jankari gyanvardhak awam upyogi hai. Yeh itihas padhne ke saman hai. Angrejo ne desh ko azad Gandhi ji ke aandolan ke kaaran nahi apitu apni aarthik badhali ke kaaran kiya tha. Is sunder lekh samagri ke liye sadhuvad. Sadar.

    • मनमोहन भाई , आप के लफ्ज़ मुझे आगे लिखने के लिए हौसला देते हैं ,बहुत बहुत धन्यावा .

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    लेखनी कई चित्र उकेरती है ….. पढना बहुत अच्छा लगता है …. कई नई जानकारी होती है

    • बहन जी , आप का बहुत बहुत धन्यवाद .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लिखा है भाई साहब. आपका यह कहना बिल्कुल सच है कि भारत को आज़ादी दुसरे विश्व युद्ध में इंग्लेंड के कमजोर हो जाने के कारण मिली थी, जैसे कई और दश भी आजाद हुए थे. गांधी-नेहरु ने केवल सत्ता हथियाने के लिए सौदेबाजी की थी और देश के टुकड़े करा दिए थे.

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लिखा है भाई साहब. आपका यह कहना बिल्कुल सच है कि भारत को आज़ादी दुसरे विश्व युद्ध में इंग्लेंड के कमजोर हो जाने के कारण मिली थी, जैसे कई और दश भी आजाद हुए थे. गांधी-नेहरु ने केवल सत्ता हथियाने के लिए सौदेबाजी की थी और देश के टुकड़े करा दिए थे.

    • विजय भाई, जो देश का बटवारा हुआ, उस ने दोनों देशों को एक कैंसर दे दिया. अगर गांधी नेहरू सत्ता के लिए इतनी जल्दी ना करते तो देश का बटवारा बच जाता किओंकि बहुत मुसलमान भी इस बटवारे के हक्क में नहीं थे.

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, कहां रिश्तों का इतिहास चल रहा था, एक जंप लगा और देश का ऐसा रोचक इतिहास चलने लगा, जैसा किसी इतिहास की किताब में नहीं मिलेगा. कमाल का नज़रिया है आपको. ऐसे अद्भुत नज़रिए को कोटिशः सलाम.

    • लीला बहन , धन्यवाद .बस खियाल भी एक पंछी की तरह ही होते हैं ,क्या मालूम कहाँ उडारी मार किसी और देश में चले जाएँ . आप की हौसला अफजाई से ही काम आगे जा रहा है .

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