लघुकथा

“सूरज और चंदा”

 

“वार्ता”

सूरज- कैसी हो चाँद, आज दिन में कैसे?????
चंदा- गर्मी,, बहुत गर्मी चढ़ी है तुमको, खूब तपा तो रहें हो, जिसे देखते हो झुलसा ही देते हो, मुझे देखते ही पिघल गए
सूरज- तुम तो शीतल हो न, चांदनी लिए अपनी रात के आगोश में, तुम्हें कैसी तपिस
चंदा- राहु-केतु हैं न दाग लगाने के लिए, लगा के दिल बैठी हूँ यह दाग ही तो है, अब और तो मत जलाओ
सूरज- तुम्हारी सुंदरता पर ये काले तिल ही तो हैं दोनों राहु-केतु
चंदा- हाँ, जिन्हें तुम अब बड़ा सा लक्षन बनाकर सबको दिखाना चाह रहे हो
सूरज- देखो न तुम कितनी खूबसूरत हो, जल्वा बिखेरती रहती हो, पूनम की चाँद
चंदा- भूल से भी मत आना कभी छिटकी चांदनी में नहाने, ठंढे हो जाओगे
सूरज- मैं तो रोज आता हूँ पर तुम्हीं अकुलाकर अँधेरे में छिप जाती हो
चंदा- डर लगता है कहीं तुम मेरी शीतलता ही न क्षीण कर दो
सूरज- इसी लिए घटती बढ़ती रहती हो क्या? जब भी मैं सामने पड़ता हूँ
चंदा- हाँ, तुम्हारी आहट होते ही छुप जाती हूँ, न जाने कब चिंगारी भड़का दो
सूरज- मुझसे इतना डरती हो, कभी सोचा है कि जब भी तुम्हारे पास आता हूँ, मैं निश्तेज होकर ही आता हूँ
चंदा- भान है मुझे इसका, और आती भी हूँ छुपके से, पर तुम इंतजार ही नहीं करते, डूबने लगते लगते हो, फिर मैं अँधेरे की चादर में दुबक जाती हूँ
सूरज- क्या करता, जानता हूँ तुम कभी प्रकाश में नहीं आओगी, मन मसोश कर रह जाता हूँ और सो जाता हूँ
चंदा- न तुम अपनी चाल बदल पाओगे न मैं अपनी, दूर से निहारते रहो, यही उचित है, यही नियति को मंजूर है
सूरज- ठीक कहती हो, न मैं अपनी दमक छोड़ सकता हूँ, न तुम अपनी चमक
चंदा- फिर जलते रहो, हाल चाल क्या पूछ रहें हो, मैं तो ऐसे ही चमकती रहूंगी
सूरज- बस यूँ ही चमकती रहो और मैं दहकता रहूँ, बारीश दोनों को खामोश कर देगी, हा हा हा हा हा
चंदा- सखी है मेरी, तुम्हें ढक लेगी, बच के रहना
सूरज- नफ्फट तो है पर बेबाक है, बेमौसम ही भीगा जाती है और कभी कभी तो तपने के लिए छोड़ ही देती है
चंदा- अभी कल ही तो आई थी, जल्दी आने को कह गई है
सूरज- हाँ मिली थी मुझसे भी, कह रही थी बहुत जल्दी ठिठुर जाते हो, मजाकिया है……..
चंदा- ठीक ही तो कह रही थी, पानी देखते ही काँपने लगते हो, आज शरम का जमाना कहाँ है
सूरज- तुम भी बदल जाओ ज़माने को देखकर, मेरी बात मानों
चंदा- मैं जिस दिन बदल जाउंगी, तुम्हारी दमक रहेगी क्या?, बोलो मान लूँ क्या??????
सूरज- चुप होकर, चाँद को देखने लगता है, जो हल्का ही सही पर उभर आया है
चंदा- बाय बाय, अब मैं चली……..और मानों दो कदम चलकर ओझल हो जायेगी, सूरज की नज़रों से
सूरज- बबबबबबबबबब्बाय…………कहता हुआ, आकाश को निहारता हुआ, डूब जाता है उसके ख्यालों भरे समंदर की लहरों में
अरे सूरज इतनी धूप में किसे निहार रहा है, किसी मित्र की आवाज……जिसे सुन वह हड़बड़ा कर बोल उठता है…….बारीश कब होगी??????
दोपहरी में चाँद ढूढ़ रहा है, धुप में बारीश करवा रहा है, माजरा क्या है, आज फिर चंदा दिख गई क्या?????…
और दोनों ठठा कर ऐसे हंस पड़ते है मानों एक दूसरे के राजदार हों………..

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ