संस्मरण

मेरी कहानी 126

पिंकी की मैरेज रजिस्ट्रेशन के बाद सब कुछ नॉर्मल हो गया था। पिंकी रोज़ाना फिर से काम पे जाने लगी थी । गुरदुआरे में सिख मर्यादा के अनुसार शादी एक साल बाद करने का तय किया गया था लेकिन पिंकी की सास के संदेशे आने शुरू हो गए कि हम शादी कर दें लेकिन पिंकी ने अपना फैसला सुना दिया था कि वह एक साल से पहले हरगिज़ शादी नहीं करेगी। एक साल भी कौन सा दूर था, करते करते एक साल पूरा होने को हो चला था। क्योंकि भा जी अर्जन सिंह और ज्ञानों ही विचोले थे, इस लिए उन्होंने हमारे समधिओं को कहा कि शादी के बाद खाना गुर्दुआरे में ही होगा, हाल में नहीं। भा जी अर्जन सिंह की इज़त सभी करते थे और उन का प्रभाव भी कुछ ऐसा था कि समधिओं ने भी इस में कोई आना कीनी नहीं की और उन्होंने ने कहा कि डोली की रस्म ज़रा जल्दी हो जाए तो उन को लंडन वापस पहुँचने में आसानी होगी क्योंकि तीन घंटे का सफर था और वहां जा कर वह अपने महमानों को रिसैप्शन पार्टी देंगे।

कुलवंत को भार्तीय और ख़ास कर पंजाबी रस्मों की बहुत जानकारी है, शायद इस का कारण यह ही होगा कि उस ने अपनी तीन बहनों की शादिओं में सब कुछ सीख लिया होगा। आज भी जब कभी रेडिओ पे कभी ऐसी रस्मों के बारे में टॉपिक होता है तो कुलवंत अपने विऊ देती है। जेबरात के लिए सोना तो हम ने बहुत पहले ही खरीद लिया था और अब उन के नए डिज़ाइन के गहने ही बनवाने थे। किस किस को कैसे कपडे देने थे, उन के साथ कितने पैसे रखने थे, कितनी पगड़ियां और कितने हार, कितनी अंगूठीआं मिलनी के लिए, कितने मिठाई के डिब्बे आदिक मुझे कुछ पता नहीं था और यह काम कुलवंत, ज्ञानों बहन से मशवरा ले कर तैयार कर रही थी। अब सन्दीप भी पंद्रह सोला साल का हो गया था और रीटा और हमारे साथ मिल कर सारे काम करवाता। जिन चीज़ों की एक्सपायरी डेट ज़्यादा होती है, वह तो हम ने बहुत हफ्ते पहले ही बर्मिंघम के एक स्टोर से ले आये थे। एक दिन फिर हम बड़ी वैन ले कर बर्मिंघम गए। वहां रुकरी रोड पर एक बहुत बड़ी दूकान होती थी जो बहादर के घर के नज़दीक ही होती थी और शायद अभी भी हो, यह बहुत बड़ी पुरानी बिल्डिंग थी और इस में सामान यूं ही फैंका हुआ था जैसे इंडिया में होता है लेकिन इस दूकान से हर चीज़ मिल जाती थी और सब दुकानों से सस्ती मिलती थी। विवाह शादियों के लिए कहीं और जाने की जरुरत नहीं थी । इस को दर्शन की शॉप कहते थे। यह दर्शन बहुत सादा किसम का इंसान था और ऐसे ही उस के लड़के थे लेकिन उस समय ही वह मिलियनेअर थे, सब दुकानों से ज़्यादा उन की शॉप चलती थी। यहां से हम ने दाज का कुछ सामान रखने के लिए एक बड़ी पेटी खरीदी, यह पेटीआं पंजाब से ही इम्पोर्ट होती थीं। इस के बाद कपडे, हार, डिस्पोज़ेबल कप प्लेटें और भी बहुत सा सामान ले कर वैन भर ली और घर आ गए।

जैसे जैसे दिन नज़दीक आ रहे थे वैसे ही हम भी बिज़ी हो गए थे। बरात को खाना गुर्दुआरे में ही देना था, इस लिए हम बहादर को साथ ले कर जगदीश के घर गए और उस के साथ मशवरा किया कि वेजिटेरिअन वयंजन किया किया उस समय परचलत थे। जगदीश ने बहुत से खानों की फरमायष की और हम को भी पसंद आये। जो जो सामग्री और कितनी उस ने बताई, हम ने लिख ली और घर आ गए। अब फिर वोही टैंट लगाना था क्योंकि इस की जरुरत तो थी ही, रजिस्ट्रेशन के वक्त हम को पता चल गया था कि इस से कितना फायदा हुआ था। हम को कहीं जाने की जरुरत तो थी नहीं, इस लिए मैं बलवंत और संदीप ने मिल कर जल्दी ही टैंट खड़ा कर दिया। जुलाई 1989 था और मौसम भी बहुत अच्छा था। कुकिंग का काम पहले की तरह सब गैरेज में ही होना था। गोगले पकौड़े सीरनी मठीआं आदिक बनने शुरू हो गए। जब भी जरुरत होती बहादर और कमल भी बच्चों को ले कर आ जाते और इधर बलवंत की पत्नी अमरजीत जो कुछ साल हुए कैंसर की नामुराद बीमारी से परलोक सिधार गई थी, भी आ जाती और साथ ही आती बलवंत के बड़े भाई जसवंत की पत्नी जसबीर। यह दोनों अमरजीत और जसबीर तो घर में रौनक ला ही ला देतीं। हंस हंस कर काम होते और हमें भी बहुत हौसला होता। एक दिन पिंकी ने गैरेज की दीवारों पर बहुत से कार्टून बना दिए जिन को देख कर एक दिन अमरजीत बहुत हंसी और पिंकी को कहने लगी कि यह कार्टून उन की गैरेज में भी बना दे लेकिन इस विचारी लड़की को भगवान् ने सुख देखने नहीं दिया और अपने बच्चों की शादियां देखे बगैर ही इस संसार से चले गई, बहुत अच्छी लड़की थी अमरजीत और जब से वह गई है, अब वह घर रहा ही नहीं जो पहले होता था।

अब एक दिन हल्दी की रसम होनी थी तो यह काम इसी टैंट में हुआ। बहुत रौनक थी और रोज़ ही रौनक होने लगी। शादी के एक दिन पहले तो गहमा गहमी बहुत ही थी जो हर शादी के वक्त होती ही है और उस दिन नानका मेल यानि पिंकी के ननिहाल से गैस्ट आने थे और चूड़े की रसम होनी थी। अब इस में सब से गर्व की बात हमारे लिए यह थी कि ना तो कुलवंत के माता पिता या कोई और इस समागम में शामिल था और ना ही chatham से सगी बुआ फुफड़, बस थे तो यह बुआ, निंदी ,जिन्दी और सुरिंदर और साथ ही आये निंदी के मामा मामी और उन के चार लड़के लेख सिंह, किशन सिंह, चरनजीत सिंह और किंग अपनी पत्निओं के साथ। निंदी की मासी और उस का परिवार भी आये। कुलवंत के एक और चाचा जी, जो सगे तो नहीं थे लेकिन कुलवंत के परिवार से इन की बहुत महबत थी, यह थे समुंद सिंह और उस की पत्नी और साथ आये इन के तीनों बेटे करनैल अमरजीत और मेहरबान अपने परिवारों के साथ। इस परिवार से एक और कुलवंत के चाचा जी की लड़की बीरो और उस के पति स्वर्ण सिंह भी आये। इस स्वर्ण सिंह को सब हंस कर मेहर मित्तल बुलाते हैं क़्योंकि यह कॉमिडियन टाइप शख्स है और इस को प्रसिद्ध पंजाबी कॉमिडियन मेहर मित्तल कह कर बुलाते हैं क़्योंकि इस की हर बात में कॉमेडी नज़र आती है। कुलवंत के एक और चाचा जी के दो लड़के जो फॉरेस्ट गेट में रहते हैं, वे भी अपने परिवारों के साथ आये, इन में एक लड़के का नाम गुरध्यान सिंह और दूसरे का गुरचरण सिंह है। उस शाम को जब यह सब लोग इकठे हो कर हमारे दरवाज़े पर उपहार ले कर खड़े थे और औरतें हंस हंस कर गा रही थी तो हम ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे। पंजाबी लोग गीतों में ननिहाल की तरफ़ से और हमारी तरफ से औरतें एक दुसरी पर जोक कस्स रही थीं जो बहुत ही मनोरंजक था। बहुत देर बाद नानका मेल को भीतर आने की इजाजत दी गई।

भीतर आ कर इस ननिहाल पार्टी को टैंट में चाय पानी से स्वागत दिया गया और इस के बाद सभी औरतें सिटिंग रूम में आ कर बैठ गईं । चाची यानि मघर सिंह की पत्नी और निंदी की मम्मी और मासी ने सारे कपडे और कुछ गहने ज़मीं पर रख दिए जिस को पंजाब में नानकी छक कहते हैं। यह कपडे उस के हैं, यह इस के हैं, होने लगी और सच कहूं तो मुझे इन सब बातों का कोई गियान नहीं था लेकिन मैंने तो आखर में अपने सर पर उन के लाये कपडे रख कर सब का धन्यावाद किया कि वह कितना खर्च करके आये थे और हमारे इस शुभ अवसर पर हम को कितना मान दिया गया था । यूं तो यह सब धन्यवाद करके मैं हंस और मुस्करा रहा था लेकिन भीतर से ख़ुशी के आसूं थे और मैं गर्व महसूस कर रहा था। इस के बाद चूड़े की रसम शुरू हो गई। निंदी और सभी लड़के पिंकी को चूड़ा पहना रहे थे, पिंकी भी खुश थी कि उस के इतने भाई थे।

इस सब के बाद अब मयूजिक सैंटर फुल वॉलिउम पर अपना जौहर दिखाने लगा था और लड़के लड़कियां डांस करने लगे। पड़ोसी गोरे लोगों को हम ने पहले ही बता दिया था कि शोर बहुत मचेगा और वह अपना घर बंद करके कहीं और चले गए थे। मर्द और लड़के टैंट में बैठ गए थे और बलवंत जसवंत उन को बीयर और विस्की सर्व करने लगे थे। जो विडीओ वाला था, वह भी कभी राम्गढ़या सकूल फगवाढ़े में मेरा क्लास फैलो हुआ करता था और इस का नाम था तरलोचन सिंह बाहरा। मैं कभी भीतर आ जाता और कभी टैंट में चले जाता। बच्चे इधर उधर भाग रहे थे। क्योंकि गर्मिओं के दिनों में इंगलैंड में दस वजे तक लौ रहती है, इस लिए गर्मिओं के दिनों में शादीआं बहुत होती हैं।

इधर तो सभी डांस और खा पी रहे थे और उधर हम को बार बार गुर्दुआरे को भी जाना पड़ता था क्योंकि वहां कुछ औरतें और कुछ लड़के सब्जिआं काट रहे थे और जगदीश तड़के भून रहा था, सब कुछ ठीक ठाक हो रहा था और जगदीश ने दूध को जाग बगैरा भी लगा दिया था और हम को तसल्ली हो गई थी। मज़े की बात यह थी कि सभी जी जान से काम कर रहे थे और किसी को कुछ भी बताने की जरुरत नहीं पढ़ रही थी, हर कोई अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभा रहा था। कोई दस बजे के करीब जगदीश ने अपना सारा काम निपटा दिया था और बाकी काम सिर्फ गुर्दुआरे के गियानी जी के ज़िम्मे ही था, उस का काम सिर्फ कुछ धियान रखने का ही था और सुबह को फिर जगदीश ने आ जाना था। गुर्दुआरे में तसल्ली करके हम वापस टैंट में आ गए और अब महमानों के साथ गप्पें हांकना ही हमारा काम था। याद नहीं कितने बजे यह सब खत्म हुआ और आखर में अब यह काम ही था कि जो महमान रात ठहरने वाले थे, उन के लिए बलवंत की दूकान के ऊपर के कमरों में सोने का इंतज़ाम किया हुआ था ताकि सुबह को टॉयलेट और नहाने के लिए आसानी हो। बहुत लेट हम बैड में गए लेकिन शायद ही हम को नींद आई होगी क्योंकि एक तो सारा घर सामान से भरा हुआ था, दूसरे कुछ चिंता थी।

सुबह को हम जल्दी उठ गए। बहादर और कमल भी आ गए, बलवंत तो आते ही पहले गैरेज में गया और गैस कुकर पे चाय के लिए पानी रख दिया और टैंट में टेबल पर मठाई की प्लेटें रख दीं। जो जो तयार हो कर आता टैंट में बैठ कर चाय बगैरा का आनंद लेता। विडिओ वाला भी आ गया था। ऐसे ही नौ बज गए और सभी तयार हो कर गुर्दुआरे को चलने लगे। गुर्दुआरा टाऊन सेंटर में था और इस का नाम था रामगढ़िया बोर्ड। कुछ साल हुए यह गुर्दुआरा अब बंद हो गया है और यही गुर्दुआरा अब टाऊन के बाहर बर्मिंघम रोड पर बन गया है जो बहुत बड़ी बिल्डिंग है। गुर्दुआरे में महमान आने शुरू हो गए थे और यहां भी चाय पानी का इंतज़ाम था, इस लिए जो महमान सीधे गुर्दुआरे में आये थे वह चाय पीने लगे। बरात क्योंकि लंडन से आणि थी और मोटरवे पर शनिवार को अक्सर ट्रैफिक बहुत होती है, इस लिए बरात दस बजे पहुंची। दूल्हे चरनजीत के पीछे पीछे सब बराती गुर्दुआरे के बड़े दरवाज़े पर आ खड़े हुए और अब लड़किओं का अपना प्रोग्राम था कि वह अपनी कंडीशन पर ही बरात को भीतर प्रवेश करने देंगी । काफी हंसी मज़ाक के बाद बरात अंदर आ गई और मिलनी की रसम शुरू हो गई। मेरे लिए और चरणजीत के पिता जी अजीत सिंह के लिए यह पहला अवसर था अपने बच्चों कि शादी में मिलनी के लिए और मैंने अपने समधी को अंगूठी पहनाई और एक पगड़ी दी और साथ ही हम ने एक दूसरे के गलों में हार पहनाए। इस के बाद और मिलनिआं होने लगीं और मैं आज बड़ा हो गया महसूस कर रहा था।

मिलनी के बाद सब खाने पीने लगे थे और बाद में ऊपर हाल में चले जाते यहां ग्रन्थ साहब जी की बीड़ शुशोभित थी। हर कोई माथा टेक कर श्रद्धा के फूल भेंट करता। जब सब आ गए तो पहले सगाई की रसम होनी शुरू हो गई। यह लिखने में मैं कोई शर्म महसूस नहीं करता कि बहुत बातों की ट्रेनिंग मुझे कुलवंत ने पहले ही दे दी थी ताकि कोई गलती न हो जाए। क्योंकि हमें समधी की ओर से कहा गया था कि हम सारा काम जल्दी निपटा दें ताकि वह वापस जा कर रिसेप्शन पार्टी दे सकें और इस बात में वह सही भी थे क्योंकि वापसी सफर भी लम्बा था , इस लिए हम ने भी पहले ही ग्रंथि साहबान को कह दिया था कि वह हर काम ज़रा जल्दी कर दें। रागिओं के दो तीन शब्द पड़ने के बाद ही लावां की रसम शुरू हो गई। संदीप और बहुत से अन्य लड़के पिंकी को आगे बढ़ने में मदद कर रहे थे और हमारी आँखों में आंसू थे, इन आंसुओं को जाहर करना एक असम्भव सी बात है। लावां खत्म होने के बाद सब एक दूसरे को वधाई देने लगे।

अब मैंने और कुलवंत ने चरनजीत और पिंकी के गले में हार पहनाये और दोनों की झोली में शगुन डाला, पियार दिया और फोटो खिचवाई। हम बैठ गए और अब सबी महमान चरनजीत पिंकी की झोली में शगुन डालने लगे। मैं खियालों में खो गिया। पिंकी का रिश्ता तय होने के कुछ महीने बाद ही बलवंत की पत्नी अमरजीत ने हमें एक विडिओ दिखाई और हम देखते ही हैरान हो गए थे। इस फिल्म में जब बलवंत की छोटी बहन की शादी थी तो उस समय चरणजीत तेरह चौदा साल का था और पिंकी तकरीबन दस साल की थी। इस शादी में जब इसी गुरुदुआरे में लोग माथा टेकने के लिए आगे बढ़ रहे थे तो चरणजीत के पीछे पीछे पिंकी भी हाथ जोड़े जा रही थी। चरणजीत के बाद पिंकी ने माथा टेका था। बात तो यह एक सधाहरन और कुदरती घटना थी लेकिन इस बात पे बहुत बातें हुई थीं कि चरणजीत और पिंकी का रिश्ता तो भगवान् ने पहले ही तय कर दिया था।

विवाह हो जाने के बाद फोटो सैशन शुरू हो गया और बरात के कुछ लोग बाहर बैठे कार पार्क में ड्रिंक लगा रहे थे। यूं तो गर्दुआरे में लिखा हुआ था कि शराब पी कर गुर्दुआरे में प्रवेश करना मना है लेकिन ऐसे समय पर कोई कुछ कहता भी नहीं था। एक बजे ही खाना शुरू कर दिया गया जैसा कि समधी की और से कहा गया था कि हम देर ना लगाएं। सभी खाने लगे और हमारी ओर से एक थाली तैयार की गई जिस के ऊपर एक बड़ा लाल रुमाल रखा गया और विचोला भा जी अर्जन सिंह अपने हाथों में ले कर समधी और उन के नज़दीकी रिश्तेदारों की ओर ले कर चला। वहां पहुँच कर कुछ खुशगवार बातें हुई और समधी ने कुछ पाउंड थाली में रखे और हम थाली ले कर चरणजीत और पिंकी के पास आ गए और बारी बारी हम ने दोनों ने एक एक ग्राही दोनों के मुंह को लगाईं और इस के बाद कुछ और लोगों ने ऐसे ही किया और फोटो खिचवाई। खाने के बाद पिंकी को हम घर ले आये। समधी की ओर से भी काफी लोग घर आ गए थे और टैंट के नीचे बैठ कर बातें होने लगीं । पिंकी और चरणजीत सिटिंग रूम में बैठे थे और पिंकी की सारी सखिआं वहां थीं। बस इस बात को आगे ना बढ़ाऊँ, जब विदाई का वक्त आया तो पिंकी को रोते देख मैं इतना रोया कि ज़िंदगी में मैं कभी भी इतना नहीं रोया था। अक्सर मैं बहुत बातें किया करता था कि शादी के वक्त लोग रोतें क्यों हैं, ऐसा होना नहीं चाहिए किओंकी यह तो ख़ुशी का वक्त होता है लेकिन आज मैं वह सब बातें भूल गया था और यह विडिओ में रिकार्ड़ है और इसे दुबारा देखने की मुझ में अब भी हिमत्त नहीं है। विदाई हो गई थी और ऐसा महसूस हो रहा था जैसे हमारे शरीर का कुछ हिस्सा खाली हो गया हो।

चलता . . . . . . . . . .

8 thoughts on “मेरी कहानी 126

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। विवाह विषयक सभी घटनाओं का जीवन्त वर्णन अच्छा लगा और साथ ही आपके लेखन सामर्थ्य एवं प्रभावशाली अभिव्यक्ति के भी दर्शन किये। आप अपनी संतान के प्रति एक दायित्व से मुक्त हुवे। आज की किश्त के लिए हार्दिक धन्यवाद।

    • मनमोहन भाई ,धन्यवाद . हमारा समाजक जीवन ही ऐसा है कि बेटी के पैदा होते ही उस के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं और बेटी को बहुत पियार देते हैं किओंकि जितना मर्जी हम अपने आप को कह लें कि हम बेटे बेटी में फरक नहीं करते लेकिन हमारे मन में यह बात तो रहती ही है कि बेटी पराया धन है, इस लिए अपना फर्ज़ निभाने के लिए हर संभव कोशिश करते हैं .

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    सजीव चित्रण शादी समारोह की …. रोचक लेखन

    • धन्यवाद बहन जी .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, आज तो बस हम इतना ही लिख पाएंगे, कि इस एपीसोड में तो कमाल की जीवंतता और चित्रांकन है. बाकी विदाई के समय की नमी में कैद है. अति सुंदर एपीसोड के लिए आभार.

    • लीला बहन , धन्यवाद . बस यह भी जिंदगी के खेल हैं ,संसार इसी तरह चलता है .

      • लीला तिवानी

        प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. हम पहले खुश होते हैं, खुशी से विदाई की तैयारी करते हैं, बाद में भी खुश होते हैं, बस वही वेला आंखों को नम कर देती है. एक बार फिर अद्भुत एपीसोड के लिए आभार.

        • लीला बहन , बिलकुल सही कहा . हम भारत्य बच्चों के बहुत समीप होते हैं . हमारा सामाजिक जीवन ही एक tight net की तरह है जिस की हर तंद एक दुसरे के साथ बाँधी हुई होती है . यह बात गोरों में भी है लेकिन इन की त्न्दें बच्चों तक ही सीमत होती हैं . गोरे लोगों में सुसराल है ही नहीं , बस FATHER- IN-LAW MOTHER-IN-LAW ही होते हैं .

Comments are closed.