राजनीति

जरूरत तमीज सुधारने की है

मैंने विश्वामित्र जैसे ऋषि को,
अपनी करतूतों से हिला दिया,
और भी न जाने कितने के मन में,
कांटों का फूल खिला दिया।
ये लोकतंत्र के तपस्वी मेरा क्या करेंगे?
कुछ करेंगे तो बिन- मौत मरेंगे।
मैं केवल पाप का वरण करती हूँ,
जब जिसका चाहूँ उसका हरण करती हूँ।
मैं कभी नहीं मरती हूँ,
अच्छे- अच्छों का शीलभंग करती हूँ।
शरीफ लोग हैं किस खेत की मूली?
उन्हें तो मैं आये दिन चढ़ाती हूँ शूली।
मैं गरीबों का नहीं केवल गरीबी का हित करती हूँ,

कभी लालटेन हाथ में लेकर साईकिल की सवारी करती हूँ।
मेरी दया, प्रेम, सत्य, अहिंसा में कभी भी नहीं रही प्रीति है।
इसलिए तो मेरा नाम राजनीति है।

डाॅ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘‘मयंक’’ ने जिस कदर राजनीति की परिभाषा दी है, वर्तमान राजनीतिक हालात पर लिखी जाने वाली कहानी में शीर्षक की भूमिका अदा करेगी।
अमूमन राजनीति शब्द की शुरूआत जनता, नेता, वादा, भरोसा, वोट, चुनाव और सत्ता जैसे शब्दों को व्यवस्थित करके की जाती है।
यही कारण है कि आज राजनीति और राजनीति से जुड़े लोगों को प्रतिष्ठा की नजर से देखने में परहेज किया जाता है।
आखिर क्यूँ?
इस क्यूँ का जवाब यदि खोजने निकलूँ तो हजारों क्यूँ और मिल जायेंगे।
लेकिन बगैर दुनियावालों से पता किये यदि दो पल सिर्फ अपने आप से सवाल किया जाय कि क्या वास्तव में राजनीति इतनी गंदी है, मुझे लगता है राजनीति स्वयं हमारे पास आकर अपना हाल सुना जायेगी।
आज यदि हम चाणक्य नीति पर गौर फरमायें तो हमें राजनीति की शुद्धता का ज्ञान होगा और राजनीति को बदनाम करने वालों को भी सबक मिलेगी।
पंडित चाणक्य ने कहा था जो नीच प्रवृति के लोग दूसरों के दिलों को चोट पहूँचाने वाले मर्मभेदी वचन बोलते हैं, दूसरों की बुराई करके खुश होते हैं। अपने विचारों से कभी-कभी अपने ही वाचों द्वारा बिछाये जाल में स्वयं ही घिर जाते हैं और उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह रेत की टीले के भीतर बांबी समझकर सांप घुस जाता है और फिर दम घुटने से उसकी मौत हो जाती है।
थोड़ी सी मानसिक हलचल की जाय और चाणक्य के इस कथन को आज के नेताओं से मैच कराया जाय तो नेताओं को ‘‘नीच प्रवृति’’ नामक उपाधि से नवाजना पड़ेगा।
गौरतलब है आज के नेता एक-दूसरे पर इस तरह कीचड़ उछाल रहे हैं मानों किसी राजनीतिक फिल्म में खलनायक की भूमिका निभा रहे हों। वे लाखों लोगों के बीच एक दूसरे की बुराई कर रहे हैं और खुद को दूसरे की तुलना में श्रेष्ट साबित करने की पूरजोर कोशिश जारी है।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि हमारा संविधान भी कहीं-कहीं अस्पष्ट है जिसका फायदा हमारे नेता आये दिन उठा रहे हैं। जैसे हमारे संविधान के उद्देशिका में यह स्पष्ट नहीं है कि धर्म को राजनीति से नहीं मिलने दिया जायेगा या धार्मिक समस्याओं, निधियों और उपासना के स्थानों का प्रयोग राजनीतिक उद्देश्यों के लिये नहीं करने दिया जायेगा। साथ ही यह भी तय नहीं किया गया है कि किस जगह ‘पंथ’ शब्द का इस्तेमाल जायज़ होगा और किस जगह ‘धर्म’ या ‘संप्रदाय’ का।
यही वजह है कि राजनीतिक योद्धा अपनी तरकश को धार्मिक बाणों से भर रहे हैं। युद्ध भी इन्हीं बाणों के प्रहार से प्रारम्भ होती है और अंत भी इन्हीं वाणों के साथ।
लिहाजा आज लव-जिहाद, सांप्रदायिक तनाव, जातिगत राजनीति की रूपरेखा में अमूल परिवर्तन देखने को मिल रहा है। और इसी धुरी के मार्फत राजनीतिक उथल-पुथल कायम है।
जहाँ संविधान का अनुच्छेद 19 नागरिकों को बोलने की स्वतंत्रता प्रदान करता है वहीं अनुच्छेद 105 तथा 194 विधानमंडलों के सदस्यों को। सौभाग्य ऐसा कि यदि साधारण व्यक्ति अपने बोलने की स्वतंत्रता का इस्तेमाल करते हुये हद पार कर जाय तो उसे मानहानि के दायरे में लाकर सजा दिया जाता है। लेकिन यदि वही काम कोई संसद सदस्य सदन में या उसकी किसी समिति में करे तो उसे जायज़ करार दिया जाता है।
आज जिस तरह राजनीति दूषित हो रही है उसका खामियाजा पूरे देश को भोगना पड़ रहा है। आशंका इस बात की भी है कि कहीं राजनीति अपने आगोश में मानव के संवेदनाओं को ही न समेट ले। क्योंकि जिस कदर आज भावना, प्रेम और श्रद्धा का कूटनीतिकरण नेताओं के द्वारा किया जा रहा है, यह कबीरदास के दोहे ‘‘पोथी पढ़ पढ जग मुआ, पंडित भयो न कोय, ढ़ाई अक्षर प्रेम के पढ़े सो पंडित होए’’ को अर्थहीन साबित करने के लिये पर्याप्त है।
प्रेम शाश्वत सत्य है जिसके सबसे बड़े पुजारी महात्मा गाँधी थे जिन्होंने सत्य और अहिंसा के बल पर पूरी दुनिया में मिशाल कायम की।
ईश्वर के बाद महात्मा गाँधी ही एकमात्र ऐसे योद्धा हैं जिन्हें समूचा विश्व पूजता है। गौर करने वाली बात ये भी है कि हर संप्रदाय में ईश्वर को अलग-अलग रूपों में पूजा जाता है लेकिन हिन्दु व्यक्तित्व वाले महात्मा गाँधी को आखिर समूचा विश्व एक साथ क्यों पूजता है?
इस क्यों का जवाब गाँधी के नारे ‘‘हे राम’’ से सहज ही निकाला जा सकता है।
गाँधी ने राजनीतिक उतार-चढ़ाव में कभी भी सांप्रदायिकता का सहारा नहीं लिया और प्रत्येक संप्रदाय को एक समान भाव दिया। उन्होंने जिस तरह हिन्दु परिवार में जन्म लिया उसी तरह अपने धर्म के साथ समन्वय स्थापित करते हुये अपनी अंतिम सांसे भी ‘हे राम’ के सहारे पूरा किया।
पूर्व से लेकर आज भी जब किसी हिन्दु की अंतिम यात्रा निकलती है तो उस यात्रा में ‘‘राम नाम सत्य है’’ केे नारे जरूर लगाये जाते हैं। भला होता इस देश का यदि अंतिम यात्रा के इस नारे से सीख लेकर हिन्दु संप्रदाय अपने आप को धार्मिक दायरे में सीमित रखता।
लेकिन अफसोस!!! आज हमारे नेता महाशय दिखावे के लिये एक तरफ झूठी गाँधीगीरी कर रहे हैं और दूसरी तरफ गाँधी के संदेश एवं सीखों की धज्जियाँ बिखेर रहे हैं। ऐसे नेताओं को शायद गाँधी के अनमोल वचनों की चंद पंक्तियों भी याद नहीं। उन्हें याद होना चाहिये कि धार्मिक मान्यताओं पर गाँधी जी ने कहा था:- ‘‘ईश्वर का कोई धर्म नहीं होता’’
बापू के इस अनमोल वचन यदि हमारे नेता आत्मसात कर लें तो हमारा देश विश्व का सबसे शांतिप्रिय देश बन जायेगा।
गौरतलब है आज देश में जहाँ-जहाँ भी माहौल खराब होता है वहाँ सांप्रदायिकता के माध्यम से ही हवा दी जाती है।
जाहिर है जिस तरह देश की तरक्की के लिये अमीर- गरीब का होना जरूरी है, हर जाति और तबके का होना जरूरी है साथ ही अलग- अलग व्यवसायिक लोगों का होना जरूरी है। उसी तरह देश तो क्या समूचे विश्व की तरक्की एवं शांतिप्रिय माहौल के लिये अलग- अलग संप्रदाय का होना जरूरी है।
ऐसे में हमारे संविधान के उद्देशिका में मिली छूट का फायदा उठाकर धर्म को राजनीति से जोड़ना साक्षात राष्ट्रपिता सह विश्वगुरू महात्मा गाँधी का अपमान करने जैसा है। दुःख इस बात का भी है कि संविधान- संविधान चिल्लाने वाले नेताओं को संविधान के अनुच्छेद 51 में वर्णित ‘‘वसुधैव कुटुंबकम्’’, ‘यानि पूरा विश्व एक परिवार है’ की तनिक भी लाज नहीं।
यदि उन्हें लाज होता तो वे आपस में कभी नहीं लड़ते। उन्हें क्या पता उनके इस लड़ाई से, उनके मर्मभेदी वचनों से पूरे देश की जनता पर क्या असर पड़ता है?
जब कोई नेता किसी दूसरे नेता की बुराई करता है और उसपर मर्मभेदी बाणों के सहारे आलोचनाओं की एक लम्बी कहानी लिख डालता है तो यह कहानी न केवल उनके विरोधियों को और मताधिकार का प्रयोग करने वाले जनता-जनार्धन को पढ़ने-सुनने व देखने को मिलता है बल्कि उनकी यह कहानी देश के छोटे- छोटे मासूम बच्चों को भी सुगमता से उपलब्ध होता है जो राजनीति से बिल्कुल अनभिज्ञ होते हैं। ऐसे मासूम बच्चे जब टी0वी0, अखबार और सोशल नेटवर्किंग साईटों पर नेताओं के आलोचनात्मक वृत्तांत देखते, पढ़ते व सुनने हैं तब उनके मानसिक पटल पर बुरा प्रभाव पड़ता है। जिस तरह धर्मांचरण का पालन करते हुये बड़े से बड़े महात्मा भी अपने गुरूओं की बातों को विनम्रता से सुनते हैं उसी तरह आज के छोटे-छोटे मासूम बच्चे वर्तमान भाषणवीर नेताओं की बातों को विनम्रता से सुन रहे हैं। ये बच्चे अपनी किताबों से महात्मा गाँधी, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद, डाॅ0 अब्दुल कलाम, रानी लक्ष्मी बाई जैसे अनेकों कर्मवीरों के साहसी संघर्षों का फूल डोज लिये होते हैं।
फलतः ऐसे भाषणवीर नेताओं में वो अपने आदर्श महापुरूषों को खोज रहे हैं।
बच्चों की खोजबीन का भागिरथी प्रयास जारी है जिसमें उन्हें आज के नेताओं का चरित्र चित्रण नसीब हो रहा है। यह चरित्र चित्रण कैसा है? कहने की जरूरत नहीं, क्योंकि हर कुछ अब लाइव टेलीकास्ट हो रहा है।
इस बात को झूठलाया नहीं जा सकता कि संविधान के गठनकाल से ही नेताओं में मतभेद देखने को मिल रहा है। गृहमंत्री के रूप में सरदार पटेल की तथा प्रधानमंत्री के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अनुभूतियों में जमीन-आसमान का अंतर रहा है। इसी प्रकार राष्ट्रपति डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के बीच भी बुनियादी मतभेद रहे हैं। लेकिन सुकून की बात यह है कि उस जमाने में नेताओं के बोल उतने तीखे नहीं थे और न ही मीडिया का दायरा आज की तरह विस्तृत था।
नतीजतन नेताओं के मतभेद की खबरों से जनता लगभग अनभिज्ञ होती थी जिससे बच्चों के दिलों में हर नेता के लिये एक जैसा सम्मान होता था। वे चाचा नेहरू को भी उतना ही चाहते थे जितना डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद को।
आज नेताओं का ट्रेंड इतना बढ़ गया है कि यदि उनकी कमीज की एक बटन टूट जाय तो खबर समूचे विश्व को हो जाती है।
फिलवक्त जरूरत टूटे बटन वाले कमीज सुधारने की नहीं बल्कि बहके बोल वाले तमीज सुधारने की है ताकि बच्चों का भविष्य स्वर्णिम हो सके।
ज्ञातव्य हो आज केे बच्चे ही देश के भविष्य हैं।

आशु कुमार 

आशु कुमार

फिल्म लेखक और पत्रकार

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