कहानी

कहानी : नयी सुबह

आँखें ज़मीन में गढ़ाए, ठोढ़ी लगभग सीने में धसी हुई, एक पैर के अँगूठे से दूसरे पैर के अँगूठे के नाखून को कुरेदती हुई नित्या ख़ुद से ही लड़ रही है, नयनों के कोर से बह निकलने को आतुर आँसुओं का बाँध टूटने को है, सुंदर नेल पॉलिश से चमकते नाख़ून को जैसे वह तोड़ ही देना चाहती है, क्यों नहीं टूट रहा, वह ज़िद्दीपना क्यूँ दिखा रहा है, जब उसके भीतर सब कुछ टूट रहा है, सुंदर , सुनहले स्वप्न जो कल शाम तक किलकारी भर रहे थे, अब एक ताश के महल की तरह तेज़ हवा के एक झोंके से ढह गये, तितर-बितर हो गया वो सिलसिलेवार सपनो का सफ़र जो अब तक एक हवाई यात्रा के समान नित्या के अप्रत्यक्ष पंखों को परवाज़ दिए था, सर पर छत तो है किन्तु नित्या तो स्वयं को उस दलदल में धसती हुई देख रही थी जहाँ दूर तक कोई घर, कोई छत नहीं है, रेत पाँव के नीचे से सरक रही है और दूर तक फैले समुंदर में चाँद-तारों विहीन रात की कालिमा पूरे विस्तार में है,

नित्या कोशिश कर रही थी आस का कोई एक कोना उसके हाथ लगे जिसके सहारे अपने भीतर कुछ उजाला महसूस करे, कहने को कहते हैं लोग, ‘उम्मीद की किरणों को आने दो ज़ेहन के रौशनदानों से, फिर खिलेंगे फूल, महकेगी ज़िंदगी ख़ुशनुमा अरमानो से” पर बहुत कोशिश करके भी नित्या अपने छाती में उठती टीस को दबा नहीं पा रही,

अखिलेश का यह रूप तो उसने सपने में भी नहीं सोचा था कभी, वो सफ़ेद घोड़े पे सवार चाँदी-सी शेरवानी में एक बांके नौजवान का चमकता-दमकता चेहरा आज भी उसकी आँखों में पोशीदा है किन्तु वो इस अखिलेश से लेशमात्र भी मेल नहीं खाता, तारीफ़ के पुल बांधें थे एक साल पहले दूर की रिश्तेदार ने, “लड़का यूँ है, यूँ है ..लाखों में एक है रानी बना के रखेगा, नए विचारों वाला लड़का है , जो चाहे पहने हमारी नित्या, कोई बंदिश नहीं उस घर में और न जाने क्या क्या”,पिघले हुए सीसे से चुभ रहा है आज हर एक बोल उसके कानो में… हाँ, शादी के बाद तो यह सब सच ही लगा था, लगा था भगवान ने मुझे वरदान दिया है ख़ुश रहने का!!

कभी-कभी कुछ अजीब-सा लगता था पर वो कुछ क्षणों की बात होती थी,  वो कहते हैं न –‘ईश्वर सुख़-दुःख की पोटली बना कर देता है हर किसी की किस्मत में’,.. पर इतनी जल्दी हिसाब बराबर होगा, मालूम नहीं था, मेरी प्रेगनेंसी की ख़बर को सारे परिवार ने जश्न जैसे लिया था, शिकन तो थी अखिलेश के चेहरे पर बहुत जल्दी उसने उसे छुपा भी लिया था…. ..मेरे अलावा शायद ही किसी ने नोटिस भी किया हो,
रात जब कमरे में अचानक मैंने पूछा था, “अखिलेश क्या हुआ तुम्हारी मर्ज़ी से ही तो हमने बच्चा प्लान किया फिर परेशानी क्या है?”
अखिलेश ऐसे चौंका जैसे पैर किसी करंट दौड़ती तार पर पड़ गया हो, चुप रहा पर, मैंने फिर चुटकी ली, “क्या हुआ जी, मेरी जैसी प्यारी नित्या नहीं चाहिए क्या?”

इतना सुनते ही अखिलेश चिल्लाया, “क्या मतलब नित्या,.हमे लड़की नहीं चाहिए, एक बच्चा करना है और वो भी लड़का ही, ”
अब चौंकने की बारी मेरी थी, मैंने कहा ,”अखिलेश ये तुम क्या कह रहे हो?” सर पे घड़ा तब फूटा जब अचानक मेरी पोनीटेल के खिंचने से मेरी चीख निकली, चीख अखिलेश की गुस्से भरी आवाज़ में दब गयी, चिल्लाते हुए बोला, “मेरी बात समझ में नहीं आती क्या,.. लड़का मतलब लड़का ही होता है, कल ही जाकर अल्ट्रासाउंड कराना और देखना कि हमें बेटा ही हो, ”

“अरे!!!!! पढ़े लिखे होते हुए ये कैसी बाते करते हो? मैं कैसे निश्चित कर सकती हूँ bबेटा ही हो ..तुमने विज्ञान नहीं पढ़ा क्या?”
चटाक!चटाक!! दो थप्पड़ ऐसे पड़े कि मैं ज़मीन पर जा पड़ी,…शादी के बाद ये पहला मौका था जब अखिलेश का यह क्रूर, अमानवीय रूप मेरे सामने आया था फिर भी ये मेरी समझ के बाहर था कि एक पढ़ा-लिखा ‘नार्मल’ इंसान ऐसा कैसे सोच सकता है, ऐसा कैसे कर सकता है? एक रात में ही एक इंसान अमानुष कैसे हो सकता है?, क्या है जो ये सिर्फ़ लड़का ही चाहता है?,. लड़की में क्या दोष है?,. क्यूँ मेरी इतनी तारीफ़ करने वाला मेरी ही जैसी लड़की के ख़याल से ही दानवता की सीमा पार कर रहा है?

मैं बात करने के मूड में नहीं थी पर इन प्रश्नों ने चुप रहने नहीं दिया हालाँकि डर भी लगने लगा था अब तक कि कहीं कोई बड़ी चोट लगे और भीतर गर्भ में नवजात की सांस की लय ही न टूट जाए,.. पर ये भी सोचा ऐसे इंसान के तो बेटी होनी भी नहीं चाहिये, और बेटी क्या ऐसा दानव तो बेटा भी ‘डीज़र्व’ नहीं करता, पिता होने के लिए संवेदनशीलता तो हो,. पर ख़ुद को संभाल कर फिर पूछा, “ऐसी क्या चिढ़ है बेटी से?”
किन्तु अखिलेश पर क्या सनक सवार थी, मालूम नहीं, उसने मुझे उठाया और दीवार से दे मारा, माथे पे लगी चोट से रिसता खून जब आँखों पे आया तो मैं उठ कर कमरे से बाहर जाने लगी कि ‘माँ-पिताजी’ से बात करूँ,… पीछे से अखिलेश चिल्लाए,.”बाहर भी कोई नहीं सुनेगा तुम्हारी!!!!!!!!!!, उनका भी वही निर्णय है जो मैंने कहा है,और ये भी कहा है माँ ने कि अगर नित्या नहीं मानेगी तो फिर कुछ सोचना पड़ेगा”- यह कहते हुए अखिलेश की आँखों में खून देख रही थी मैं,..धम्मम!!!!!! से बैठ गयी वहीँ,…….. आँखों के आगे केवल शून्य और अनेक प्रश्न चिन्ह,……!!!!!!!

पर इतना तो तय है कि अब इस अजायबघर से पलायन ज़रूरी है एक नयी ज़िंदगी के पनपने और फिर जन्म लेने के लिए,.. और अब इतना भी मुश्किल नहीं सब कुछ एक पढ़ी-लिखी माँ के लिए…

पूनम माटिया 

डॉ. पूनम माटिया

डॉ. पूनम माटिया दिलशाद गार्डन , दिल्ली https://www.facebook.com/poonam.matia poonam.matia@gmail.com

One thought on “कहानी : नयी सुबह

  • नीतू सिंह

    सभ्य समाज को आएना दिखाती कहानी।

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