कविता

तन्हा मन

कितना कोलाहल कितना शोर था यहां
फिर भी कितना तन्हां अकेला था मन

तन्हाई से घबराकर जा पहुंचा दूर गगन में
अविरल उड़ते पंछियों के बीच
उन्हें देख कर अचरज से पूछा
किससे सीखे तुम ये अनुशासन

कितनी लंबी थीं कतारें तरूवर की
बोलीं आओ झूमें संग पवन के
झूमती लताओं को देख अचरज से पूछा
किसने जगाई तुममें ये उमंग

एक ही स्वर में गाती बया वो
जा बैठी डाल पर लटकी कलाकृति में
कला की बारीकी देख अचरज से पूछा
किससे सीखीं ये कला तुम

वो गिर पीछे जा पहुंचा आदित्य
जैसे खेल रहा हो आंख मिचौली
उसकी लालिमा देख अचरज से पूछा
कहां से लाए ये लावण्य तुम

फिर आंचल खोला निषा ने जब
जगमगा उठे मोती अनगिनत
जगमग से विभोर हो अचरज से पूछा
किसने सजाया ये तुम्हारा आंचल

सबने हिलमिल कर एक ही स्वर में कहा
किसे ढ़ूंढ़ते हो ऐ मन तुम यहां वहां
वो तो सदा है पास तुम्हारे
नहीं तुम तन्हां नहीं तुम तन्हां

लीना खत्री 

लीना खत्री

लीना खत्री , c/of- चंद्रप्रकाश खत्री , 91- प्रगति नगर कोटड़ा, पुष्कर रोड अजमेर , राजस्थान-305001 , फोन- 7073891795 , मेल-leenakhatri80@gmail.com

One thought on “तन्हा मन

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    सुंदर लेखन

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