गीतिका/ग़ज़ल

गीतिका

बहती नदिया और रवानी गहरी ये मझधार बहुत है
क्यों घबराता है रे नाविक सम्बल की पतवार बहुत है ।

लोभ मोह से ऊपर बैठा ऊपर से शिष्टाचार बहुत है
प्रेम प्रेम आ झुट्ठल खेलें इसमें तो व्यापार बहुत है ।

झुट्ठल बाजे सच्चल होये मन मंजीरा करतार बहुत है
क्या समझे किस विधि समझे देखो ये संसार बहुत है ।

एक आस की डोर पे चलती जीवन गति ,रार बहुत है
खुशबू बन बिखरो तुम फिर भी ,माना की तकरार बहुत है ।

— अंशु (मन की बात )