कहानी

“एक परिदृश्य”

 

अजीब अजीब दृश्य देखने को मिल जाते हैं झरनों, पहाड़ों, झील व कंदराओं में, हैरत की बात नहीं है अजायबी से भरी है प्रकृती की गोंद। शायद इसी लिए लोग बाग घूमने के लिए, मन बहलाव के लिए, यदा कदा ऐसी जगहों पर छुट्टी बिताने के बहाने मनोरंजन की शैर पर निकल जाते हैं। जहाँ से न जाने क्या क्या देख सुनकर, कुछ कैमरे की आँखों में, कुछ मन की आँखों में तो कुछ स्मृतियों की थैली में भर कर उठा लाते हैं। महीनों तक आराम से बातें होती है अनूठे सफ़र की। खुदा न खास्ता जो कभी घर से न निकला हो वह कहानी सुनकर खयाली शैर कर लेता है और जो कभी कभार पहाड़, पहाड़ी देख लिया हो, वह फूलकर कुप्पा हो जाता है और अपनी पीठ फिर से थप्पथपा कर पुराना पर्वतारोही बन जाता है। खैर, वक्त वक्त की बात है घूमना फिरना तो होना ही चाहिए। बहुत कुछ देखने सुनने को मिल जाता है और मन बहल जाता है तो कभी कभी कुछ ऐसा भी दिख जाता है कि मन मलिन हो जाता है।
कुछ ऐसा ही आज का दृश्य रहा मेरे सफ़र का, कड़कती धूप में कार्यालय के काम से पूरी मंडली फिल्ड को निकली। अनुसंधान के लिए डेटा एकत्र करना उद्देश्य था। सरकारी गाड़ी सड़क पर और हम सब उसमे सवार थे। गंतव्य स्थान पर सभी जब गाड़ी से उतरे तो गरम हवा ने सबको तपा दिया। आगे बढे पांच मंजिला ईमारत मिली जिसमें लिफ्ट का अता पता नहीं था। घुमावदार सीढ़ियों पर सब के सब चकराने लगे और हांफते डाफते पांचवी मंजिल का दर्शन हुआ। दरवान ने सरकारी फाइल देखकर मैनेजर को फोन घुमा दिया। खड़े खड़े हम लोग लहरा रहे थे कि चार पञ्च मैनेजर हम अजाइबियों से मुखातिब हुए। आधा घंटा दुआ सलाम परिचय पहचान में निकल गया और दरवान को दरवाजा खोलने का अधिकार मिल गया। हम अंदर हुए और ठंढी हवा में जन्नत का दीदार करने लगे। कुछ हिम्मत लौटी और चाय पानी का दौर चला फिर काम से रूबरू हुए। भगवान का शुक्र रहा कि डेटा कलेक्सन का काम अवरोध के बिना पार पड़ गया जिससे हम सभी खुशखुशाल हो गए। हरारत छु मंतर हो गई और हम पुनः अपने कार्यालय के प्रांगण में पंहुचकर पुराने हो गए। अपना अपना टिफिन लेकर सब लोग रात बिताने अपने घर को निकले और दिन का काम पूरा हो गया पर मेरे मन में वह पांच तल्ले की सीढियाँ नाचती रहीं जिसके हर मोड़ पर देवी देवताओं की तस्वीर सलीके से लगाई तो गई थी पर पान रशियाओं की पिचकारी से खूब पूजा अर्चना भी किया गया था। हर तल्ले के लिए दो मोड़ थे जिसमें लगभग पचासों देव प्रतिमा वाली टाइल्स सुसज्जित देवी देवताओं का परिचय करवा रही थी। कुछ भगवत श्रद्धालु अगरवत्ती भी जला दिए थे तो कुछेक जगह पुराने पुष्प भी बिखरे पड़े थे। गन्दगी का आलम ऐसा दिखा कि सीढ़ी तो सफा थी पर कोनों पर थूकने वालों ने ऐसा दृश्य बनाया था कि भगवान भी घृणा से घिन्ना गए थे। वहां से भागना भी चाह रहें हो तो भागे भी कैसे फौलादी सीमेंट ने उनको कैद कर के रख दिया था।
यह तो निर्धारित है कि वहां तस्वीर पूजा के लिए नहीं अपितु थूकने वालों के लिए लगाई गई थी कि देवी देवताओं को देखकर कोई थुकेगा नहीं और भगवान भरोषे सफाई रहेगी। पर वाह रे इंसान तूँ भी अजीब थुकवैया है राह चलते हुए थूकता है, सिनेमा देखते हुए थूकता है, स्टेशन के हर जगह कोने कोने पर थूकता है, बस और चलती ट्रेन में से थूकता है तो अपनी मँहगी गाडी का कांच खोलकर सड़क पर चलते हुए अपनी ही जात पर थूकता है। इससे भी मन न भरा तो भगवान की तस्वीर पर भी थूक कर हल्का हो जाता है और सरकार सफाई का बीड़ा उठाए हुए चिल्लम चिल्ला मचा रही है। सफाई अभियान में करोड़ों रुपये स्वाहा कर रही है। वाह रे मित्रों वाह, खूब थूको, आखिर आप नहीं थूकोगे तो पूरा विश्व आप पर कैसे थुकेगा। जम कर थूको और थूकवावो, फिर चाहे भगवान् ही क्यों न सामने हो, इन्सान को कोई कहाँ गिनता है। वैसे भी शरीर और विचारों में ज्यादेतर गन्दगी ही तो भरी है उस गन्दगी को बाहर निकालना भी तो सफाई अभियान का हिस्सा ही है। नेक काम है शौक से करों पर बड़ें बड़े मंदिरों में उसी मूर्ति पर करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाकर, अपने ही पैसे पर तो कम से कम मत थूको। अस्पताल में थूक आते हो, बीमार पर थूक कर बीमार तो मत बनो। थूक में भी ताकत होती है अपनी ताकत को कैसे थूक देते हो। रहम करो अल्ला, ईश्वर और भगवान के भक्तों अथवा बंद करों धर्म का ढोंग, फिर चाहे तो जीवन भर थूकते रहो, पर अपनी ही बनाई दीवार पर मत थूको…….अपने ही संस्कार पर मत थूको…..अपने ही ईमान पर मत थूको……अपनी ही तस्वीर पर मत थूको…….और अपने ही भगवान पर मत थूको……..
अब भी अगर थूकना चाहते हो तो, इतना जरूर करो भाई मेरे, कोई तुम्हारे ऊपर कभी थूक दे तो उसपर नाराज मत हो, उसे गाली मत दो, जाकर उसके गले मिलो और शाबासी दो, उसका हौसला बढ़ाओ, उस नेक वंदे को शर माथे पर बिठाओ……अगर कोई रोकता है तो उसके विरोध में जलूस निकालो, अनसन करो, भीड़ को इकठ्ठा करो, लघुमती में तो हो ही आरक्षण की मांग करो, अपनी अलग बिरादरी बनाओ और वोट बैंक बनकर, शियासत का हिस्सा बन जाओ, फिर देखों हर जगह बिना रोक टॉक थूकने का अधिकार मिल जायेगा, यदि नहीं भी मिला तो कोई बात नहीं, कमजोर न पड़ों, इस ज्यादती पर बहुत से लोग तुम्हारे साथ सुर में सुर मिलाकर चिल्लाने का भी ठेका लेते है वह भी बिना पैसे का, इसके बदले में केवल वोट देने का आश्वासन भर देना होगा, वोट तो तुम अपनी ही विरादरी को देना, एकाध सीट तो निकल ही जायेगी, फिर राज करो और थूकते रहो…..मेरे प्रिय थूकनबाज भाई, कुछ समय बाद एक पार्टी बना लेना और हल्ला गुल्ला करते हुए जहाँ मर्जी हो वहां थूकते रहना…..

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ

2 thoughts on ““एक परिदृश्य”

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब !

    • महातम मिश्र

      सादर धन्यवाद आदरणीय विजय जी

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