संस्मरण

मेरी कहानी 147

मैह्दीआने से वापस आ कर कई दिन तक वोह सीन मेरे दिमाग में घुमते रहे। कितनी कुर्बानियां सिखों ने दी, जंगलों में छिप कर मुगलों से गोरिला जंग करते और उन से स्त्रियां और बच्चों को छुड़ा लेते और उन को उन के घरों तक पहुंचाते। जो भी हमलावर आते थे, लूटमार तो करते ही थे,लेकिन साथ ही हज़ारों की तादाद में स्त्रिओं को पकड़ कर ले जाते थे और उन को गज़नी के बाज़ारों में बेचा जाता था । हमारी हालत इतनी तरसयोग हो गई थी कि गज़नी के लोग बोली देने से कतराने लगे थे क्योंकि इतने गुलामों को खाना कहां से देना था और बचपन से सुनते आ रहे थे कि हमारे लोगों को टके टके पर बेचा जाता था क्योंकि ग्राहक इतने नहीं थे । इस्लामी देशों में गुलामों का  वयापार तो आम बात थी। जो कोई आता, लूट कर सब कुछ ले जाता, घर खाली हो गए थे और अहमद शाह अब्दाली के ज़माने में तो सिख आम कहा करते थे,” खाधा पीता लाहे दा, बाकी अहमद शाहे दा “, ऐसे समय में जो सिंहों ने कारनामे किए उन को स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाना चाहिए था लेकिन अफसोस कि सिखों को एक दफा फिर 1984 में मारा गया और वह भी उन लोगों की तरफ से जिन्हों के जंझू बचाने की खातर गुरु तेग बहादर जी ने दिली के चांदनी चौक में कुर्बानी दी थी । इस को सिआसत कहें या कुछ और लेकिन बात तो वोही है कि” हमे तो अपनों ने मारा, किसी को किया दोष देना “, कई दिन तक मेरे दिमाग में यह बातें घूमती रहीं।

मैं सोचता था कि कैसे सिखों ने इतना बड़ा खालसा राज कायम कर लिया था, जिन की हदें कश्मीर और अफगानिस्तान तक चले गई थीं। रणजीत सिंह जी के बहादर जरनैल हरी सिंह नलुए ने तो अफगानिस्तान में इतना खौफ पैदा कर दिया था कि अब तक वहां माताएं अपने बच्चों को डराती हैं कि सो जा नहीं तो ” नलवा रगवा ” यानी नलुआ आ जाएगा। इसी अफगानिस्तान से बाबर जैसे लोग हमे लूटते रहे और पंजाब पर कहर ढाते रहे जिस के बारे में गुरु नानक देव जी ने भी भगवान पे रोष करते हुए लिखा था,” एती मार पइ, कुरलानै, तैं की दर्द नहीं आया “, बाबर का हमला गुरु नानक देव जी के समय ही 1526 में हुआ था जो इब्राहीम लोधी के खिलाफ था और गुरु नानक देव जी को भी पकड़ कर जेल में डाल दिया गया था और उन को चक्की से आटा पीसना पड़ा था। सोचता था कि अगर कोई मुगलों से लोहा ना लेता तो आज  पंजाब इस्लामी देश होता। महाराजा रणजीत सिंह ने तो जमरौध के किले पर भी कब्ज़ा कर लिया और दरा खैबर तक जा पहुंचा था। अगर अँगरेज़ भारत में ना आये होते, शायद अफगानिस्तान में सिखों का राज होता क्योंकि लाहौर तो महाराजा रणजीत सिंह की राजधानी ही थी। आज तक राजपूत और मरहटे जैसी कौमें मुगलों से लड़ कर भारत को बचाती रही थी लेकिन सिख देश में पहले लोग थे, जिन्होंने दुश्मन के घर घुस कर उन को पीटा था। पंजाब इतना बड़ा हो गया था कि कश्मीर भी पंजाब का हिस्सा बन गया था, जिस का आख़री महाराजा हरी सिंह था। देश विभाजन के वक्त महाराजा हरी सिंह अगर भारत से मिल जाने का संकल्प ले लेता तो आज कश्मीर का झगड़ा कभी ना होता। यह तो मसले का एक और पहलू है लेकिन बात तो सिखों की कुर्बानियों की है और उन्होंने इतने कम समय में पंजाब का इतहास ही बदल दिया। 1699 में गुरु गोबिंद जी ने खालसा पंथ की नींव रखी और सिर्फ सौ साल बाद इस का नतीजा,  खालसा राज कायम हो गया, यह बातें कई दिन तक मेरे दिमाग में आती रहीं।

           इंग्लैंड में कुलवंत की एक सखी है जो चर्मकार परिवार से है लेकिन यह पड़ा लिखा परिवार है। हम उन के शादी समारोहों पर जाते हैं और वैसे भी उन का घर नज़दीक होने के कारण हम एक दूसरे के घर जाते ही रहते हैं। कुलवंत की सखी का नाम नछत्र कौर है। उस के पति गुड ईयर फर्म में अच्छी नौकरी पर थे लेकिन उस का शरीर अच्छा होते हुए भी उस को अधरंग हो गया था। नछत्र ने बहुत वर्ष अपने पति की बहुत सेवा की थी, छोटे छोटे बच्चों की खुद ही  परवरिश की और उन की शादियां की। पति देव को स्वर्गवास हुए अब पांच छै साल हो गए हैं लेकिन अब नछत्र काम करती है, लेडीज़ के कपड़े इंडिआ से इम्पोर्ट करके बेचती है, जिस से उस की अच्छी आमदनी हो जाती है। उस की बेटी के तीन बेटे हैं और दो बेटे हमारे पोतों के साथ स्कूल जाते हैं। नछत्र का बेटा गुलशन मेरी बहुत मदद करता है और जब  जरूरत हो, मैं उस को ईमेल भेज देता हूं और वह उसी वक्त हाज़र हो जाता है। वैसे तो मेरा बेटा मेरा बहुत खियाल रखता है लेकिन कभी बेटे के पास वक्त ना हो तो मैं  गुलशन को बुला लेता हूं। नछत्र का एक भाई ग्लास्गो में रहता है और दूसरा इंडिआ में डाक्टर है। नछत्र की मां हर साल इंडिआ से इंग्लैंड आ जाती है, छै महीने रह के वापस चली जाती है। नछत्र की मां भी मेरा बहुत करती है। नछत्र का इंडिआ में गांव परागपुर है जो कुलवंत के गांव से दो मील दूर ही है और जीटी रोड के उस पार है। अब हम ने नछत्र की मां और उस के सारे परिवार को मिलने का प्रोग्राम बनाया। हम ने नछत्र की मां जिस का नाम किशनी है को टेलीफोन कर दिया कि हम उस को मिलने आ रहे थे, सुन कर वह बहुत खुश हुई। एक दिन मैं और कुलवंत ने घर से टैम्पू लिया और फगवाड़े पहुंच कर परागपुर के लिए बस ले ली। आधे घंटे में ही हम परागपुर बस स्टॉप पर उतर गए, आगे हम ने पैदल ही जाना था, जिस के लिए हम को आधा घंटा चलना पड़ा।
चलते चलते हम दोनों तरफ के मकानों को देख रहे थे, जिन में कुछ कोठीआं थीं और कुछ छोटे मकान थे लेकिन सभी मकान बहुत अच्छे थे। इस बस्ती में चर्मकार लोग ही ज़्यादा हैं लेकिन इस बस्ती ने हमे बहुत प्रभावित किया क्योंकि जमाने के साथ साथ इन लोगों ने बहुत उनती कर ली थी, कोई कम पड़ा लिखा, कोई ज़्यादा लेकिन पड़े लिखे सब थे। कभी इन लोगों के घर कच्चे होते थे लेकिन आज तो यह  मकान इतहास बन कर रह गए हैं। किशनी का घर पूछते पूछते हम घर के दरवाज़े पर पहुंच गए और बैल की। दरवाज़ा नछत्र की मां ने ही खोला और कुलवंत को गले लगा लिया, फिर हंस कर मुझे बोला,” गुरमेल ! तू किद्दां ! ठीक हैं ?” ,मैंने भी हंस कर जवाब दिया,” मैं ठीक हूं, आप किस तरह हो ?”, हम आंगन में दाखल हो गए थे जो काफी बड़ा था। सिटिंग रूम जिस को बैठक कहते थे, में आ कर हम बैठ गए। बैठक बहुत सजी हुई थी और फर्नीचर बहुत सुंदर था और सफाई देख कर तो हमे अपना गांव का घर इस से घटया लगा। दीवारों पर फोटो लगी हुई थीं जिन में नछत्र और उन के पति की फोटो भी थी। बातें कर ही रहे थे कि किशनी की बहू आ गई जो सभय और समार्ट ड्रैस पहने हुए थी, वह किसी ऑफिस में अच्छी नौकरी पर लगी हुई थी। आते ही बहुत खुश हो कर हम को मिली और किचन में चाय बनाने चली गई। कुछ देर बाद नछत्र की छोटी बहन रेणु भी आ गई,  अब हम घर की बातें करने लगे और जब तक किशनी की बहु और रेणु ने चाय बना ली और कुछ ही देर में चाय के साथ बहुत कुछ मेज़ पर रख दिया। मज़े से चाय का आनंद लिया।
कुलवंत ने किशनी को साथ ले कर शॉपिंग करनी थी और कुछ लेडीज़ सूट सिलवाने भी थे । जालंधर छावनी बहुत दूर नहीं और किशनी को सब दुकानदार जानते ही थे क्योंकि इन दुकानदारों से ही नछत्र कपड़े मंगवाती थी जो वह इंग्लैंड में लोगों को बेचती थी। घर से बाहर निकल कर हम ने एक थ्री वीलर ले लिया, रेनू भी साथ ही थी, पहले हम छावनी की एक बड़ी कपड़े की दुकान में चले गए और कुलवंत ने साड़ियां और कुछ अन्य कपड़े दिखाने को कहा। शादी के बाद आज पहली दफा कुलवंत के साथ किसी कपड़े की दुकान में गया था। यह 1995 था और जो बात मुझे हैरान कर देने वाली थी कि जब दुकानदार किसी साड़ी की कीमत बीस हज़ार रुपए बताता तो मैं कीमत सुन कर ही हैरान हो जाता और इस से बड़ी हैरानी मुझे तब होती जब किशनी कहती कि वह तो दस हज़ार देगी और सौदा चौदा पन्द्रां हज़ार पर हो जाता। मुझे याद नहीं कितने कपड़े वहां से खरीदे लेकिन यह याद है कि जब भी दुकानदार कोई नई साड़ी दिखाता तो एक लड़का जो दुकान पर ही काम करता था वह साड़ी को अपने शरीर पर लपेट का दिखाता, जिस के अर्थ यह थे कि पहनी हुई साड़ी कैसे लगेगी। औरतों में मेरा किया काम था, मैं तो यूं ही बोर हुआ साथ बैठा था। एक के बाद एक साड़ी वह लड़का पहन कर दिखा रहा था, तो मेरे मुंह से निकल गया ,” यार तू तो इस साड़ी में दुल्हन ही लगता है “, दुकान में सभी लोग हंस पड़े।
इस के बाद दो तीन दुकानों में गए और आखर में एक बिल्डिंग की दूसरी मंज़िल पर पहुंच गए। इस बिल्डिंग में औरतों के कपड़े सीए जाते थे। चालीस पैंतालीस साल की एक महला थी जो इस छोटी सी फैक्ट्री की मालक थी और वहां कोई दस बारह युवा लड़कियां मशीन पर बैठीं कपड़े सी रही थीं। कुलवंत जो कपड़े इंग्लैंड से लाई थी, उस को दिए और बहुत देर तक उस से गुफ्तगू करती रही और कपड़े दे कर हम बाहर आ गए। अब रेणु मुझे कहने लगी,” भा जी, अब हम विम्पी में खाना खाएंगे “, तो मैंने कहा,” भाई भूख तो मुझे भी लगी हुई है ” और हम विम्पी  में चले गए, वहां पीजे के साथ चिप्स खाये जिन को इंडिया में शायद क्रिस्प कहते हैं, मज़े से खाया और कोक पी कर संतुष्ट हो गए। रेणु उस वक्त बीएससी में पढ़ रही थी। रेनू के साथ यह मुलाक़ात भी एक यादगार ही रहेगी। हम दोनों ने इतनी बातें कीं कि रेनू अभी तक इन बातों को भूली नहीं, यह बातें हर टॉपिक पर थीं, जिन में इतहास अर्थशास्तर और सिआसत थी।
रेनू अब अपने पति  के साथ अमरीका में रहती है, उस का पति एक सीनियर पोस्ट पर लगा हुआ है और जब भी नशतर या उस की माँ को रेनू का टेलीफोन आता है तो मेरा पूछती है और नशतर की माँ जब भी मुझे मिलने हमारे घर आती है तो कहती है,” गुरमेल ! रेनू तुझे बहुत याद करती है “,विम्पी से बाहर आ कर हम ने अब बस पकड़ ली और बस में भी हम ने इतनी बातें की कि घर तक हमारी बातें खत्म नहीं हुईं। घर आए तो किशनी के पोता पोती भी स्कूल से आ गए थे। पोती के काटे हुए बाल उस को सुंदर बना रहे थे, यह बच्चे किसी इंग्लिश स्कूल में पड़ते थे और बहुत समार्ट दीख रहे थे। बातें करने लगे और कुछ देर बाद नशतर का छोटा भाई भी आ गया जो किसी गांव में सरकारी डाक्टर लगा हुआ था। इस लड़के ने मेरी बहुत मदद की, मेरे बहुत से काम थे और वह मुझे मोटर बाइक पर बिठा के हर जगह ले जाता था। नछत्र को रूपयों की जरुरत होती थी तो वह हमें टेलीफोन कर देती थी और हम नछत्र के भाई को टेलीफोन कर देते कि वह आये और पैसे ले जाए। वह हमारे घर आता और पैसे ले जाता।
कुछ देर बातें करने के बाद हम जाने के लिए तैयार हो गए क्योंकि शाम होने को थी। नछत्र की माँ और बहन रेनू बस स्टॉप पर हमारे साथ आईं, जीटी पर हर मिंट बाद बस आती थी और एक बस दूर से आती देख हम ने दोनों को बाई बाई कह दिया। बस जब आई तो काफी भरी हुई थी, लोग खड़े थे लेकिन हम चढ़ गए और खड़े हो गए। इतनी भीड़ में बस पर चढ़ना हमारे लिए अब सधाहरन बात हो गई थी। पहले पहले हम झिझकते रहते थे और बस में इतनी भीड़ देख कर चढ़ते नहीं थे लेकिन जब देखा कि ऐसे तो हम कभी बस पे चढ़ ही नहीं पाएंगे, तो मन सख्त करके हम ने शुरू कर दिया। बस जीटी रोड पर चलने लगी। यहां लोग सड़क पर खड़े होते बस ड्राइवर बस को खड़ी कर देता और कुछ और लोग चढ़ जाते। कभी कभी तो ऐसा लगता जैसे बस ब्लैक होल ऑफ कैलकटा हो। आधे घंटे में हम फगवाड़े पहुँच गए। अँधेरा हो चुक्का था और गाँव के लिए कोई ट्रांसपोर्ट मिल नहीं रही थी। कुछ देर बाद पता चला कि अब आख़री टैम्पू जाने वाला था। देखते ही देखते यह टैम्पू भर गया, कुलवंत टैम्पू के भीतर बैठ गई लेकिन मुझे सीट मिली ड्राइवर के साथ, यहां पहले ही एक आदमी बैठा हुआ था।
इतनी मुश्किल से मैं बैठा था कि यह भी मुझे कभी भूलेगा नहीं। टैम्पू  इस तरह भरा हुआ था जैसे देश विभाजन के वक्त लोग ट्रेन के ऊपर बैठे थे और इस पे बुरी बात यह थी कि टैम्पू की कोई लाइट काम नहीं कर रही थी। जब टैम्पू चला तो जीटी रोड और होशिआर पुर रोड तक तो सड़क के दोनों ओर तो बिजली के खम्भों से रौशनी आ रही थी लेकिन यूं ही पलाही रोड पर टैम्पू जाने लगा तो सड़क पर बिलकुल अन्धेरा था। मैं भी तो डराइवर के साथ ही बैठा था, जब मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था तो उसे कैसे दिखाई दे रहा होगा। आगे से जब भी कोई ट्रक्क आता, उस की रौशनी हमारे मुंह पर पढ़ कर हमें अंधे कर देती और मेरा शरीर कांपने लगता कि भगवान् करे हम घर पहुँच जाएँ। ड्राइवर तो इस सड़क पर हर रोज़ पता नहीं कितनी दफा आता जाता होगा और उस को सड़क के हर हिस्से का पता होगा लेकिन सच बताऊँ मुझे बहुत डर लग रहा था। हमें कुछ भी पता नहीं लग रहा था कि हम कहाँ पर थे, ऐसा सफर हम ने ज़िंदगी में कभी नहीं किया था। राणी पर बस स्टैंड पर जब टैम्पू खड़ा हुआ तो हमें पता चला कि पहुँच गए थे। घर आये तो परमजीत और निर्मल भी हमारा इंतज़ार कर रहे थे। वे पूछने लगे कि हम को  बता देना चाहिए था और वह हमें ले आते। मैंने कहा,” यार चाय बनाओ, फिर इस सफर का वर्णन करूँगा “.
फिर हम चाय पीते पीते बातें करने लगे। मैंने कहा,” इसी लिए तो बसों पर लिखा हुआ होता है सत गुर तेरी ओट, यानि अपनी ओर से हम कोई कसर नहीं छोड़ते मौत के मुंह में जाने की, बस भगवान् ही हमें बचाता है “, इस पर सभी हंसने लगे। देर रात तक हम बातें करने लगे। एक दफा मुंबई में ब्रेक फेल होते बच गए थे और आज इस टैम्पू में शहीदी देने से बच गए थे। बातें करते करते हम सो गए। एक दो दिन हम ने आराम किया, सर्जरी में बैठे गप्प शप करते रहे, सर्जरी में कुछ लोग ऐसे भी आ जाते थे जिन को मैं जानता था। अजीब अजीब बाते सुनी जो मैं किसी कारणवश लिख नहीं सकता, बस यह ही कहूंगा कि लड़के लड़की के सम्बन्धों के कारण लड़कों को वह सजा दी गई थी जो घिरनत कहने के सिवाए मेरे पास उचित शब्द नहीं हैं। ज़माना कितना आगे निकल गया था और यह लोग वहीँ खड़े थे। कहने को यह लोग बहुत धर्मी थे, रोज़ गुर्दुआरे के लाऊड स्पीकर से यह लोग उठ जाते और पाठ सुनते लेकिन इन के काम इतने बुरे होते कि सारे गाँव में इन की बेइज़ती होती।
 दिन बीत रहे थे और सभी काम खत्म हो रहे थे। एक दिन हम तलहन चले गए थे और सारा दिन वहां गुज़ार दिया। जब भी मैं तलहन जाता हूँ, मैं उन पुराने दिनों की तस्वीर मन में लाने की कोशिश करता हूँ। आज भी मैं उस जगह को मन में लाने की कोशिश कर रहा था जिस पर अब यह बिल्डिंग बनी हुई थी। कभी बृक्ष ही बृक्ष होते थे और इन के नीचे बैठ कर लोग लंगर छका करते थे और आज आलिशान बिल्डिंग बनी हुई थी। यह भी पता चला कि अब इस गुर्दुआरे का प्रबंध करने के लिए गाँव की पंचायत काम कर रही है जिस के कुछ मैम्बर चर्मकार हैं और कुछ दुसरी जातों  के। मिल जुल कर बहुत अच्छा प्रबंध कर रहे हैं। तलहन से आ कर कुछ दिन फगवाड़े शॉपिंग की और फिर वापस इंग्लैंड  आने की तयारी कर ली। एक दिन सुबह चार वजे हम एअरपोर्ट को चल दिए। बातें करते जा रहे कि जालंधर से कुछ आगे जा कर टायर पंचर हो गया। निर्मल ने सपेअर टायर निकाल लिया और पन्द्रां बीस मिंट में टायर चेंज कर लिया और आगे चल पड़े।
अभी भी अँधेरा ही था और पता नहीं हम किस जगह पर थे कि आगे पुलिस का नाका लगा हुआ था। पुलिस वाला आ कर अजीब अजीब सवाल पूछने लगा। मेरा छोटा भतीजा काफी सख्त है और उस ने पुलिस वाले से कुछ ऐसी बातें कीं कि उस का जवाब सुन कर हम सभी हंस पड़े और वह सिपाही झेंप सा गया और कहने लगा,” जाओ जी जाओ “, हम चल पड़े और काफी देर तक इस बात पे हँसते रहे। अब लौ होने लगी थी और जब राजासांसी अमृतसर एअरपोर्ट पर पहुंचे तो गर्मी लग रही थी। गाड़ी से निकले तो देखा जहाज़ पर जाने वाले लोगों की लाइन लगी हुई थी और हम भी इस लाइन में शरीक हो गए। आधे घंटे में ही हम पासपोर्ट दिखा कर एअरपोर्ट की प्रिमिसज में दाखल हो गए। निर्मल को हम ने हाथ दिखा का बाई बाई कह दिया था और कुछ घंटे एअरपोर्ट की फॉमैलिटी के बाद जहाज़ में बैठ कर अपने देश इंग्लैंड की ओर उड़ रहे थे।
चलता. . . . . . . . . . . .

10 thoughts on “मेरी कहानी 147

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। क़िस्त में वर्णित सभी घटनाओं को पढ़ा। आपकी नक्षत्र परिवार से मित्रता प्रशंसनीय है। दो बाते मेरे मन में आ गई हैं। दर्शन शास्त्र का नियम है कि जिसकी शुरुआत होती है उसकी समाप्ति वा अंत भी अवश्य होता है। इसका उदाहरण है कि मनुष्य पैदा होता है और मर जाता है यहाँ तक कि इस नियम में महापुरुषों को भी कोई रियायत नहीं मिलती है। दूसरी बात मन में यह आ रही है चर्मकार वह होता है जो चर्मकार का काम करता है। यदि चर्मकार का बेटा व परिवार कोई अन्य काम करे तो उसे उसी काम व उसकी योग्यता व व्यव्हार से जानना चाहिए। यह ज्ञान हमें वेदो और दयानंदजी से मिला है। ईसाई हमसे समझदार है। उनमे हमारी तरह जन्मना जाति नहीं होती। उनमे हमारी तरह धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वासों के न होने के कारण ही वह इतनी अधिक उन्नति कर सकें हैं। क़िस्त अच्छी लगी। मेरे कंप्यूटर में कुछ दिनों से जयविजय साइट नहीं खुल रही थी। आज खुली है। सादर।

    • मनमोहन भाई , धन्यवाद .पहली बात तो मेरे चर्मकार लिखने की है, यह मैं ने इस लिए लिखा है कि इस जात पात के मामले में हम बिदेश में रहते लोग इस को बहुत पीछे छोड़ गए हैं और भारत में भी अब यह दलितवाद ,चर्मकार , भंगी आदिक बातों को पीछे छोड़ देना चाहिए और इसे इतहास जान कर किताबों में पढना चाहिए कि हमारे बजुर्ग कितने पछडे हुए लोग थे . अब इकीस्वीं सदी जा रही है और हमें देखना चाहिए कि WHEATHER WE ARE NOT MAKING MOCKERY OF OURSELF.
      दुसरी बात यहाँ ऐसा ही है कि कोई भी आदमी या औरत अपने काम से पहचाना जाता है, यानी अगर कोई बस ड्राइवर है तो उसे बस ड्राइवर ही कहेंगे ,अगर वोह ड्राइविंग छोड़ कर कारपेंटर का काम करता है तो उसे कारपेंटर ही कहते हैं, अगर वोह यह काम छोड़ कर घरों से कूड़ा करकट उठाने का काम करता है तो उसे डस्ट मैंन कहते हैं, जब बार में जा कर बीअर पीते हैं तो वहां सब लोग एक टेबल पर होते हैं .मेरा खियाल है जब मनु जी ने यह जातें बनाई थीं तो उन का मकसद भी यही रहा होगा क्योंकि अगर बाप किसान होगा तो उस के बच्चे आसानी से यह काम सीख सकते थे, अगर किसी के बेटे की इच्छा पड़ने की हो तो वोह अधियापक बन सकता था लेकिन धीरे धीरे यह सब इतना रिजिड हो गिया की जातें पक्की ही हो गईं .

      • Man Mohan Kumar Arya

        नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। निवेदन है कि मैंने चर्मकार शब्द पर जो टिप्पणी की थी उसे बुरा मानकर नहीं की थी। इसका तात्पर्य केवल अपनी भावनाओं को व्यक्त करना था। यदि आप इस शब्द का प्रयोग न करते तो यह पता ही न चलता कि आप जांति-पांति के भेद से उपर उठे हुए हैं और समदर्शी है व गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर लोगों को मानते हैं। एक और बात यह कहनी है कि मनु जी महाराज ने जातियों की रचना व विधान नहीं किया हुआ है। यह जातियों का विधान तो मध्यकाल में हमारे पण्डितों ने अपनी अविद्या, अज्ञान व किन्हीं स्वार्थों के कारण किया लगता है। मनु महाराज ने गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था बनाई थी जिसका आधार चार वेद हैं। आपने लिखा है कि सफाई का कााम करने वाले को डस्ट मैंने कहते हैं, इसी प्रकार से गुण व कर्म के आधार पर वर्णव्यवस्था है जिसमें छुआ-छूत, छोटे-बड़े व भेद-भाव का कोई स्थान नहीं है। आज हम देख रहे हैं कि हमारे पण्डितों की बनाई जातिवाद की व्यवस्था काफी हद तक अप्रासंगिक व अप्रचलित हो गई है और समाज गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर चल रहा है। यही कारण रहा कि एक तकनीकि काम करने वाले का पुत्र मैं दो सरकारी विभाग में पहले कलर्क बना, फिर उन्नति करते करते सीनियर तकनीकी अधिकारी बन गया जिसमें हमारा काम विज्ञान व तकनीकि सहित प्रौद्योगिकी की खरीद-फरोख्त करना था। आपके विचारों के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

      • Man Mohan Kumar Arya

        नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। निवेदन है कि मैंने चर्मकार शब्द पर जो टिप्पणी की थी उसे बुरा मानकर नहीं की थी। इसका तात्पर्य केवल अपनी भावनाओं को व्यक्त करना था। यदि आप इस शब्द का प्रयोग न करते तो यह पता ही न चलता कि आप जांति-पांति के भेद से उपर उठे हुए हैं और समदर्शी है व गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर लोगों को मानते हैं। एक और बात यह कहनी है कि मनु जी महाराज ने जातियों की रचना व विधान नहीं किया हुआ है। यह जातियों का विधान तो मध्यकाल में हमारे पण्डितों ने अपनी अविद्या, अज्ञान व किन्हीं स्वार्थों के कारण किया लगता है। मनु महाराज ने गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था बनाई थी जिसका आधार चार वेद हैं। आपने लिखा है कि सफाई का कााम करने वाले को डस्ट मैंने कहते हैं, इसी प्रकार से गुण व कर्म के आधार पर वर्णव्यवस्था है जिसमें छुआ-छूत, छोटे-बड़े व भेद-भाव का कोई स्थान नहीं है। आज हम देख रहे हैं कि हमारे पण्डितों की बनाई जातिवाद की व्यवस्था काफी हद तक अप्रासंगिक व अप्रचलित हो गई है और समाज गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर चल रहा है। यही कारण रहा कि एक तकनीकि काम करने वाले का पुत्र मैं दो सरकारी विभाग में पहले कलर्क बना, फिर उन्नति करते करते सीनियर तकनीकी अधिकारी बन गया जिसमें हमारा काम विज्ञान व तकनीकि सहित प्रौद्योगिकी की खरीद-फरोख्त करना था। आपके विचारों के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, इतिहास की बहुत-सी भूली-बिसरी बातें भावभीनी लगीं. पूरा एपीसोड रोचकता से सराबोर है. एक और अद्भुत एपीसोड के लिए आभार.

    • लीला बहन , आप यह सब पढ़ रही हैं, यह मेरे लिए गर्व की बात है .

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, आपकी यह क़िस्त पढ़कर प्रसन्नता भी हुई और दुःख भी हुआ. आपको बसों और टेम्पुओं में कष्ट झेलना पड़ा. ऐसा कष्ट यहाँ सबको झेलना पड़ता है. भारी विकास के बावजूद अभी तक सभी लोगों को यातायात के साधन सुलभ नहीं हैं. इसका कारण यही है कि लोग बहुत आलसी और मूर्ख हैं. ड्राइविंग सीखकर बैंक से लोन लेकर कोई सरलता से टेम्पू चला सकता है और पेट भरने लायक आराम से कमा सकता है. पर लोग नौकरी और महंगाई को तो रोते रहेंगे, पर काम नहीं करेंगे.

    1984 के दंगों के बारे में आपने जो लिखा है सच है. ये दंगे देश के ऊपर कलंक हैं. उस समय की कांग्रेस सरकार ने यह बहुत बड़ी गलती की थी. लेकिन अब इसको भूल जाना ही ठीक है.

    • विजय भाई , भारत की उन्ती तो बहुत हुई है, इस में कोई दो राये नहीं हैं लेकिन सिस्टम कोई ख़ास चेंज नहीं हुआ . क्योंकि हम यहाँ के आदी हो चुक्के हैं, इस लिए भारत में आ कर एडजस्ट होने में हमें कुछ वक्त लगता है . जो लोगों के आलसीपन की बात लिखी, आप ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली . जब हम आते हैं तो हमें यह बहुत महसूस होता है . आप भी जानते ही हैं और मैंने तो इस से भी ज़ादा देखा है कि उस ज़माने में लोग अपने सर्वाइवल के लिए कितनी मिहनत करते थे . किसानों की बात ही ले लें, तब किसान सारा काम खुद करते थे, कितने कितने पछू घर में रखते थे, जिस से पिओर घर की ऑर्गेनिक खाद बनती थी, कोई सप्रे नहीं होता था और शायेद इसी वजह से कीड़े मकौड़े भी बहुत ही कम होते थे, ज़ादा से ज़िआदा चूल्हे की राख पिआज या सब्जिओं की वेलों पर डाल देते थे . अब गावों में हाल यह है कि आज के बच्चों के घर खाने को हो ना हो, बाप पर बैंक का कर्जा चढ़ा हो लेकिन उन के पास मोटर साइकल,मोबाईल जरुर होगा . बाप के साथ खेतों में मदद नहीं करेंगे लेकिन मोबाइल पर दोस्तों से चैट में शौक फरमाएंगे, बाप को कहेंगे ज़मीन बेच कर मुझे बिदेश भेज दो और यह बिदेश में आ जाएँ तो फिर भारत से भी मुश्किल और गंदे काम करने को तैयार हो जायेंगे क्योंकि बिदेश में मां बाप का कोई सहारा नहीं होता .

    • विजय भाई ,याद आया , १९८४ में कांग्रस ने जो काम किया वोह बहुत ही घिर्न्त काम था .आम लोग तो इसे भूल गए हैं लेकिन जो धार्मिक कट्टरता से सम्बन्ध रखते हैं और जिन के रिश्तेदारों के साथ यह सब हुआ,वोह इसे हमेशा जिंदा रखेंगे और यह काम देश के हित में सही नहीं हुआ .

    • विजय भाई ,याद आया , १९८४ में कांग्रस ने जो काम किया वोह बहुत ही घिर्न्त काम था .आम लोग तो इसे भूल गए हैं लेकिन जो धार्मिक कट्टरता से सम्बन्ध रखते हैं और जिन के रिश्तेदारों के साथ यह सब हुआ,वोह इसे हमेशा जिंदा रखेंगे और यह काम देश के हित में सही नहीं हुआ .

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