संस्मरण

मेरी कहानी 148

सुबह अमृतसर से उड़ान भरी थी और उसी दिन शाम को बर्मिंघम पहुँच गए। बेटा और बहू हमें लेने आये हुए थे । एअरपोर्ट से बाहर आ कर सामान गाड़ी में रखा और घर की ओर चल पड़े। इंडिया के शोर शराबे के बाद अब हर तरफ शान्ति का वातावरण महसूस हो रहा था। सायंस ने कितनी उनती कर ली है, एक ही दिन में दुसरी दुन्याँ में पहुँच गए थे । संदीप कहने लगा,” डैड !शाम को खाने के लिए सोहो रोड से कुछ ले चलते हैं “, मैंने कहा चलो के ऍफ़ सी ले लेते हैं। बर्मिंघम सिटी सेंटर से निकल कर हम हैंडजवर्थ की सोहो रोड पर आ गए।

यहां ट्रैफिक बहुत थी क्योंकि यह सड़क शॉपिंग करने के लिए लोगों का पसंदीदा स्पॉट है। इस एरिये को मिनी पंजाब भी कह देते हैं क्योंकि यहां शायद ही कोई किसी अँगरेज़ की दूकान हो। इस रोड पर एक पंजाबी का गाना भी बना हुआ है,” सोहो रोड उते तैनू लभदा फिरां, नी मैं कन विच मुंद्रां पाके ” ,यहां इंडिया की हर चीज़ उपलभ्द है और सारी सब्जिआं मिलती हैं। खाने के लिए तो एक से बढ़ कर एक मठाई और अन्य नमकीन चीज़ें हैं और लोग यहां बैठ कर खाने के लिए आते हैं। इन हलवाई की दुकानों को देख कर संदीप बोल पड़ा,” डैड ! के ऍफ़ सी छोड़ कुछ इंडियन फ़ूड ले लेते हैं “, मैंने कहा, “चलो यह खा लेते हैं “, एक जगह गाड़ी पार्क करके हम एक बड़ी सी दूकान में चले गए, दूकान में रश था।

संदीप की आदत है, जब भी कुछ खाने के लिए खरीदेगा हमेशा ज़्यादा खरीदेगा, उस ने छोले भठूरे, कई तरह के पकौड़े ले लिए। जब संदीप काउंटर से ले रहा था तो हम देख कर हंस रहे थे। कुछ देर बाद दो कैरियर बैगों में फ़ूड ले कर संदीप आ गया। अब हम गाड़ी की और चल दिए, यहां गाड़ी पार्क की हुई थी। अब अँधेरा हो चुक्का था और गाड़ी में बैठ कर हम वोल्वरहैंपटन को चल दिए और आधे घंटे में ही पहुँच गए। सामान अंदर रख कर पहले हम ने नहाने का मन बना लिया और संदीप ने कुछ बियर के कैन फ्रीज़र में रख दिए। शावर ले कर थकान उतर गई। पहले हम ने पिंकी रीटा को टेलीफोन करके बताया कि हम पहुँच गए थे।

टेलीफोन पर बातें करते करते काफी वक्त लग गया। बियर के कैन ठंडे हो गए थे और संदीप ग्लासों में बियर डाल कर ले आया। हम बियर पी रहे थे और कुलवंत ने सूट केस खोल कर बहू जसविंदर को सब कुछ दिखाना शुरू कर दिया था जो हम इंडिया से ले कर आये थे। जसविंदर देख देख कर खुश हो रही थी। जसविंदर के लिए जो सूट जालंधर छावनी से सिलवाये थे, जसविंदर को बहुत पसंद आये और ख़ास कर साड़ियां। कुलवंत की आदत है जब भी कुछ खरीदेगी रीटा, पिंकी और जसविंदर तीनों के लिए एक जैसी खरीदेगी। जिऊलरी, मेक आप का सामान और बहुत सी और चीज़ें जो ज़्यादा फगवाड़े और जालंधर से खरीदी गई थीं, कुलवंत ने जसविंदर को दिखाईं ।

यह सब चीज़ें दिखाते दिखाते काफी वक्त हो गया था और जब तक हम ने बियर भी पी ली थी और अब बहु ने खाने का सामान टेबल पर रख दिया और प्लेटें ले आई। जब खाना शुरू किया तो सब कुछ इतना स्वादिष्ट लगा कि मज़ा ही आ गया क्योंकि एक दम इंडिया से खाते खाते हम इंग्लैंड में खा रहे थे। उस वक्त एक बहुत बड़ा फर्क हमें यह लगा कि यहां खाने में जो तेल इस्तेमाल किया जाता है वह बहुत अच्छी कुआलिटी का होता है, इस लिए खाने इंडिया से ज़्यादा स्वादिष्ट लगे जब कि इंडिया में किसी प्रकार के घी या तेल की गरंटी नहीं होती। यहां खाने को ले कर बहुत सख्त क़ानून हैं और जो लेबल लगा होता है, वह सही ही होता है। कुछ देर बाद हम सो गए। सुबह जब उठे तो संदीप और जसविंदर काम पर जा चुक्के थे। अभी कुछ छुटिआं रहती थीं, इस लिए हम ने रीटा पिंकी के सुसराल जाने का प्रोग्राम बना लिया। एक तो मिलना जुलना हो गया, दूसरे जो इंडिया से उन के लिए गिफ्ट लाये थे, वह उन को दे दिए।

याद नहीं, किस तारीख को हम काम पर चले गए और अब सब कुछ समान्य हो गया था, ज़िंदगी पहले की तरह चलने लगी। अब हम अपने आप को कुछ फ्री महसूस कर रहे थे क्योंकि तीनों बच्चों की शादियां हो चुक्की थीं लेकिन ज़िंदगी में रुकावटें तो आती ही रहती है। एक दफा मेरा हरनिआं का ऑपरेशन हुआ था और अब यह फिर दर्द करने लगा था। मेरा काम ही ऐसा था कि शरीर को बस चलाने की वजह से ऊबड़ खाबड़ सड़क पर झटके लगते ही रहते थे। कई साल तो अच्छा रहा लेकिन अब यह फिर से तकलीफ देने लगा था। हर दम दर्द महसूस होता, जब पैदल चलता तो कुछ दूर जा कर चलना मुश्किल हो जाता।

जब दर्द ज़्यादा ही बढ़ गया तो अपने डाक्टर के पास गया। डाक्टर ने बता दिया कि अब फिर ऑपरेशन करना पड़ेगा। डाक्टर ने मुझे यह भी बताया कि हसपताल की वेटिंग लिस्ट बहुत लंबी है और ऑपरेशन को सात आठ महीने लग जाएंगे, इस लिए अगर मैं प्राइवेट सर्जन की अपाएंमेंट ले लूँ तो जल्दी ऑपरेशन हो जाएगा। मैंने डाक्टर को प्राइवेट अपॉएंटमेंट के लिए बोल दिया। दूसरे हफ्ते मुझे डाक्टर का लैटर आ गया और मैं नुफील्ड हसपताल में जा पहुंचा। डाक्टर ने चैक करने में दो मिंट लगाए और बोल दिया कि मुझे लैटर घर आ जाएगा। दो सौ पाउंड उस की फीस दी और दे कर बाहर आ गया। तीन हफ्ते बाद ही मुझे हसपताल में जाना था।

मेरे जैसे वहां और लोग भी बहुत थे और इस दफा मुझे कोई भय नहीं लग रहा था। बहुत से टैस्ट होने के बाद दूसरे दिन मेरा ऑपरेशन हो गया। इस दफा मुझे पेन किलर दिए गए और मुझे कोई दर्द महसूस नहीं हुई। पिछली दफा तो बहुत दिन हसपताल में रहे थे, जब मेरे वैस्ट इंडियन दोस्त रोज़ी का ऑपरेशन भी हुआ था लेकिन इस दफा मुझे दूसरे दिन ही घर भेज दिया। ऑपरेशन के स्टिच्ज भी डिस्पोजेबल थे जो खुदबखुद डिजॉल्व हो गए। तीन महीने आराम किया और फिर वह ही काम शुरू हो गया। इस दौरान मुझे लगातार तनखुआह मिलती रही, जो यूनियन के साथ मैनेजमैंट का एग्रीमैंट था।

इसी दौरान बहादर की बेटी किरण की शादी भी हो गई और उस का बेटा हरदीप, अभी पढ़ रहा था। ज़िंदगी फिर चलने लगी। काम पहले से कहीं ज़्यादा मुश्किल हो गया था लेकिन इस का मुआवज़ा भी लगातार मिल रहा था, इस लिए जी जान से काम कर रहे थे। हंसी ख़ुशी दिन बतीत हो रहे थे कि अब एक और उलझन पैदा हो गई, जिस के बारे में बहुत पहले मैं लिख चुका हूँ, कुलवंत की कमर में अचानक तेज़ दर्द होने लगा, जो उस से सहन नहीं हो रहा था। दरअसल फैक्ट्री में काम करते करते उस ने कपड़ों का एक बंडल उठाया और उसी वक्त चीखें मारने लगी। फैक्ट्री मालक को चाहिए तो यह था कि उसी वक्त एम्बुलैंस के लिए फोन करता लेकिन उस ने हमारे घर टेलीफोन कर दिया।

यह भी अच्छा ही था कि मैं उस वक्त घर पर ही था। उस वक्त मुझे भी कुछ सूझा नहीं लेकिन कई साल बाद मेरे दिमाग में आया कि फैक्ट्री मालक ने हसपताल को इस लिए टेलीफोन नहीं किया था कि यह केस Accident at work का केस हो जाता और उस पर केस भी हो सकता था कि मालक ने भारी बंडल उठाने के लिए इंतज़ाम क्यों नहीं किया था। खैर जो हुआ, सो हुआ। उसी वक्त मैं फैक्ट्री पहुँच गया और कुलवंत को ले कर हसपताल जा पहुंचा। वहां एक्सरे किये गए लेकिन एक्सरे में कुछ नहीं आया और पेन किलर दे कर हमें घर भेज दिया लेकिन कुलवंत से बैठ नहीं होता था। हमारी डाक्टर मिसेज़ रिखी ने फिजीओ थेरपी के लिए वैस्ट पार्क हसपताल की अपॉएंटमेंट दिला दी। हर हफ्ते मैं कुलवंत को ले कर हसपताल जाता। फिजीओ थेरपी होती रही लेकिन आराम नहीं आता था। दस पंद्रह मिंट से ज़्यादा उस से बैठ नहीं होता था और आखर में 1998 में कुलवंत को काम से फार्ग कर दिया गया और हकूमत की तरफ से उसे incapacity benefit मिलने लगा जो तनखुआह से काफी कम था लेकिन फिर भी कुछ ना कुछ तो है ही था। यह पैसे कुलवंत को पैंशन होने तक मिलते रहे और पेंशन के बाद यह पैसे बंद हो गए।

मुसीबतें यहाँ ही ख़तम नहीं हुईं, एक दिन मैं काम पर ही था। बस स्टेशन पर आया तो बस खड़ी करके मैं ने टोयेलेट को जाने का सोचा। यूं ही मैं बस से ज़रा सी छलांग लगा के उतरा तो मेरे दायें घुटने में कुछ कलिक्क की आवाज़ आई और मैं कुछ लंगड़ा के चलने लगा। मेरी चाल अजीब सी हो गई लेकिन कोई ख़ास दर्द नहीं हुआ। सारा दिन मेरी चाल अजीब सी रही। जब काम ख़तम करके घर आया तो घुटना धीरे धीरे सूजने लगा। सुबह उठा तो इतना सूज गिया कि टॉयलेट को जाना मुश्किल हो रहा था और दर्द बहुत हो रही थी। कुलवंत को किसी ने देसी नुस्खा बताया कि गर्म गर्म रोटी को क्लौल्न्जी का तेल लगा कर रोटी को घुटने पर बाँध दें। ऐसा ही किया गिया लेकिन जब सुबह उठा तो सारे घुटने की स्किन लाल हो गई।

अब बेटे ने मुझे गाड़ी में बिठाया और सीधा हस्पताल ले गिया। वहां एक्सरे में जो आया, मुझे बता दिया गिया कि यह आर्थ्राट्स है और अभी इस का कुछ किया नहीं जा सकता, अभी से ऑपरेशन की कोई जरुरत नहीं थी। धीरे धीरे घुटना कुछ कुछ ठीक हो गिया। जब मैं बस चलाता था तो कोई ख़ास तकलीफ नहीं थी लेकिन जब चलता तो पंद्राह बीस मिनट बाद मुझे बैठना पड़ता। इस घुटने पर तीन दफा इंजेक्शन भी लगाए गए लेकिन कोई फायेदा नहीं हुआ, बस ऐसे तैसे करके जिंदगी फिर से चलने लगी। यहाँ मैं यह लिखना नहीं भूलूंगा कि मेरी ऐक्सर्साइज़ की आदत से जितनी कोशिश इस घुटने को ठीक करने की मैंने की, उस का नतीजा यह हुआ कि पिछले दस साल से कभी दर्द नहीं हुई और घुटना बिलकुल ठीक है।

दिसम्बर 2000 के आखिर में कुलवंत की दिली वाली बहन के बेटे की शादी थी और हमें बुलाया गया। मैंने सोचा कि एक तो कुछ हवा पानी बदली हो जाएगा और दूसरे शादी समारोह का लुत्फ़ उठाएंगे क्योंकि इस से पहले इंडिया में एक शादी ही अटैंड की थी जब बहादर के भाई लडे की बीवी के किसी रिश्तेदार की शादी हुई थी। था तो उस समय जनवरी का महीना, जब सर्दी होती है लेकिन दिन को तो धुप निकल ही आती है और यह धुप कुलवंत के लिए भी फायदेमंद रहेगी । और एक इच्छा यह भी थी कि दिली में 26 जनवरी की रौनक देख लेंगे। 25 जनवरी को हम दिली जा पहुंचे। कुलवंत की बहन भी बहुत खुश हो गई। जब हम ने 26 जनवरी का समारोह देखने के लिए अवतार सिंह को बताया तो वह कहने लगा कि इस से अच्छा तो हम टीवी पर देख सकते थे क्योंकि वहां बहुत भीड़ होती है । मैंने भी कोई ज़िद नहीं की और सारा दिन टीवी पर यह यशन देखा।

दूसरे दिन घर में अखंड पाठ रखना था। कुलवंत का बहनोई अवतार सिंह, उस का बेटा बहादर जिस की शादी थी, मैं और दो चार आदमी और, तिलक नगर के गुर्दुआरे में गए। गियानी जी ने अरदास की और मेरे सर पर मंजी साहब, जिस के ऊपर बीड़ थी, रख दी गई और हम नंगे पाँव चलने लगे। बहादर आगे आगे रास्ते में पानी छिड़क रहा था और रास्ते में सत्कार से लोग हाथ जोड़े खड़े थे। घर आये तो गियानी जी ने फिर अरदास की और कुछ देर बाद अखंड पाठ शुरू हो गया, जिस का भोग तीसरे दिन पढ़ना था। यह तीन दिन भी भूलने वाले नहीं हैं क्योंकि घर के भीतर इतनी ठंड थी कि ऊपर कंबल ओढ़ कर भी ठिठुर रहे थे, बार बार चाय पीते। तीसरे दिन समाप्ती हो गई।

30 जनवरी सुबह ही घर में हलवाई आ गए और सड़क पर ही गोगले सीरनी कुक होने लगे। दूसरे दिन 31 जनवरी को वह हलवाई फिर आ गए और सड़क पर ही मीट बनना शुरू हो गया। एक हलवाई जो शायद उन काम करने वालों का मालक होगा, भूलने वाला नहीं है। इस के कपड़े गियानिओं जैसे थे और दाह्ड़ी काफी लम्बी थी। जब मीट बन रहा था, छत पर बहादर के दोस्त जो उस के साथ दिली पुलिस में होंगे, शराब पी रहे थे। बहादर ने मुझे पीने के लिए कहा लेकिन मैंने जवाब दे दिया कि एक दवाई ले रहा था, इस लिए पी नहीं सकूंगा। मैं कैमकोर्डर से विडिओ लेने लगा। छत पर जगह काफी थी और वह सब दोस्त मस्ती कर रहे थे और जोक पे जोक छोड़ रहे थे। वह हलवाई जिस की शकल एक गियानी जैसी थी, बार बार छत पर आता और शराब का ग्लास भर कर पी जाता और मुझे यह बहुत बुरा लगता। मयूजिक सेंटर फुल

आवाज़ पर बज रहा था और यह लोग अब डांस करने लगे। अब वह गियानी भी उन के साथ डांन्स करने लगा लेकिन पता नहीं क्यों, मुझे उस से मन ही मन में नफरत हो रही थी। देर रात तक यह सिलसिला चलता रहा लेकिन यह देख कर मैं हैरान हो गया कि उन लोगों ने इतनी शराब पी कि ज़िंदगी में किसी को इतनी शराब पीते देखा ही नहीं था।

दूसरे दिन 31 जनवरी को बरात ने लड़की वालों के घर को रवाना होना था। सुबह ही बैंड बाजे वाले आ गए और बाजा बजाने लगे। हम सब खूब सज धज के बरात के साथ चलने के लिए तैयार हो गए। औरतें एक दूसरे से बढ़ कर कपडे और गहने पहने हुए थीं। बाजे वालों के पीछे पीछे हम चलने लगे। कुछ कुछ बराती दूल्हे बहादर सिंह के सर पर बीस पचास रूपए के नोट घुमा कर बाजे वालों को दे रहे थे जिस को पंजाबी वारने कहते हैं। उन की तरफ देख कर मैं भी रूपए वारने लगा। एक हाथ में मैंने कुछ नोट पकड़े हुए थे। भीड़ से एक लड़के ने बिजली की फुर्ती से मेरे हाथ से सभी नोट छीन लिए और भाग गया। जब तक मैं कुछ सोचता, लड़का दूर भाग कर किसी गली में छपन हो गया।

मैंने किसी को बताया नहीं क्योंकि इस का कोई फायदा नहीं था और इस ख़ुशी के समय विघन डालना मैंने उचित भी नहीं समझा । अब मैं संभल गया था। बहादर के सुसराल का घर कोई दूर नहीं था लेकिन बरात का समय बढ़ाने की ग़रज़ से बरात को कई गलिओं में घुमाया गया। बहादर के दोस्त पता नहीं कब से शराब पी रहे थे कि वह शराबी हो कर बाजे वालों के आगे हो कर डांस कर रहे थे। दो लड़के डांस करते करते गिर गए और उन के नए सूट मट्टी से खराब हो गए। यह देख कर मुझे बहुत नफरत हुई लेकिन कुछ देर बाद मुझे हंसी भी आई , जब वही लड़के कुछ देर बाद अपने कपड़ों से मट्टी झाड़ कर बरात के साथ फिर आन मिले थे।

रिसेप्शन के लिए बहुत बड़ा एक टैंट सजा हुआ था। टैंट में जाने से पहले बहादर को दुल्हन की सखिओं से मुकाबला करना था जो बरात को रोके हुए थीं। पंद्रह बीस मिंट हंसी मज़ाक के बाद हमें टैंट में घुसने की इजाजत मिल गई। तरह तरह के खाने टेबलों पर सजे हुए थे और सभी बराती अपनी अपनी प्लेट हाथ में पकड़े अपने मन पसंद खाने प्लेट में डाल रहे थे और कोई कहीं और कोई कहीं दोस्तों के साथ खड़ा खा रहा था और खाने का यह ढंग मुझे अच्छा लगा क्योंकि खाते खाते आप किसी भी दोस्त या रिश्तेदार से बात कर सकते थे। खाते खाते प्लेट मैं किसी टेबल पर रख कर सटिल फोटोग्राफी भी कर रहा था। बहादर के दिली पुलिस के कुछ अफसर भी आये हुए थे।

बहादर ने अपने अफसरों का मुझ से तुआरफ कराया,” यह मेरे मासढ जी इंग्लैंड से आये हैं “, वह खुश होकर मुझ से मिले और कुछ बातें मेरे साथ कीं, लेकिन मुझे याद नहीं वह बातें क्या थीं। खाना खाने के कुछ देर बाद इसी टैंट में शादी की रसम हो गई। अब हम ने दुल्हन के घर जाना था। छोटा सा घर का आँगन था और दाज का कुछ सामान आँगन में रखा हुआ था, जिस में कुछ फर्नीचर, फ्रिज, कपडे सीने की मशीन और अन्य चीज़ें थी जो मुझे याद नहीं लेकिन जो बात आखर में मैंने बहादर के पिता जी अवतार सिंह से कही और जो उस ने जवाब दिया, वह मुझे कभी भूलेगा नहीं। लड़की जिस का नाम भी हमारी बहू का नाम जसविंदर ही है, उस के पिता जी इस दुन्याँ में नहीं थे और शादी जसविंदर के मामा जी ने की थी। जब घर से हम चलने लगे तो मैंने अवतार सिंह से कहा,” भा जी बहू के घर वालों ने इतना खर्च किया है, उन का धन्यवाद कर दो “, जवाब जो मिला, वह बहुत से भारतवासिओं की मानसिक सोच है। ” कौन सा ज़्यादा कर दिया है, सभी लड़की वाले करते हैं “, मेरा मन बुझ गया और इस के बाद मैं नहीं बोल सका।

बहू जसविंदर को घर ले आये और उस रात काफी हंसी मज़ाक हुआ। ख़ुशी का अवसर था, नई नई दुल्हन जो घर आई थी। फिर याद रहे या ना रहे, एक बात यहां ही लिख दूँ कि जसविंदर, अवतार सिंह की तीनों बहुओं से सब से ज़्यादा समझदार है और उस का टेलीफोन कभी कभी हम को आ जाता है। जसविंदर के तीन बेटियां और एक बेटा हुआ था। कम्प्लीट और खुश परिवार था लेकिन कुछ साल हुए दिली में डेंगू का बहुत जोर था। जसविंदर के बेटे को भी डेंगू ने बख्शा नहीं। किसी डाक्टर ने ऐसा टीका लगाया कि बेटा डिसेबल हो गया और चार साल पहले भगवान् को पियारा हो गया। अब बेटे की इच्छा तो हर एक दंपति की होती है लेकिन यह भी क्या भरोसा कि आगे बेटा ही पैदा होगा। जसविंदर के जोर देने पर बहादर ने किसी औरत की कोख उधार ली और आईवीएफ ट्रीटमेंट से छै महीने हुए जसविंदर और बहादर को बेटे की दात फिर से नसीब हो गई है और अब बहुत खुश हैं और उन के बेटे के लिए हम ने भी कुछ तोहफे भेज कर इस ख़ुशी में शामल होने का इज़हार कर दिया था।

चलता. . . . . . . . . .

 

4 thoughts on “मेरी कहानी 148

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, पूरा एपीसोड गतिशीलता और रोचकता से सराबोर है. एक और अद्भुत एपीसोड के लिए आभार.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद लीला बहन .

  • मनमोहन कुमार आर्य

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपका आत्मकथ्य पढ़ा। रोचक एवं सुखद घटनाओं से युक्त इस लेख को पढ़कर प्रसन्नता हुई। अगली किश्त का इंतजार है। सादर।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद , मनमोहन भाई .

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