कविता

यह कुर्बानी मंजूर नहीं

# uri attack #

कोयले की मंदम आँच पर,रोटी सेंकती मेरी
निरक्षर माँ,
जब सुनाती थी किस्सा किसी अनदेखे जवान
या किसी बहादुर गोरखा का,
जो उसने सुने थे, अपने दिवंगत सैनिक पति से,

मैं, चाचा की विशालतम गोद में सिर रखे,
देखती धधकती लौ को,
समाहित कर लेती थी,उस सैनिक के ख़ौलते
लहू को,पहने खाकी,नीली और सफेद कड़कदार वर्दी अपने देश की।

सैनिकों का आना जाना गाँव में,किसी ‘साइबेरियन पक्षी’ की तरह,असमय ही
बनाता था,दिवालीमय पूरे वातावरण को,
उनका होते हुए विदा,उम्मीदे दे जाता था कहना “छुट्टी मिलते ही आऊँगा ” ।

विधाता ने भेजा मुझे,नर्सरी टीचर बना उस
आर्मी कैंट में
नित देखती कड़कदार खाकी वर्दी, भारी बूट में
सब कुछ ठीक ही तो था……फिर आया,
विभाजन की त्रास्दी का उपहार. ‘कारगिल युद्ध’
लिए अपनी चीत्कार, उस सैनिक प्रांगड़ में

आज भी काँप उठती हुँ मैं, करके याद उन
मासूमों को,जो होते थे आहल्लदित ,सुन
आधी छुट्टी का आदेश कि घर चलो, कोई
आया हैं….. ,कौन …पापा….नही.. मजबूरन बोला गया अर्धसत्य

इस शहादत को ब्रेकिंग न्यूज़ मानने वालों,
काश,तुमने उन तिरंगे को अपने लहू से
रंगती शहीदों पर लिपटती, उन चूड़ियां
तोड़ती,माँग मिटाती असहाय विधवाओं को
संभाला होता,अपने थरथराते हाँथो से,

उस मासूम का सामना किया होता,जो सरपट
दौड़ा था,लिए उम्मीद खिलौने,कपड़े और गर्म
प्यारभरी मजबूत बाँहों को पाने की,
उस विधवा को देखा होता,जो अनुसरण कर
रही थी, लहू रंजित तिरंगे का,याद करती सप्तपदी पदों को, फेरों का,जो लिए थे
उसने अपने पिया के साथ

आज, फिर वही सब हो रहा है,कुछ नही
बदला,क्या कुछ नही बदलेगा ??????
ये सुर्खियां,ये सहायता राशि, न जाने क्या
क्या……..
क्या लौटाएगी उस साइबेरियन पक्षी को,मासूम
की उम्मीद को,सप्तपदी की याद को ,बूढ़ीआँखों
के तारें को…

रोको इस अनवरत चलते युद्ध को, छोड़ राजनीति ,करो गिनती कम इन अमूल्य धरहोरों
की, सपूतों की,
वरना, इतिहास तुम्हे कभी माफ नही करेगा,ये
कतारबद्ध शव तुम्हे सोने नही देंगे चैन से…

नही चाहूँ मैं सुनाना बारम्बार,अपनी अगली
पीढ़ी को यह गान ….”.ऐ मेरे वतन के लोगों,जरा याद करो कुर्बानी ”
इस तरह की तो कदापि स्वीकार नही है ,न मुझे , न इस पीढ़ी को …….
मंजुला बिष्ट

मंजुला बिष्ट

बीए, बीएड होम मेकर, उदयपुर, राजस्थान