संस्मरण

मेरी कहानी 181

गोआ जाने की तयारी हो गई थी। इंग्लैंड में तो उस समय बहुत सर्दी पढ़ रही थी और कुछ कुछ स्नो पढ़ रही थी। वैसे तो स्नो को कोई पसंद नहीं करता लेकिन अगर किसी वर्ष क्रिसमस से पहले स्नो पढ़ जाए तो लोग खुश होते हैं कि इस साल वाइट क्रिसमस हो गई और अगर क्रिसमस के दिन ही स्नो पढ़ने लग जाये तो ख़ुशी और भी बढ़ जाती है। जसवंत ने गोआ के मौसम के बारे में इंटरनेट पे दरियाफ्त कर लिया था कि वहां तो 25 डिग्री से भी ज़्यादा हो सकती है, इस लिए भारी कपड़ों की कोई जरुरत ही नहीं थी। मैडीकल इंशोरेंस सब की हो गई थी और मानचैस्टर ऐरपोर्ट को जाने के लिए नैशनल एक्सप्रैस कोच की रिटर्न सीटें भी बुक हो गई थीं। जिस दिन हम ने जाना था, सभी हमारे घर आ गए। कोच स्टेशन को हम ने बस में ही जाना था और बस स्टॉप हमारे घर से चालीस पचास गज़ की दूरी पर ही है। अटैचीकेस और बैग उठाये हम बस स्टॉप पर आ गए। चार पांच मिंट में ही बस आ गई। बस में जब चढ़ रहे थे तो ड्राइवर बोला,” भमरा ! इंडिया की तैयारी है ?”, मैने कहा हाँ लेकिन इस की बार गोया जा रहे हैं। वोह हंस कर बोला,” यह बस गोआ ही ले चलें ? “, हम सभी हंस पढ़े। बस दस मिंट में ही बस स्टेशन पर पहुँच गई और उत्तर कर हम कोच के स्टॉप पर खड़े हो गए। कुछ ही मिनटों में नैशनल एक्सप्रेस की कोच आ खड़ी हुई और हम ने कोच के नीचे लगेज कम्पार्टमैंट में अपना सामान रखा और कोच की सीटों पर विराजमान हो गए। टाऊन से बाहर आ कर यूँ ही कोच मोटरवे M54 मोटरवे पर चढ़ी तो हवा से बातें करने लगी। ट्रैफिक ठीक ठाक ही थी और कोच ड्राइवर ने डेढ़ घंटे में हमें मानचैस्टर एअरपोर्ट पर पहुंचा दिया।
चैक इन पर लाइन लगी हुई थी। इस ऐरोप्लेन में भी गोआ जाने वाले सभी गोरे ही थे और उन के साथ कोई बच्चा भी नहीं था। कारण यह ही था कि उस वक्त स्कूलों में छुटियां अभी हुई नहीं थीं। हम छै ही इंडियन इस जहाज़ में थे। पांच पांच मिंट ही चैक इन पर लगे और जल्दी ही सब लौन्झ में आ कर बैठ गए। कैफे से एक एक कप्प कॉफी का लिया, तरसेम सिंह की पत्नी सुरजीत कौर ने एक बिस्किट का पैकट खोला और सभी को ऑफर किया, यह नए बिस्किट हम किसी ने भी पहले खाए नहीं थे और सब को इतने स्वादिष्ट लगे कि सभी पूछने लगे कि यह बिस्किट कहाँ से खरीदे थे। जब उस ने स्टोर का नाम बताया तो सभी बोलने लगे कि यह बिस्किट तो लाने ही पड़ेंगे और मुझे याद है जब हम हौलिडे से वापस आये थे तो कुलवंत ने उस स्टोर में जा कर कई पैकेट बिस्किटों के खरीद लिए थे। ऐसे ही हम बातें करते रहे । ब्रिटिश एयरवेज़ का जहाज़ आ कर रनवे पर खड़ा हो गया था और कुछ ही मिंट बाद गेट से बाहर आ कर हम रनवे पे खड़े ऐरोप्लेन की तरफ चल पढ़े। यूँ ही बाहर निकले, सर्दी से मुंह लाल होने लगे क्योंकि जगह जगह बर्फ के ढेर लगे हुए थे। लौन्झ में तो हीटिंग थी, हमें कुछ मालूम हुआ नहीं लेकिन अब पचास गज़ की दूरी तै करना भी मुश्किल लग रहा था। ऐरोप्लेन में घुसते ही कुछ राहत मिली। ऊपर रैक में अपने अपने बैग हम ने रख दिए और सीटों पर विराजमान हो गए। कुछ अनाऊंसमैंट हुई और एक लड़की जो एअर होस्टेस थी, हाथ में एक मास्क पकडे किसी एमरजेंसी के वक्त सेफ्टी के लिए बताने लगी कि इस मास्क को कैसे खोलना और मुंह पर लगाना था। इंजिन चलने लगा और कुछ ही मिनटों में रनवे पर दौड़ता हुआ जहाज़ ऊपर उठ गया। हमारा डेस्टिनेशन अब गोआ ही था और जहाज़ ने रास्ते में कहीं खड़े नहीं होना था।
जहाज़ उड़ता रहा और हम खाते पीते और बातें करते रहे। कुछ ही घंटों बाद अँधेरा होने लगा और हमारे नीचे कभी कभी जब किसी शहर के ऊपर होते तो नीचे दीप माला दिखाई देती जो बहुत अछि लगती। सारी रात हम उड़ते रहे, नींद आने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। ऑंखें बन्द किये सभी सोने का बहाना बनाये हुए थे। जब सुबह हुई तो धीरे धीरे सभी हाथों में टॉवल टूथ ब्रश पकडे टॉयलेट की ओर जाने लगे। ब्रेकफास्ट की धीमी धीमी खुशबू भी आने लगी थी और एअर होस्टेस खाने की ट्रेओं को हाथों में पकडे तेजी से सब को सर्व करने लगी। इग्लिश ब्रेकफास्ट का भी अपना ही एक मज़ा होता है। बेकन, एग्ग,सौसेज, ब्रैड ऐंड बटर, मामलेड और बीन्ज़ देख देख कर ही भूख चमक उठी थी। मज़े से खाया और अब एरहोस्टैस चाय और कॉफी सर्व करने लगीं। खा पी कर आराम करने लगे और इंडिया पहुँचने का इंतज़ार करने लगे।
याद नहीं, शायद दस बजे का वक्त होगा जब जहाज़ डैबोलिम एअरपोर्ट गोआ पर उत्तर गया और हम जहाज़ से निकल कर कस्टम में आ गए। अब एअरपोर्ट में हमारे इंडियन कर्मचारी हाथों में वाकी टाकी लिए घूम रहे थे क्योंकि उस समय यह बड़े बड़े वाकी टाकी ही होते थे, जिन के एरिअल रेडियो की तरह बाहर ऊपर की ओर निकले हुए थे। जब हम एअरपोर्ट के बाहर निकले तो एक कर्मचारी एक पानी की टूटी पर खाने के बर्तन धो रहा था जो पीतल के बने हुए थे, शायद यह बर्तन कर्मचारियों की कैंटीन के होंगे। बाहर कोचें खड़ी थीं और कुछ वर्दीधारी कर्मचारी हाथों में रेजिस्टर पकडे हम सब को कोच में बिठा रहे थे और कुछ कुली हमारे सामान को कोच के ऊपर रख रहे थे। जैसे जैसे लोगों के होटल बुक थे, उसी हिसाब से यात्रियों को कोचों में बिठाया जा रहा था। सूर्य तेज़ी से चमक रहा था और धुप की गर्मी से कुछ कुछ पसीना भी आने लगा था। सिर्फ बारह घंटे में ही तापमान का कितना अंतर महसूस हो रहा था। कोच चलने लगी। ड्राइवर के इलावा कोच में एक लड़की भी थी जो पानी की छोटी बोतलें सभी को दे रही थी। इंग्लैंड में तो पिआस लगती ही नहीं है, सिर्फ इस लिए ही पीते हैं कि पानी हमारे लिए बहुत जरूरी है। अब पिआस सब को लग रही थी क्योंकि यहां गर्मी थी, इस लिए सभी पी रहे थे, कई तो दुसरी दफा बोतल मांग रहे थे। हम छै इंडियन ही थे और हमें भारत की भूमि पर आने से मन ही मन में ख़ुशी हो रही थी।
गोआ की याद आ गई, जब हम मैट्रिक में पढ़ते थे तो उस वक्त फगवाड़े शहर में एक दिन बहुत बड़ा जलूस निकला था जिस में नारे लग रहे थे, सालाजार हाय हाय, सालाजार मुर्दाबाद लेकिन उस वक्त हमें कुछ भी पता नहीं था कि सालाज़ार किया बला है लेकिन जब हम कालज में थे तो हमारे इतिहास के प्रोफैसर मिस्टर टंडन ने हमें बहुत कुछ बताया था क्योंकि उस समय 1961 में भारती आर्मी ने गोआ पर हमला करके गोआ को पुर्तगेज़ों से आज़ाद करा लिया था और पुर्तगेज़ों का 450 साल से चले आ रहे राज का अंत हो गया था। 19 दिसंबर को गोआ का लिबरेशन डे होता है। उस वक्त गोआ की आर्मी 3000 थी और भारत की 30000 फ़ौज ने हमला कर दिया था, जिस में नेवी और एअरफोर्स का इस्तेमाल हुआ था और इसी डैबोलिम एअरपोर्ट पर भी बम्ब फैंके गए थे। इस ऑपरेशन का नाम ऑपरेशन विजय दिया गया था। इस में कोई ख़ास खून खराबा नहीं हुआ था और गोआ के जैनरल ने हथियार डाल दिए थे। महज़ बारह घंटों में यह ऑपरेशन ख़तम हो गया था। उस वक्त एक फिल्म गनज़ ऑफ गोआ भी बनी थी जिस में महमूद का भी रोल था।
प्रोफेसर टंडन ने बताया था कि गोआ का नाम महाभारत में भी आता है जिस में गोआ को गोमांतक लिखा गया है जिस के अर्थ बहुत बताये जाते हैं। कुछ गाये चराने वाला देश और कुछ उपजाऊ देश कहते हैं यहां, फसलें बहुत हों । पुर्तगेज़ों के आने से पहले मंदोवी नदी पर एक छोटा सा टाऊन था और यह बन्दरगाह भी थी, इस का कोई नाम था लेकिन गोआ नाम इस को पुर्तगालियों ने ही दिया था । इसी जगह को पुर्तगेज़ों ने अपनी राजधानी बनाया था जिस को आज ओल्ड गोआ कहते हैं। गोआ पर कभी मोरिया वंश के सम्राट अशोक और चोल वंश के राजे भी राज करते थे। जब वास्कोडिगामा यहां आया था तो उस को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा था लेकिन धीरे धीरे उस ने गोआ पर कब्ज़ा जमा लिया था। उस का प्रसिद्ध जरनैल ऐल्फांसो था । वास्कोडिगामा से बहुत पहले मुसलमान गोआ पे काबिज़ हो चुक्के थे जिन्होंने हिंन्दुओं के सभी मंदिर ढा दिए थे और बहुत हिंदुओं को जबरदस्ती मुसलमान बना लिया था। वास्कोडिगामा ने मुसलमान राजे आदिल शाह को हरा कर कब्ज़ा कर लिया था लेकिन कुछ देर बाद ही आदिल शाह ने फिर गोवा पे हमला कर दिया और ऐल्फांसो को दौड़ कर जान बचानी पडी थी लेकिन ऐल्फांसो ने एक हिन्दू राजा की मदद से आदिल शाह को हरा कर फिर से गोआ पर कब्ज़ा कर लिया और बदले की भावना से उस ने मुसलमानों को मारना शुरू कर दिया था। तीन दिन कत्लेआम चलता रहा,बहुत मुसलमान मार दिए गए या उन को क्रिश्चियन बना लिया गया था। अब गोआ बहुत अमीर होने लगा था और इस को लिज़बन ऑफ दी ईस्ट कहने लगे थे। जब भारत आज़ाद हुआ था तो जवाहर लाल नेहरू ने गोआ की आजादी के बारे में पुर्तगाल की हकूमत से बात की थी लेकिन उन्होंने बात सुनने से भी इनकार कर दिया था। गोआ को आज़ाद कराने के लिए आज़ादी की लड़ाई शुरू हो गई थी। सारे भारत में बहुत से आंदोलन शुरू हो गए थे और गोवा में भी आजादी के परवाने अपनी जान तली पे धर कर लढ़ रहे थे लेकिन पुर्तगेज़ इन आंदोलनों को सख्ती से कुचल रहे थे, उस समय पुर्तगाल में सालाजार की हकूमत थी जो डिक्टेटर था और बहुत सख्त था और शायद इसी वजह से फगवाड़े में सालाजार के खिलाफ मुजाहरे हुए होंगे जब लोग बोलते थे, सालाजार हाय हाय।
हमारी कोच चली जा रही थी और इर्द गिर्द शीशों में से झांकते हुए अपने देश का नज़ारा ले रहे थे। हमारी कोच कैलंगूट में डोनासीना होटल के बाहर सड़क पर आ खड़ी हुई। साधाहरण सड़क थी, इधर उधर हम ने देखा, देखने को फगवाड़े जैसा ही दीख रहा था। दो कुलिओं ने सारे सूटकेस छत से उतार कर सड़क के एक तरफ रख दिए। अब अपने अपने सूटकेस पकड़ी हम होटल के गेट में से होटल के आँगन में जाने लगे। आगे एक वर्दी में खड़ा कर्मचारी सब को सैलीऊट मार रहा था। विचारा कमज़ोर सा पैंतालीस पचास साल का यह शख्स था। देख कर तरस सा आ गया लेकिन हम सभी एक बड़े से ऑफिस में दाखल हो रहे थे। आगे काउंटर पर दो लड़कियां हर एक यात्री का पासपोर्ट ले कर सारी डीटेल रेजिस्टर पर लिख कर कमरों की चाबियां हमें पकड़ा रही थी। किसी ने सेफ में पासपोर्ट या पैसे रखने हों तो इसी कमरे में उस के लिए एक और छोटा सा कमरा था जिस में सेफ थी, जिस में बहुत से छोटे छोटे बॉक्स थे और हर बॉक्स की अपनी अपनी चाबी थी, जिस में डाकूमेंट रखने के लिए तीन सौ रूपए फीस थी । हम ने अपने सारे पासपोर्ट टिकटें बगैरा इस सेफ के एक बॉक्स में रख कर चाबी और एक डाकुमेंट ले लिया। इसी बड़े कमरे में इंटरनेट की सुभिदा भी थी लेकिन इंटरनेट सिर्फ जसवंत को ही आता था जो हॉलिडे के दरमियान वोह कभी कभी इस्तेमाल करता रहा।
हमारे तीन कमरे बुक थे जो दूसरी मंज़िल पर थे। क्योंकि तरसेम डिसेबल था इस लिए यह कमरे दूसरी मंज़िल पर बुक कराये गए थे ताकि तरसेम को चढ़ने में ज़्यादा तकलीफ ना हो। इलैक्ट्रॉनिक लॉक थे और स्वाइप करते ही खुल जाते थे। हम अपने कमरे में गए। कमरा काफी अच्छा था। टॉयलेट और शावर का इंतज़ाम था। कमरा कोई बारह बाई बारह का होगा और एक तरफ बैलकनी थी, जिस से बाहर का नज़ारा दिखाई देता था और इस बैलकनी में टेबल और दो चेअऱज़ रखी हुई थीं। बैलकनी सिर्फ दो कमरो के साथ ही थी लेकिन जब भी हम ने गप्प छप करनी हो, सभी हमारी बैलकनी में आ जाते थे। अपना सारा सामान सैट करके, कपडे बगैरा वार्डरोब में रख के स्नान किया और बाहर कैलंगूट की सड़क पर घूमने का मन बना कर, हम सभी बाहर चल दिए। अभी भी शायद तीन चार बजे होंगे और गर्मी काफी लग रही थी। चलता. . . . . . . . .