गीतिका/ग़ज़ल

मयखाना

( पेश है मय खाने से सम्बंधित कुछ शायराना रचनाएँ )

हजारों गम के बादल हों या
फिर खुशियों की बरसातें
बस इक मय ही दिलाता
हौसले इनसे निबटने की

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गम हो या ख़ुशी
पीने के बहाने ढेरों हैं
करके बदनाम वो मय को
मजे से रोज पीते हैं

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भूल पर भूल करते हो
जो तुम मयखाने जाते हो
तुम्हें भी उतनी पीती है
इसको तुम जीतना पीते हो
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कभी बीमार न होते जो
मयखाने के मारे होते हैं
तड़पते हैं सिसकते हैं
खुदा को प्यारे होते हैं

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पहले जो इसको पीते हैं
बाद का हाल ना पुछो
किस कदर बुन लेती है
जाम ये जाल ना पूछो

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जाम ये सबसे गहरा है
समंदर भी शरमा जाए
तख़्त और ताज भी पी कर
और लाओ फरमाते हैं

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हिन्दू मुस्लिन संग पीते हैं
मजहब की दीवार नहीं
मयखाने में वो तासीर है
यहाँ हम प्याले होते हैं

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।