कहानी

कौन रोएगा मेरी मौत पर

उफ्‌ इतनी गर्मी में ट्रेन खड़ी कर दी। आदमी, आदमी की तरह नहीं भेड़-बकरी की तरह ठूँसा पड़ा है, एकदम दम साधे कि अपना-अपना स्टेशन आए और मुक्ति मिले, फिर शाम की शाम को देखी जाएगी।

सुबह-सुबह ही इतना पसीना-पसीना हों लेंगे तो दिनभर क्या काम करेंगे? उफ्‌ उफ्‌! इस पर और भी उफ्‌ है लोगों के पसीने की बदबू और मोजों की गंध। सच में उफ्‌, उफ्‌, उफ्‌।

आख़िर ये ट्रेन चला क्यों नहीं रहे। दो फास्ट ट्रेनों को पासिंग दे दी। अब तो चलनी चाहिए।

ये स्लो ट्रेन तो है की मगर ये ट्रेन ही स्लो है। काश इसके पहली वाली पकड़ पाता, तो अबतक आधा रास्ता पार हो गया होता। पर पकड़ता भी कैसे? सुबह आँख खुले तब तो? और आँख भी कैसे खुले, आधी रात तक तो हम मियाँ-बीवी बच्ची का प्रोजेक्ट ही बनाते रह गए। एक तो उसी में बज गया। छोटावाला स्कूल जाने लगेगा तो जाने हमारा क्या हाल होगा?

लो अब तो एक लॉन्ग रूट ट्रेन भी पास हो गई। आज सुबह-सुबह अर्जेंट मीटिंग न होती तो छुट्टी ही ले लेता।

उफ्‌ इन भाईसाहब की आस्तीन कितनी गीली है। कितनी बदबू दे रही है। ठीक मेरी नाक के सामने हाथ उठा रखा है। हाथ नीचे रखने के लिए भी नहीं कह सकता, इस धक्कम-धुक्की में। कहीं गिर न पड़े। गिरे भी तो सीधे मुझपर ही गिरेंगे और इनकी काँख सीधे मेरी नाक पर आ गिरेगी। छी: छी:। मैं ही मुंह घुमा लेता हूँ। गर्दन अकड़े तो अकड़े।

तो मैं कह रहा था कि छुट्टी भी कितनी लूँ? हर तीसरे दिन तो बच्चों को नया प्रोजेक्ट देते ही रहते हैं। वैसे भी छुट्टियां बची ही कितनी हैं? छुट्टियां ख़तम होने के कगार पर है लेकिन साल खतम ही नहीं हो रहा। अभी-भी चार महीने बाक़ी हैं।

ओफ्फो! अब ये भाईसाहब बीफ्रकेस लेकर यहाँ क्यूँ खड़े हैं? अपना बीफ्रकेस किसी को देकर उस ऊँची रैक पर क्यूँ नहीं रखवा देते? इसे अक्ल नहीं है तो चलो मैं ही दे देता हूँ।

“भाई साहब! यह बीफ्रकेस रैक पर क्यों नहीं रखवा लेते? मेरे घुटनों में बार-बार लग रहा है।”

“सॉरी सर। लेकिन मुझे नेक्स्ट स्टेशन पर उतरना है।”

“ओह”

अक्ल है इसके पास। मेरे पास ही नहीं है। ख़ैर!

तो मैं कह रहा था कि किसी साल इतनी छुट्टियां बचती ही नहीं कि माँ-बाउजी को देख आऊँ। कुछ बचाकर रखी हैं, एमर्जेंसी के लिए। उन्हें ख़र्चने की हिम्मत नहीं होती। फिर यह भी लालच है कि कोइ एमर्जंसी नहीं हुई और इस तरह काम नहीं भी आईं तो अंत में एनकैश करा लेंगे।

क्या बात है? लोग उतर क्यूँ रहे हैं? लोग भी क्या करें? खड़ी ट्रेन में कबा तक खड़े रहा सकते है6? पूरे सात मिनट होने को आए, यह ट्रेन खड़ी की खड़ी है।

मैंने भी नीचे उतर कर दो-चार लोगों से बात की। पता चला, आगे कोई फुटहोल्ड से गिर कर कट गया है।

उफ्‌ उफ्‌! हे भगवान, बेचारे को भगवान शांति दें।

लो ट्रेन ने भी सीटी दे दी। जल्दी-जल्दी चढ़ जाएं। आख़िर एक आदमी के लिए साढ़े चार हज़ार लोगों को तो रोककर नहीं रख सकते। सबको देर हो रही है।

ट्रैन ने आगे घिसटना शुरू किया। मैंने भी बाएं हाथ से ट्रेन डंडी पकड़े-पकड़े दाईं जेब में रखा रूमाल दाएं हाथ से निकला और गर्दन का पसीना पोंछकर ताज़ी हवा खाने को फुटहोल्ड पर खड़ा हो गया। हाँलाकि इसी फुटहोल्ड से लटके और तीन-चार लोग मुझतक ताज़ी हवा पहुँचने नहीं देंगे। मगर, फिर भी, जो भी आधी-पौनी हवा मिल जाए, सो ही।

रूमाल से गर्दन पोंछते हुए जैसे ही मैंने गर्दन घुमाकर सामने देखा तो..तो..तो एक बीस-बाइस साल का ख़ून टपकता सर लिए एक आदमी, और कटा ध‌ड़ लिए दो आदमी जा रहे थे। वहीं दो कदम आगे दो तीन आदमी उसका सामान चेक करते से लगे। एक आदमी के हाथ में कॉलेज बैग जैसा कुछ था जिसमें से उसने शायद फिजिक्स-कैमिस्ट्री की बुक्स जैसी निकाल रहा था जबकि एक दूसरे आदमी के हाथ में एक खुला हुआ बटुआ था जिसमें एक पारिवारिक फोटो जैसी थी, चलती ट्रेन से जिसमें तीन सिर जैसा दीख पड़ा।

मैं अंदर ही अंदर काँप गया। मेरे आस-पास से भी च्च-च्च की आवाज़ें सी आने लगीं। सबने देखा सबने दु:ख प्रकट किया। उसकी किताबों से लगा कि वह शायद बी.एस.सी का स्टूडेंट रहा होगा और कॉलेज जा रहा होगा। उसके माता-पिता ने सोचा भी न होगा कि वह आज कॉलेज से कैसी अवस्था में लौटेगा। बेचारे!!

उस बेचारे की अभी उम्र ही क्या थी? मुश्किल से बीस-बाइस का भी न होगा। अभी तो उसने ज़िंदगी में कुछ किया ही नहीं था। अभी तो उसे बहुत कुछ करना था और बहुत आगे जाना था। मगर अफसोस!

इस दुनिया का केंद्र हर मनुष्य स्वयं है। इसलिए हर बात घूम-फिर कर खुद पर आकर अटक जाती है।

अब देखिए न! उसकी कोई उम्र नहीं थी, मगर मेरी तो छत्तीस साल है। उसने ज़िंदगी में कुछ नहीं किया था, मैंने कौन सा बहुत कुछ कर लिया, सिर्फ़ आफ़िस से आना-जाना तो सबकुछ करना नहीं। उसे अभी बहुत कुछ करना था, बहुत आगे जाना था, मुझे क्या कुछ करना था, भला ऑफिस की भाग-दौड़ के अलावा भी कुछ करना था क्या? आगे कहाँ जाना था मुझे? कहीं नहीं, बस घर से ऑफिस और ऑफिस से घर।

अगले स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो मुझे ठोकर सा मारते हुए बीफ्रकेस वाले भाई साहब नीचे उतरे। होना तो यह चाहिए था कि मैं पीछे से ही उनको दो-चार सुनाऊँ। और अगर सुनाने जितना मन ख़राब नहीं भी है तो कम से कम गुस्से से घूरकर ही जता दूँ कि ‘बे तू कर क्या रहा है?’

मगर आज मैं कुछ न बोला। मैंने सोचा इस आदमी से मेरा क्या लेना-देना? ये तो मुझे आज के बाद कभी दिखाई भी न देगा। भला मैं ऐसे आदमी के पीछे अपना मन ख़राब कर के क्या कर लूँगा?

क्या उस एक हादसे ने मेरी सोच को इतना परिवर्तित कर दिया है? शायद ज़्यादा ही कर दिया है, क्योंकि अब मैं सोच रहा था कि उस आदमी से तो मेरा कोई लेना-देना नहीं मगर जिनसे लेना-देना है उन से ही कौन-सा मैं बहुत मेल-जोल रखता हूँ। कौन है जिसके लिए मैं अपना मन अच्छा या ख़राब कर सकता हूँ? ख़ैर वो छोड़ो, मैंने कहा ना कि इस दुनिया का केंद्र हर मनुष्य स्वयं है, तो बात यह उठती है कि मेरे लिए कौन अपना मन ख़राब करेगा?

अब उस बच्चे को ही ले लो। आज उसके माता-पिता बहुत रोएंगे और वर्षों तक रोते रहेंगे। जहाँ तक मेरा ख़्याल जाता है, वह अपनी माता-पिता की इकलौती संतान रहा होगा। उसके बटुए की उस धुंधली तस्वीर से तो यही अनुमान लगा सकता हूँ। फिर तो शायद उसके माता-पिता विक्षिप्त हो जाएंगे और सारे जीवन उसकी कमी को महसूस करेंगे।

पर मेरी कमी कौन महसूस करेगा? ऑफिस में? घर में? गाँव में? पुराने-परीचितों में? दरअसल मैंने ऐसा किया ही क्या है कि कोई मेरी कमी महसूस करेगा?

ऑफिस में तो मैं किसी से कभी आत्मीयता से बोला-बतियाया भी नहीं। हमेशा खुशी का मुखौटा पहने रहा और गुड मार्निंग-गुड आफ्टरनून-गुड इवनिंग-गुड नाइट से ज़्यादा का किसी से लेना-देना ही नहीं रहा। कल को अगर मुझे कुछ हो भी जाता है, तो वो मुझे ऐसे ही भुला देंगे जैसे कोई ट्रांस्फर गया आदमी।

बच्चे? बच्चों को तो रोज़ के खिलौने, टॉफी, चॉकलेट नहीं मिलेगें तो याद करेंगे….न ना। रानी भी तो वर्किंग है, वो संभाल लेगी बच्चों को। फिर तो बच्चे भी याद नहीं करेंगे। समझेंगे कि किसी टूर पर गए हैं और डाँटने-बोलने वाला कोई नहीं। जब देखो पढ़ाई की ही बात की है मैंने मुन्नी से। कभी खेलने-कूदने-घूमने-फिरने गया ही नहीं उसके साथ। तो भला याद क्या करेगी, सुकून ही मनाएगी, मेरे जाने का।

रानी ज़रूर याद करेगी मुझे। जब-जब बच्चों का सारा भार उस पर पड़ेगा तो उसे मेरे सहयोग की याद ज़रूर आएगी। मगर वह तो अभी ही इतनी बिज़ी रहती है कि उसे मेरे बारे में याद नहीं रहता तो जब वह और ज़िम्मेदारियों से घिर जाएगी तो ख़ाक याद करेगी? वैसे भी बच्चों के आने से तो मैं वैसे ही उसकी ज़िंदगी से आउट हूँ।

अगले स्टेशन पर काफ़ी भीड़ निपट गई। अब मुझे लटकने की और हर स्टेश्न पर बार-बार नीचे उतर कर साइड देने की ज़रूरत नहीं थी। अब मैं आराम से कोरिडॉर में खड़ा हो सकता था। अब मुझे हवा भी अच्छे से लग रही थी, मगर तेज़ धूप भी लग रही थी और ज़बर्दस्त प्यास भी ।

मुझे याद है, बचपन में जब हम ऐसे ही तेज़ धूप में मेला देखने के लिए निकलते थे तो बाबा मेरे सर पर कस कर गमछा बाँध देते थे और अपने कंधे पर उठा लेते थे और शाम तक जब हम मेले में पहुँचते थे, तब तक यों ही कंधे पर ही उठाए रहते थे।

माँ उतनी सी दूर जाने के लिए ही सत्तू के लड्डू बाँध कर देती थी जिससे प्यास नहीं लगती थी। काश वैसे ही गमछा बांध सकता और सत्तू के लड्डू खाकर घर से निकल सकता, यहाँ भी। मगर नहीं बाँध सकता। सूट-बूट-टाई पर गमछा बाँधा देखकर लोग हंसेंगे। और सत्तू? सत्तू कहाँ मिलेगा?

आज तेज़ धूप-प्यास लगी तो मैंने माँ-बाबा को याद किया। क्या वो भी मुझे याद करते होंगे? करते तो हैं। कहते हैं आने को भी। मगर मैं जा कहाँ पाता हूँ? चार साल से तो गया नहीं। और चार साल नहीं जाऊँगा तो भी क्या फर्क़ पड़ जाएगा? मैं मर भी गया तो वे यही समझेंगे कि गाँव आने की छुट्टी नहीं मिल रही शायद और ऐसे में एक दिन उनकी भी छुट्टी हो जाएगी।

अभी मेरे रोनेवालों की लिस्ट…न ना, अभी मेरे नहीं रोनेवालों की लिस्ट मैंने यहीं तक बनाई थी कि मेरा स्टेशन आ गया। अभी तो मैं अपने दूर के परीचितों तक पहुँचा भी नहीं था कि मेरा ध्यानभंग हुआ और मुझे उतरने के लिए अपना ऑफिस बैग संभालना पड़ा।

वैसे उन दूर के परीचितों तक पहुँचने की ज़रूरत भी क्या है जब मैं उनतक आज तलक नहीं पहुँचा। बचपन का कोई साथी, स्कूल-कॉलेज का कोई फ्रेंड अब टच में नहीं या यों कहें कि मैं किसी के टच में रहा ही नहीं, तो भला कुछ भी सोचना क्या?

मैं अपने चिर-परीचित स्टेशन पर उतर रहा हूँ। मगर मुझे आज यह नया-नया, अपरीचित लग रहा है। एक ही झटके में मुझे दुनिया नई सी लग रही है। इतनी नई कि ऑफिस में भी सबसे मैं खुलकर मिल रहा हूँ।

मीटिंग के लिए अभी वक़्त है। मैंने रानी के ऑफिस फोन लगाया, उसे बताया कि कैसे आज एक नौजवान हमारी ट्रेन के नीचे आ गया। जैसा कि मुझे उम्मीद थी, उस पर इस हादसे का कोई असर न हुआ।

“रोज़ औसतन 9 लोग लोकल ट्रेन से गिरकर मरते ही हैं, तुम अख़बार में नहीं पढ़ते क्या? रोज़ ही मरने वालों के आँकड़े दिए रहते हैं।“

यह सुनकर मेरी आँखों के सामने उस नौजवान जैसी नौ लाशें घूम गईं। अपने आपको सँभालते हुए उससे पूछा।

“यह रोज़ होता है फिर भी कुछ किया क्यों नहीं जाता। एक ही गलती बार-बार कैसे हो सकती है?”

“कैसे न होगी? रोज़ लोग मरते हैं फिर भी कोई अपनी सुरक्षा पर ध्यान नहीं देता। दूसरों की मौत से कोई सीख नहीं लेता। सब ऐसे ट्रेवेल करते हैं जैसे उन्हें तो कुछ हो ही नहीं सकता। तुम्हीं बताओ, जिस नौजवान की तुम बात कर रहे हो, क्या उसने फुटहोल्ड पर लटकने से पहले सोचा होगा कि वो आज नहीं रहेगा। वह भी तो यही सोचकर लटका होगा न कि उसे कुछ हो ही नहीं सकता।”

“अच्छा! मुझे मीटिंग के लिए देर हो रही है। रखता हूँ।”

मुझे कोई देर नहीं हो रही थी। मगर वो कहा न मैंने कि इस दुनिया का केंद्र हर मनुष्य स्वयं है। तो इस बार भी बात घूम-फिरकर मुझपर ही आ गई। आख़िर मैं भी तो फुटहोल्ड पर चढने से पहले ये नहीं सोचता कि मेरा आख़िरी दिन हो सकता है। मैं मरने पर रोनेवालों कि लिस्ट सोच सकता हूँ लेकिन यह नहीं सोच सकता कि मैं मर भी सकता हूँ।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल n30061984@gmail.com