सामाजिक

क्या हत्या, आत्महत्या अथवा बलात्कार ‘ईश्वर’ करते या कराते हैं ?

बांग्ला में एक कहावत है– “ठाकुर दा जोई करे, मंगोल जौनयों ।” तात्पर्य हिंदी में यह है– ‘भगवान् या ईश्वर जो करते हैं, अच्छे के लिए !’ ऐसे में मेरे सवाल न तो प्यारे दोस्तों से है, न ही माननीय कोर्ट से और न किसी धर्माधिकारियों से ! मेरा सवाल उस पालनहार भगवान् से है, जिसे आज तक हमलोगों ने नहीं देखा-सुना (खासकर मैं तो नहीं ही ! ), हाँ ! देखा-सुना, तो बस क्रूर – कल्पनाओं में / किताबों में / सिनेमा में / मूरत में ….. अन्यत्र में तो फ़ख़्त धार्मिक स्थलों में धर्मांध व आस्थान्ध पुजारियों अथवा पूजार्थियों अथवा ऐसे मदारियों के अगरबत्तियों में सूँघा जा सकता है ।

कोई नर है या मादा, यह भी हमें नहीं पता ! क्योंकि प्रत्येक धर्मों के नाम से कोई ‘नर’ ही मालूम होते हैं ! यदि नर हैं, तो माँ कभी बन ही नहीं पाएंगे ! सबकोई ईश्वर को ‘परमपिता’ नाम से ही संबोधित करते हैं, परममाता नहीं ! यदि ‘मादा’ है, तो फिर ‘माँ’ बनने के बाद किसी बच्चे को गटर में कैसे फेंक देते हैं, उसे जन्म देकर ! यदि इन दोनों ही बातों को मान लूँ, तो ‘साइंस’ और ‘सेक्स’ की कसरत तो कुछ भी यहाँ दृष्टिगोचित नहीं हो रही है, क्योंकि ‘संबंधों’ के बिना लोग ‘बिन-ब्याही माँ’ और ‘बाप’ कहलाने को विवश रहते हैं, जबकि ऐसा किसी भी फ़ॉर्मूला से सिद्ध नहीं होता है । आखिर यह माज़रा है क्या ? अज़ीब बात है, इन प्रासंगिक ‘बोल-वचनों’ को ‘धार्मिक ग्रंथों’ में करीने से संग्रहित कर रखे गए हैं !

‘श्रीरामचरितमानस’ में लिखा है– “राम करे चाहे सोई होय, करे अन्यथा अस नहीं कोई” अर्थात ‘राम जो चाहे, वही होता है, किसी दूसरे के करने से कुछ नहीं होता है’, जो कि बांगला कहावत से इस लघु आलेख की शुरुआत भी तो किया है । …यानी… “ऊपरवाले के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता है !” तो क्या साधारण मुनष्य अगर हत्या,रेप,अश्लील या अन्य सभी गैर- कार्य करते हैं, तो यह ‘मानव’ नहीं, अपितु यह सब भगवान् कर रहे होते हैं–यही समझूँ क्या ! ‘कुरआन-ए-पाक’ की सूरह अल अनाम / आयत नंबर- 59 में साफ़-साफ़ लिखा है– ”वा इन्दाहु मफातेहुल गेबी ला या – लमुहा इल्ला हुवा वा यालामु मोफिल बरीई वलबहारे वामा तस कुतु मेवारेकातिन इल्ला यालामुहा”, मतलब स्पष्ट है– ”अल्लाह के पास हर अनदेखी और अनसुनी चीज की चाबी है । कोई नहीं जानता उनके सिवा ! उन्हें पता है कि जमीन और समुद्र में क्या है । एक पत्ता भी इनकी इजाजत के बिना नहीं गिर सकता !” आयत नंबर- 29 में साफ़ कहा गया है– ”उना इल्ला अनुयासा अल्लाहो रब्बुल आलामीन” यानी ‘जब तक अल्लाह की इजाजत ना हो , आप कुछ भी नहीं कर सकते ।’ ऐसा ही कुछ ‘बाइबिल’ में भी लिखा है, चैप्टर 45 वर्स 6.7 — “दैट पीपल मे नो,फ्रॉम द राइज़िंग ऑफ़ द सन एंड फ्रॉम द वेस्ट, दैट देअर इज नन बिसाइड्स मी । आइएम द लॉर्ड एंड देअर इज नो अदर । आईएम फ्रॉम लाइट एंड क्रिएट डार्कनेस, आई मेव, वेल बीइंग एंड क्रिएट केलमिटी। आई एम द लॉर्ड, हू डज ऑल दिस थिंग्स ।”

तो क्या ‘धार्मिक ग्रन्थ’ के सीमित व्याख्या को ही मान लें कि ”भगवान् ही यह सब कराते हैं” या कि “व्याख्या की विस्तृतता देकर व समयावसर संशोधन किये जाकर ही धर्म-वाक्य को संतुलितकर इनका वाचन करें !” यदि मैं परमपिता से ऐसे वाक्य लिए आशीष माँगू, तो ‘धर्मकारी’ कारक ‘धमकी’ अथवा ‘मारने-मरने को उतारू’ हो जाएंगे, क्योंकि वे धार्मिक ग्रंथों के शब्दों को अपने तरीके से ही व्याख्या करेंगे । दूजे के ऐसा करने से मनाही ही सामंतगान दर्शाता है ! ऐसे में क्या किसी को ‘निर्भया’ के प्रति सिर्फ मोमबत्ती जलाने भर ही दया है ? या इन सबों के मास्टरमाइंड वही रहेंगे, सतत् ? …. और हम क्या ‘कठपुतली’ की तरह नाच दिखाते रहेंगे, यहाँ !

ऊपर के आकाशी ‘मदारी’ को तकते हम धरती पर पड़े ‘ज़म्हूरे’ भर हैं क्या ? तो नाच दिखाते रहो, भईओ ! मैं तो चला !!!