कहानी

कहानी : सन्नाटा

कजरी का झुंझलाकर चलना, रास्ते भर अनाप- सनाप बड़बड़ाना उसे तो क्या किसी के भी समझ में नहीं रहा था। वह पैर पटकती हुई, जल्द से जल्द अपने इकलौते घर में समा जाना चाहती थी। हांफते- गांफते वह वहाँ पहुँच तो गई पर उसके शरीर की कंपन कम न हुई। घर भी तो सुना ही था सब मजूरी करने गए थे, मरहम कौन लगाए। चोटिल कजरी घायल शेरनी की तरह अपने शरीर और शरीर के उभारों को नाखूनी पंजा मारे जा रही थी, अर्ध-विच्छिप्त सी होकर हालात पर बरस रही थी। उसके बस में होता तो जिसने उसका दुपट्टा खींचकर अपनी मैली मुराद से उसका बढ़ता हुआ रास्ता रोक लिया था उसको बिना नमक-तेल के कच्चा चबा जाती।
नमक ले आई बिटिया, उसकी माँ की आवाज, जैसे ही कजरी के कान में पड़ी, वह नागिन की तरह फुफकार कर अपनी माँ के शिर पर सवार होकर, जहरीले डंस मारने लगी। भाड़ में जाय तेरा नमक, तुम लोगों की जीभ जल क्यों नहीं जाती, जब मैं पूरी तरह लूट जाऊँगी तभी तेरे कलेजे में ठंडक पड़ेगी। खुश हो जा, आज उसकी भी शुरुआत भी हो गई, सुनसान रास्ता देखकर, मनोहरा के बिगड़े हुए उस मुस्टंडे ने मुझे अपवित्र कर दिया। खींच लिया मेरे दुबले दुपट्टे को, मसल दिया मेरे अरमानों के उभरती हुई कली को, अब यह दागी फूल, मैं किसे चढ़ाऊँगी। कुछ नहीं कर पाई माँ, उसके दाँत गड़ गए मेरे छटपटाते होठों पर, उसके हाथ खेलते रहे मेरे अनछूये शरीर से……बेजार होकर माँ के गले में ढ़ेर हो गई और फफकती रही।
शांत्वना के अलावां क्या था उसकी बिपत्ति की मारी हुई माँ के पास, जिसे देकर वह कजरी का दर्द हर लेती। चुप हो जा मेरी लाडों, चुप हो जा…….अपनी इस अभागन माँ की तूँ बड़ी बेटी है। मेरे हर राज की राजदार है तूँ। घिन आती होगी तुझे मेरी जलालत देख-सुनकर। बहुत कुछ दिया है इस गाँव ने तेरी इस माँ को जिसे इस आँचल में दफ़न कर मैंने तुझे माँ कहलाने के लिए व तेरी दो बहनों को एक बेटे की आस में पैदा किया है। पूत का सुख देने वाला यह तेरा छोटा भाई, कई देवकुर पूजने के बाद आया है जो इस बेजार जमीन का वारिस होगा। इसके पैदा होते ही मेरी नसबंदी हो गई। उसी के एवज में सरकारी जमीन का यह टुकड़ा, कइयों के घर पापड़ बेलने और तलने पर मिला है। गाँव के बित्ते भर की झुग्गी में सबको लेकर कैसे रहती?……. बाकी था ही क्या, तुम्हारे बाप के पास जिसे ओढ़ती पहनती और तुम सबको इज्जत से बड़ी करती। हर दिन एक नया घाव लेकर कराहती रही हूँ। इसका अनुमान था मुझे कि तुझे खरोच से नहीं बचा पाऊँगी पर इतनी जल्दी तुझे कांटे चुभेंगे, ऐसा कभी नहीं सोचा था, गफलत में थी और तेरी खूबसूरती पर बदसूरती की होनी हो गई। रोज की चाकरी मजदूरी करके घर चलता है। घटे घर में जलालत के अलावां और क्या मिलेगा। शांत हो जा बिटिया, गरीब की इज्जत क्या और बेइज्जत क्या। हर किसी की नज़रों में कहीं हरी घास तो कहीं सूखी घास की अनेरुवा फसल ही तो है गरीब की बगिया। जिसे किसी ने पैरों से कुचल दिया तो किसी ने हाथों नोच लिया।
अब चुप हो जा माँ, जले पर मेरा ही लाया हुआ बदनामी का नमक न लगा। सब समझती हूँ इतनी भी नासमझ नहीं हूँ सबकी निगाहों में झाँक सकती हूँ। रात बीतने दे, मेरा भी दिन देखेगा यह गाँव और सदमे में आ जाएँगी सूनी राहें……बापू को कुछ मत कहना……भड़ास निकाल कर बिछ गई अपने मैले विस्तर पर और गिनती रही टिमटिमाते दीये की रोशनी में अपने झरते हुए आँखों की बूंदों को। आँख लगी और धूप माथे पर आया तो जाग पाई थी अपनी दुखती रात को बिताकर।
उठ गई बेटा, माँ की सहमी सी आवाज…..नहा धो ले और कुछ खा ले, रात की भूखी है। मैं मजदूरी पर जा रही हूँ देर हो जाय तो चिंता मत करना। अबसे तूँ कहीं बाहर न जाना……हुँ…. जा…..मैं कहाँ जाउंगी, निश्चिन्त रह और मजूरी पर जा…… माँ की पीड़ा से बेखबर कैसे हो पाती। बहन भाई के साथ दिन पर दिन निकलते रहे, उसका घाव कुछ भरा तो वह महीनों बाद घर से बाहर निकली। सुरेश को देखते ही उसका घाव फिर से हरा हो गया। मानों सुरेश उसके आगमन पर आँखे बिछाए उसकी राह देख रहा हो। नाराज हो क्या कजरी, उस दिन का बुरा मान गई, सही में मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ, यह कहते हुए उसने कजरी का हाथ पकड़ गली में खीचने लगा। कजरी उसे जोर का धक्का देकर आगे बढ़ गई और उसको अहसास करवा दिया कि तेरी काली दाल इस बर्तन में गलने वाली नहीं है।
अवसर की तलास में दिन भर उसी के घर में घर काम करती रही कि शाम को दामोदर भाई कुछ सम्मानित लोगों के साथ अपने दरवाजे पर बैठक लगाकर सुरेश के शादी- व्याह की बातों में मसगूल हो चाय की आवाज लगाए। कजरी चाय लेकर गई तो सुरेश को वहीँ खड़ा पाकर खुश हो गई। चाय रखकर वह अपना दुपट्टा उतारते हुए सुरेश की तरफ बढ़ी और एक चटाक की आवाज ने सबको चौंका दिया। बहुत अच्छा लगता है न तुझे, मेरा यह फटा हुआ दुपट्टा, जहाँ भी अकेला पाता है, पकड़ कर खिंच देता है। सम्हाल कर रखना इस फटे हुए कपड़े को, मेरे ऊपरी शरीर को तो तूने नंगा कर ही दिया है….रोते हुए उसका पांव उसके घर की तरफ बढ़ गया था और वहाँ बैठे हुए सारे लोग सन्न रहे गए थे। यह सन्नाटा कजरी के हिम्मत का था जो कईयों के गाल को हचमचा कर सहलाने के लिए सुन्न कर गई थी………

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ