लघुकथा

रिश्तों का बाग

लघुकथा

“अरे शालू दीदी, आप! विनी की शादी के बाद तो शक्ल ही नहीं दिखाई, माँ आपको बहुत याद करती है” खुशी से भरकर जब अमन ने शालिनी का स्वागत किया तो उसकी आँखें भीगे बिना न रह सकीं।
“शिक्षण कार्य में ही समय कट जाता है अमन, दो दिन विद्यालय की छुट्टी थी और मेले के अंतिम दिन भी, तो सोचा इस बार तुम लोगों के साथ ही मेला घूम लूँगी, सबसे मिलना भी हो जाएगा”। हँसते हुई शालिनी बोली।
शालिनी तलाक़शुदा थी और २० वर्षों से उसी शहर में शिक्षण कार्य करके बेटी की परवरिश में अपना जीवन खपा दिया था। मायके कम ही आती थी, क्योंकि उसका मानना था कि एक ही शहर में होने से मायके से जितनी दूरी बनाकर रखी जाए, उतना ही वहाँ सम्मान बना रहता है।
“बहुत अच्छा किया दीदी, आप माँ से बातें कीजिये, हमें थोड़ा बाजार का काम है, फिर आकर कल का कार्यक्रम बनाते हैं” कहते हुए वो तैयार खड़ी अपनी पत्नी और बिटिया को साथ लेकर बाहर निकल गया।
शालिनी काफी देर तक माँ से बातें करती रही फिर कुछ देर टहलने के लिए कहकर बाहर निकली तो सामने ही उसका अपनी पुरानी दो सहेलियों से सामना हो गया। कुछ देर वे उत्साह से एक दूसरे का हालचाल पूछती रहीं फिर उन्होंने बताया कि वे मेला घूमने जा रही हैं और शालिनी को भी साथ चलने के लिए कहा। मेला परिसर घर के पास में ही था, शालिनी ने कल के कार्यक्रम का ज़िक्र करते हुए कहा कि- “मैं केवल झूला खाकर वापस आ जाऊँगी।”
तीनों ने सिकी हुई मूँगफली खरीदी और झूले के लिए टिकट की लाइन में लग गईं। झूले की गति कम हो गई थी और पुराने लोग उतर रहे थे तथा नए बैठते जा रहे थे। तभी सहसा शालिनी की नज़र झूले से उतरते हुए भैया-भाभी और गुड़िया पर पड़ी। देखकर उसका दिमाग सुन्न हो गया, मूँगफली का पैकेट हाथ से छूट गया और वो आगे खड़ी अपनी सहेलियों से पेट दर्द का बहाना बनाकर
सीधी घर पहुँच गई। माँ से मेले की घटना का ज़िक्र करके बोली-
“माँ, मैं तो रिश्तों को सींचने चली आई थी, नहीं जानती थी कि यह बाग अब इस तरह मेरा बंजर हो चुका है। अब कल तक मेरा रुकना व्यर्थ है।” उसने अपना बैग उठाया और पैर पटकती हुई तेज़ी से बाहर निकल गई।
अभी टैक्सी आधी दूर ही पहुँची, कि मोबाइल बज उठा। लेकिन भाभी का नंबर देखकर उसने फोन काट दिया। अगले ही क्षण मैसेज आ गया- “शालू दीदी! हमें माँ ने सब बता दिया है, आप अपने भैया को क्या इतना ही जानती हैं? हम तो वापस ही आ रहे थे, देरी हो जाने से खाना भी बाहर से पैक करवा लिया था, लेकिन घर के पास ही गुड़िया ने झूला खाने की ज़िद पकड़ ली। कवरेज एरिया होने से फोन पर संपर्क भी नहीं हो पाया। अब अगर आप तत्काल वापस नहीं आईं तो यहाँ कोई भी न तो भोजन करेगा और न ही कल हम मेला घूमने जाएँगे”।

ओह यह तो मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई…सोचते हुए शालिनी की आँखें खुशी से नम हो गईं, उसे रिश्तों का बाग पुनः लहलहाता हुआ दिखने लगा। उसने ड्राइवर से टैक्सी पलटाकर वापस उसी जगह ले चलने के लिए कहा। ड्राइवर ने क्षण भर उसे अचरज से घूरा और टैक्सी मोड़ दी।

-कल्पना रामानी

*कल्पना रामानी

परिचय- नाम-कल्पना रामानी जन्म तिथि-६ जून १९५१ जन्म-स्थान उज्जैन (मध्य प्रदेश) वर्तमान निवास-नवी मुंबई शिक्षा-हाई स्कूल आत्म कथ्य- औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद मेरे साहित्य प्रेम ने निरंतर पढ़ते रहने के अभ्यास में रखा। परिवार की देखभाल के व्यस्त समय से मुक्ति पाकर मेरा साहित्य प्रेम लेखन की ओर मुड़ा और कंप्यूटर से जुड़ने के बाद मेरी काव्य कला को देश विदेश में पहचान और सराहना मिली । मेरी गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि है और रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं। वर्तमान में वेब की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की उप संपादक। प्रकाशित कृतियाँ- नवगीत संग्रह “हौसलों के पंख”।(पूर्णिमा जी द्वारा नवांकुर पुरस्कार व सम्मान प्राप्त) एक गज़ल तथा गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन। ईमेल- kalpanasramani@gmail.com