कविता : काश, कोई रखवाला होता !
अरमानों के पंख लगाके, इस दुनिया में आई थी।
रूप रंग सिंगार देखके, सबके मन को भाई थी।
बड़े प्यार से बाँह थाम के, चरखी का सँग पाया था।
मतवाले दो हाथों ने भी, ढेरों नेह लुटाया था।
बँधी डोर से खुले गगन में, ऊँचाई को छू जाती।
रंग-बिरंगी सखियों को पा, झूम भाग्य पर इठलाती।
कभी गुचती कभी उड़ती मैं, पेच दाँव पर लग जाते।
कट कर गिरते देख धरा पर, कितने हाथ मचल जाते।
लूट रहे थे, नोंच रहे थे, अपमानित हो रोती थी।
आशाओँ के दीप बुझाए, मान-सम्मान खोती थी।
आज कहीं स्वच्छंद गगन में, मेरा भी इक घर होता।
नहीं उजड़ता जीवन मेरा, जो इक रखवाला होता।
— डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”