कहानी

कहानी : अनुत्तरित प्रश्न

अपने शेष बचे जीवन के गहराते अंधकार के बारे में आज मैं सोच रही हूं। मजहब के उन विष-दंतों के बारे में। किसी मर्द के बनाये उस शरियत के कानून के बारे में। उनके द्बारा दिये गये जख्मों के बारे में! जख्मों से शरियत का मवाद रिस रहा, कीड़े रेंग रहे। सिर्फ इनके ही बारे में मैं सोच रही हूं।
ठंड अपने पूरे शबाब पर है। मैं चूल्हे के पास बैठी आग सेंक रही हूं। मेरे पास ही बैठे हैं मेरे देवर जावेद तथा छोटी ननद गुलशन। मेरे शौहर इधर साल भर से कलकत्ता में हैं। सुना है, वे किसी चमड़े के कारखाना में काम करते हैं। नयी नौकरी है, इसलिए वे घर आना नहीं चाहते, जबकि अम्मा उन्हें बुलाना चाहती हैं। और मन ही मन मैं भी। कारण कि शौहर की याद अक्सर मुझे भी आती रहती है। जीवन में खालीपन का अहसास होता है। घर में सबकी यह राय है कि अगर अम्मा अपनी बीमारी का तार दें तो वे आने पर मजबूर हो जायेंगे। जाहिर है इससे उन्हें छुट्टी मिलने में सहूलियत होगी। यह राय मुझे मुफीद लगी। तार देने की बात पर गुलशन ने चुटकी ली तथा जावेद ने मुस्करा कर मेरी ओर अपनी नजर गड़ा दी। मैं उसकी शोख मुस्कराहट से वाकिफ हूं। उसके इरादे शायद नेक नहीं, यह सोचकर मैंने प्रसंग को बदलते हुए गुलशन से कहा, ‘कड़ाके की ठंड है, थोड़ी और लकड़ी चूल्हे में डाल दो।’
‘ठंड तो मुझे भी लग रही है भाभी जान!’ यह कहते हुए जावेद हम दोनों के बीच में आ टपका। मैंने जावेद को टोका, ‘जावेद? ज्यादा ढीठ बनने की कोशिश न करो।’
मेरी हिदायत का मानो उस पर कोई असर ही न हुआ। उसने इत्मीनान से मेरे जिस्म के उभारों पर नजर गड़ाते हुए मेरे भीतर एक अजीब-सी सिरहन पैदा कर दी। ‘वाकई आप बहुत खूबसूरत हैं भाभी जान! आपके हर अंग में मानो मादकता समायी हुई है। आपकी देह-सुगंध का एक अभिनव अहसास हो रहा मुझे। और अफसोस कि भाई जान इससे पूरी तरह बेखबर हैं। अगर आप इस गुलाम को हुक्म करें तो मैं आपकी खदिमत में उन्हें इसकी खबर कर दूं। भाई जान को तार देने की जरूरत न पड़ेगी, वे खुद ही दौड़े-दौड़े आप तक पहुंच जायेंगे।’ उसने शायद मेरे भीतर झांकने की शोख शरारत की।
सचमुच जावेद इन दिनों काफी बदल-सा गया है। हालांकि वह पहले ऐसा नहीं था। उसमें आचनक आये इस बदलाव को लेकर उसकी भविष्य की चिंताओं से मैं काफी परेशान हूं। पहले वह मेरी अदब करता। मैं भी उसका सानिध्य चाहती। उससे बोलना-बतियाना अच्छा लगता। उसके करीब सघन अपनापन का अनुभव करती। उसकी सहज शरारत मुझे अच्छी लगती। किसी बात पर जब मैं उस पर रंज होती, वह अपनी आंखें झुका लेता। मेेरे हर अंदाज की वह लिहाज करता और यह मुझे काफी अच्छा लगता। लेकिन आज-कल वह रंगीन ख्यालों में हर समय डूबा रहता है। शायद दोस्तों की संगत में पड़कर आंखें चार करने की कला उसने सीख ली है और मुझे इसी बात का डर सता रहा। वह अब पहले जैसा निर्मल-निर्लिप्त न रहा। मुझे इसका अक्सर अहसास होता है। उसमें विकार आ गया है और उसके भीतर का मर्द शायद मेरा स्पर्श चाहता है। मुझे पाना चाहता है या और कुछ, यह समझना मेरे लिए अधिक मुश्किल नहीं है। खैर, रिश्ते की कमजोर हो रही डोर को मैं हर हाल में टूटने से बचाना चाहती हूं। ऐसे में मेरे शौहर का घर पर होना अत्यंत जरूरी है। दरअसल मेरे भीतर की यह जो शंका है इसे लेकर मैं बेहद सहमी हुई हूं। मैं जावेद से जितनी दूरी बनाने की कोशिश करती हूं, वह उतना ही मेरे करीब आना चाह रहा है।
इन दिनों मेरे प्रति उसका आकर्षण कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। वह अक्सर मुझे अपलक नजर देखना चाहता है। वक्त-बेवक्त मेरी प्रशंसा में कसीदे कसता। मुझसे हंसना-बतियाना चाहता है। वह चाहता है कि मेरा मन भी उसे पहले जैसा ही सहज कबूल कर ले। मुझे जब कभी वह उदास देखता है तो टोक देता, ‘भाभी जान, भाई जान नहीं हैं तो क्या हुआ?’ आपका ख्याल रखने के लिए मैं तो हूं न! क्या मुझ पर आपको यकीन नहीं हो रहा?’ मेरे व्यथित मन को सहलाने का जब भी वह यत्न करता है तब मैं अधिक परेशान हो उठती हूं।
निहायत एक औरत होने के नाते क्या मैं जावेद से अपनी दूरी बढ़ाना चाहती हूं! दरअसल वजह यह नहीं है। जावेद की आंखों में कई बार मैंने वासना के उठते तूफान को देखा है। यह वही जावेद है जिसके सिर के बालों को मैं अक्सर सहलाया करती और उसे अपने मन की हर बात बताती। लेकिन सचमुच ही मैं उससे अब डरने लगी हूं। मैं चाहती हूं कि मेरे शौहर घर आ जायें ताकि जावेद पर थोड़ा लगाम लगे और मैं भी फिसलने से बच जाऊं। भीतर ही भीतर कष्ट सहती हूं। घुटन महसूस करती हूं। फिर भी अम्मा के सामने अधिक खुलने की हिम्मत मुझमें नहीं होती। घर में अम्मा से सब डरते हैं। इस बात का डर मुझे भी बराबर बना रहता है। वह कब किस बात पर उबल पड़ेंगी, यह कहना मुश्किल है। दरअसल अम्मा को सिर्फ पैसे चाहिए। उन्हें बेटे तथा बहू की चिंता नहीं होती, बस उनकी जरूरत पूरी होती रहे। लेकिन मेरे देह-मन की भी तो कुछ जरूरत है। उसे भी तो कुछ चाहिए!
तार देने की बात पर अम्मा के तेवर अचानक बदल गये। वह तुनक कर बोलीं, ‘वह औरत ही क्या, जो मर्द के बिना न रह सके।’ दरअसल उनका इशारा मेरी ओर रहा। बस इतनी -सी बात पर वह घंटों बड़बड़ाती रहीं। हमारे ससुर की वह दूसरी पत्नी हैं। लेकिन इस घर में उनकी ही हुकूमत चलती है।
भाई को प्रदेश गये साल भर गुजर गये। लेकिन मुझे लगता है कि वे अभी-अभी गये हैं। आपको कैसा लगा रहा है भाभीजान, क्या बोलना पसंद करेंगी?’
मैं समझ गयी कि यह आफत इतनी जल्दी नहीं टलेगी। मैंने गौर किया, जावेद की आंखों में लाल-लाल डोरे उभरने लगे थे। चंूकि अशरफ पर बात आकर ठहर गयी थी, जाहिर है मेरे जेहन में उनकी भूली-बिसरी स्पर्श स्मृतियां सु’ नारीत्व को पल भर के लिए उद्बेलित कर गयीं। मेरे भीतर भावनाओं सुखद ज्वार उठी और मैं उसमें समा गयी। तभी जावेद ने ठहाके लगाते हुए मेरी ओर मुखातिब हुआ,आप किसकी चिंता में डूब रहीं, आपका मुकम्मल ख्याल करने के लिए मैं हूँ न?’ मैं पूरी तरह सहम गयी। कारण कि दुनिया की हर औरत एक जैसी होती है। वह पुरुष-मन को बखूबी पढ़ व समझ सकती है। पुरुष हमेशा से औरत में अपने सुख की ही तलाश करते रहे हैं। वे स्त्री-मन की व्यथा को अब तक कहां समझ पाये जबकि औरत तुरंत समझ लेती है। पुरुष कब किस नजर से औरत को देखता है, इसे समझने में औरत कभी कोई गलती नहीं करती, जबकि पुरुष अक्सर इस मामले में चूक जाते हैं। मुझमें जावेद की बढ़ती आशक्ति ने अनायास ही मेरी चिंता को बढ़ा दिया। जब मैं इस घर आयी थी, उस वक्त जावेद कक्षा नवीं में पढ़ता था। मैं उम्र में उससे छोटी थी, मगर रिश्ते में बड़ी। वह मेरी लिहाज करता। मेरी खदिमत में वह हमेशा ही हाजरि रहता। दरअसल मैं इस घर में सबसे अधिक उस पर ही भरोसा करती। उसे अपना दोस्त समझती। उससे अपनी हर खुशी बांटती। यकीनन एकांत में मैं अपने मन को उसके समक्ष खोल कर रख देती। उसमें कभी कोई ऐब मुझे नहीं दिखी। भाई को मैं मायके में छोड़ आयी थी। इस कमी को जावेद ने अपने भावनात्मक लगाव से कभी महसूस न होने दिया। उसने रिश्तों की डोर को टूटने से बचाया जरूर। साथ ही संबंधों को गरिमा प्रदान की। रिश्ते को एक नाम दिया। सचमुच ही हम दोनों के बीच का यह रिश्ता बड़ा पाक-साफ रहा। मन की सुप्त वासना कभी जगी भी तो हम सावधान रहे। अपने विवेक से काम लिया। हम एक-दूसरे के काफी करीब आते चले गये।
शरीर-परिवर्तन के साथ-साथ मन मे भी बदलाव आया। और हमारे रिश्तों के मायने भी शायद बदल गये। जिस रिश्ते को लेकर मैं बेहद उत्साहित रहती और सुकून महसूस करती, अब उसी रिश्ते से मैं डरने लगी। जब कोई रिश्ता मन में संशय पैदा करने लगे तो उससे आतंकित होना स्वाभाविक है। दरअसल रिश्ते को हम जीते हैं लेकिन जब वह हमारी नींद खराब करने लगे व सुख-शांति के बीच आकर सवाल खड़ा करे अथवा बोझ बन जाये तो उसे हमें ढोना पड़ता है। हमारे रिश्ते भी कुछ इसी तरह के हो गये थे।
बखूबी मैं जावेद को अब समझने लगी हूं। वह मेरे करीब आना चाह रहा है। उसकी मंशा को ले मेरे परेशान होने की वजह है।
इस बीच मैं जानबूझ कर मायके चली गयी। जावेद भी कालेज में पहुंच गये। वह अक्सर मुझे खत लिखते, ‘भाभी जान! आपके बिना मन नहीं लग रहा है। अगर आप यहां न आयीं तो मेरा रिजल्ट खराब हो जायेगा। प्लीज भाभी जान, परीक्षा के पहले घर लौट आइए! प्लीज। मैं आपके आने की राह देख रहा।’
एक रोज मेरे शौहर मुझे बुला लाये और तबसे मैं ससुराल में ही रहने लगी और मेरे शौहर काम की तलाश में कलकत्ता चले गये। तब से वे वहीं रह रहे हैं।
इधर, जनाब जावेद कालेज में जाने के बाद और ज्यादा बदल गये। शायद यह उनकी संगति का ही असर है। कुछ समय से मैं देख रही हूं, पढ़ाई में उनका मन नहीं रम रहा, जनाब शेरो-शायरी में अधिक रस ले रहे हैं। अब धरती पर उनके पैर नहीं पड़ते। आकाश में उड़ने लगे हैं। इश्क-मोहब्बत में रुचि रखते हैं। मानो पढाई-लिखाई उन्हें काटने दोड़ती हो! ‘जनाब, जावेद अली! अभी आप हवा में उड़ रहे हैं। जब आपके सिर पर ओले गिरेंगे, तब आपको पता चलेगा कि रात-दिन कैसे गुजरते हैं।’ उसकी ढिठाई पर मैं रंज जधहिर करती हूं। जावेद मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझ से पूछता है, ‘भाभी जान, क्या सचमुच ही, शादी के बाद रात और दिन बदल जाते हैं? क्या दिन काला और रात उजला हो जाता है?’ उसने फिर मेरे भीतर झांकने की शरारत की।
श्जावेद! अम्मा सोने चली गयीं। आप भी सोने चले जाओ। उसे यह हिदायत देकर मैं अपने कमरे में सोने चली गयी। मेरे अचेतन मन को जावदे ने अनजाने ही इस कदर कुरेद दिया कि मैं बेचैन हो गयी। अशरफ के साथ बिताये मधुर लम्हों की याद मुझे सताने लगी। मेरी स्मृतियों में मेरा अशरफ ’ फिर लौट आया और मैं उसकी बाहों में समा गयी। बदन में एक अजीब -सी सिरहन होने लगी।
एक औरत के जीवन में उसके शौहर के मिलन का सुख सभी सुखों से ऊपर होता है। मर्द का ईमानदार स्पर्श औरत की ताकत होती है, जबकि उसका अविश्वास औरत को कमाजोर बनाता है। अर्से बाद आज शबनम अशरफ के स्पर्श को महसूस कर पुलिकत हो रही है। उसके आलिंगन-सुख में वह भीग रही है। उसकी नींद मानो गायब हो गयी हो। अशरफ की कितनी कही-अनकही बातों में वह उलझती रही। स्मृतियों के अथाह समंदर मंे वह अनायास ही पूरी तरह समा गयी।
श्मेरा शौहर अशरफ मुझे बेहद प्यार करता है। उसका कहना है कि अगर यह पापी पेट न होता तो वह एक पल भी मुझसे दूर न जाता। वह हरदम अपने सीने से मुझे लगाये रखता। वह अपनी प्यारी शबनम को सदैव समय के शीत-ताप से बचाता। अपनी पलकों पर बैठाये रहता। यानी कि अपने से दूर नहीं होने देता।’
लेकिन परिवार की आर्थिक तंगी ने इस कदर मेरे अशरफ को मजबूर कर दिया कि उन्हें रोजगार की तलाश में परदेश जाना पड़ा! बढ़ती महंगाई,जावेद की पढ़ाई, अम्मा का अपने खाविंद को रिझाने का मसनूई शौक, घर के खर्चे और ऊपर से ननदों की नयी-नयी फरमाइशों को ले अशरफ अक्सर परेशान रहते। परिवार के बड़े लड़के होने के नाते वह अपना फजधर्् निभा रहे थे। इधर उनकी अनुपस्थिति में जावेद के कदम बहकने लगे थे। वह किसी न किसी बहाने मेरे दिल के करीब आने का यत्न करता। मेरे शरीर में हो रहे कुदरती बदलाव के प्रति उसकी रुचि बढने लगी।’
मैं हर बार उसकी आंखों के मौन निमंत्रण को अस्वीकार करती और वह बार-बार मुझे अपने अभिनव अंदाज से रिझाने का य‘ करते रहता। उसकी आंखों में व्याप्त वासना उसके मन के विकार स्वत: ही प्रकट कर देती। मैं उसके भाव-तरंग को भांप जाती। मेरे भीतर की औरत का चंचल मन डगमगाता जरूर मगर मैं उसे मजबूती से संभाल लेती। अशरफ के विश्वास और परिवार की मर्यादा का मुझे बराबर ही ख्याल बना रहा। मैं अपनी देह व सुंगध को अपने शैहर के लिय संजोय हुए भावी जीवन के सपनों में विचरण करती। रंगों में नहाती। सपनों में तैरती -उतराती। अशरफ हर वक्त मेरे ख्यालों में होते। देह-मन से मैं उनकी हो चुकी थी। उन्हीं के प्रति समर्पित रही। फिर भी चांद की कालिमा ने मेरा स्पर्श कर ही लिया और मैं हमेशा-हमेशा के लिए कलंकित हो गयी। और कलंक भी ऐसा कि जिसका दाग ही न मिटे!’
‘हालांकि इसमें मेरा कोई कसूर भी न रहा। फिर भी मजहबी अभिशाप की मैं शिकार बनी!’
मैं अपनी स्मृतियों के पन्ने पलटने में व्यस्त हो गयी। तभी अचानक मेरे सुखद अहसास के तार टूट गये। जावेद ने आहिस्ते से दरवाजा पर दस्तक दी। दरवाजा पूरी तरह बंद नहीं था, उसे मौका मिला और वह मेरे कमरे के भीतर दाखिल हो गया। उसने धीरे से आवाज लगायी, ‘भाभीजान, मेरी चादर! प्लीज.।’ जावेद की चादर मैंने ओढ़ रखी थी। मैंने आफत टालने को ले बोली, ‘जाकर अम्मा से ले लो। उनके पास दो चादर हैं और मेरी नयी वाली भी उन्हीं के कमरे में पड़ी हुई है।’ यह कहते हुए मैंने अपने बेपर्द अंगों को चादर में समटने की कोशिश करने लगी।
अपनी ओर जावेद के बढ़ते कदम की आहट पाकर अन्यमनस्क भाव से मैंने करवट ली। मगर जावेद रुका नहीं। दरअसल उसकी नीयत में खोट थी। वह मेरे करीब आ गया और मनुहार करते हुए बोला, श्भाभी जान! मुझे तो वही चादर चाहिए जिसमें आपकी खूबसूरत देह लिपटी हुई है। मुझे तो आपकी सुंगध वाली मलमल की चादर चाहिए। इसके बगैर आंखों में नींद कहां आयेगी!’
मुझे बदन से चादर हटाते मुनासिब न लगा।
लालटेन की मद्धिम रोशनी में मैंने जावेद के चेहरे का रंग पढ़ लिया। उसके मन के भाव को मैं भांप गयी। जावेद भी अपने बड़े भाई की तरह ढिठाई पर उतर आया। उसके इस अंदाज से मैं बेहद घबड़ा गयी। हालांकि अशरफ की ढिठाई में मुझे एक खास तरह की अनुभूति होती, अतः उनसे कभी डर नहीं लगा।
मैंने उसे समझाने की हर संभव कोशिश की मगर उस पर इसका कोई असर न पडा। वह अपनी जिद पर अड़ा रहा। अंततरू उसने खुद ही लपक कर मेरे जिस्म से चादर खींच ली। जिस्म से चादर के अलग होते ही मैं सन्न रह गयी। अचानक जो हुआ, उसके लिए मैं पहले से बिल्कुल ही तैयार नहीं थी। मैं समझ गयी कि आज कोई न कोई अनहोनी होकर ही रहेगी। उसकी नजरें मेरे बदन पर फिसलने लगीं। दरअसल उसका मकसद, मुझसे चादर लेना नहीं था, चादर तो मात्र एक बहाना था। चादर के बहाने वह रात के अंधेरे में दबे पांव मेरे कमरे में दाखिल हुआ था। वह तुरंत अपनी शरारत पर उतर आया। उसकी धृष्ट नजरें अचानक मेरे उरोजों पर आकर ठहर गयीं। उसकी आंखों में एक अजीब तरह का नशा था।
मैं सहम गयी। मैंने खुद को बचाने की गरज से अपने एक हाथ से वक्ष को ढका तथा दूसरे हाथ से त्रिवली से फिसले हुए कपड़ों को संभालने में लग गयी।
जावेद मेरे सामने निडर होकर खड़ा रहा। मैं बखूबी समझ गयी कि वह मेरी विवशता का फायदा उठाना चाह रहा। उसकी इस ढिठाई पर मैंने अपने तेवर कड़े किये और रंज होकर उसे हिदायत दी। ‘आप यहां से क्यों नहीं जाते? अपनी निर्लज्जता की सारी हदें पार कर रहे हो। मैं दरवाजा बंद करूंगी।’ मेरी नाराजगी से वह बिल्कुल ही विचलित नहीं हुआ। मानो वह दुनिया से बेखबर हो। उसे मेरी हिदायत की जरा भी लिहाज नहीं रही। काम-वासना ने उसे वहशी बना दिया था। फिर उस पर असर होता कैसे! मेरी अवस्था को भांप कर उसने हिम्मत की। वह मेरी ओर फुर्ती से लपका और एक ही झटके में उसने मुझे अपने बांहों में समेट लिया। उसकी मजबूत पकड़ से खुद को आजाद कराने की कोशिश करती हुई मैं चीख पड़ी, ‘बेशर्म कहीं का, जानवर! मैं अभी अम्मा को बुलाये देती हूं।’
इस पर जावेद के नियंत्रण खुद ब खुद ढीले पड़ गये और वह घबराकर दो कदम पीछे हट गया। वह सिर झुकाये मेरे समाने खड़ा रहा और मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सी अपने अस्त-व्यस्त कपड़ों में सुबकती व सिसकती रही।
कमरे से जाते वक्त जावेद ने मुझसे कुछ कहना चाहा लेकिन उसके मुंह से आवाज बाहर न आयी। वह सिर झुकाये कमरे से बाहर निकल गया। मेरी तल्ख आवाज से घर के सभी जन जग गये। खालाजान मेरे कमरे में दाखिल हुईं और रंज लहजे में उन्होंने मुझसे पूछा, ‘क्या बात है? इतनी रात! जावेद यहां क्या कर रहा था?’ उनकी खोजी निगाहें मेरे शरीर पर पड़ी। बड़े इत्मीनान से उन्होंने अस्त-व्यस्त कपड़ों तथा बेतरतीब लटों को देखा और मेरे बिखरे हुए बालों का अर्थ समझने में लग गयीं।
उनका संदेह और पुष्ट हो गया। अक्सर कुत्ते सूंघकर हर बात को समझने का प्रयास करते हैं। लगभग उसी अंदाज में उन्होंने भी मेरी देह को सूंघा। बदन के कपड़ों को अपने हाथ से स्पर्श किया। और भी उन्होंने कई ऐसे सवाल दागे जिनके उत्तर देना मेरे बस में नहीं था। मेरे साथ उनका सलूक बिल्कुल जानवरों जैसा था। दरअसल वह यह समझना चाह रही थीं कि इस तरह कितनी बार मैंने अपनी आबरु से गैर मर्दों को खेलने की इजाजत दी है। कितनी बार!
खालाजान एक के बाद एक सवाल दागने लगीं। मैं बेहद सकपका गयी थी। उनके बेतुके सवालों का सामना करना मेरे लिए बेहद कठिन था। जावेद को बचाते हुए मैं, बोली, उनकी किताब मेरे कमरे में रह गयी थी। इतनी रात बीते किताब पढ़ने की सूझी, सो आये थे अपनी किताब लेने और चादर को लेकर मुझसे झगड़ा हो गया। बस, इतनी-सी बात है। बस, इतनी-सी!’
मगर खालाजान को मेरी बातों पर यकीन न हुआ। मैंने गौर से देखा, उनके चेहरे का रंग जरा बदला-बदला-सा नजर आया। उनकी जुबान में तिक्तता थी। मेरे जिस्म के हर अंग पर वह अपनी नजर बार-बार गड़ातीं और फिर बड़बड़ाने लगतीं। जबकि वह खुद भी अपने जीवन में दो बार तलाक के दर्द से गुजर चुकी थीं। अपनी प्रौढ अवस्था को पार कर चुकी खालाजान खास-खास नारी अंगों की अहमियत बखूबी समझ सकती थीं। जाहिर है अनुभव के मामले में वह काफी आगे निकल चुकी थीं। अपनी तल्खी का इजहार करते हुए बोलीं, ‘तुम्हें शर्म नहीं आयी झूठ बोलते। अपनी चाल-चलन ठीक करो! आबरू से बड़ी कोई चीज नहीं होती। तुम्हारे लछन तो पहले से ही मुझे ठीक नहीं लग रहे थे। तुम्हारे मरद को परदेश गये अभी साल भर भी नहीं हुआ कि तुम्हारे पांव बहकने लगे। तुम्हारी तरह हम भी एक दिन जवान थी। तुमसे भी अधिक खूबसूरत। पर पुरुष ने कभी मुझ पर हाथ नहीं डाला। अगर औरत सह न दे तो किसी गैर मरद की क्या हिम्मत जो हाथ लगा दे।’ उन्हें जो भी भला-बुरा कहना था, सो जी भर कर कह लिया। उनकी निगाह में मैं ही कसूरवार थी। किसी के सामने मैं अपनी कौन -सी सफाई पेश करती जब मैंने कोई गुनाह ही नहीं किया था। एक भेद मेरी दृष्टि मुझ पर डालते हुए वह कमरे से निकल गयीं।
भोर होते न होते अम्मा भी मुझ पर बरस पड़ीं, ‘कुलबोरन’ कहकर उन्होंने मुझे संबोधित किया। ‘जग हंसाई’ कराने का मुझ पर आरोप लगा। मेरी ननदों ने मुझे चरित्रहीन कहा। ससुर ने मुझे देखते ही घृणा से मुंह फेर लिया और जावेद बिना किसी को कुछ बताये घर छोड़कर कहीं चला गया। पूरे गांव-जवार में इस घटना की विकृत चर्चा चल पड़ी।
मर्द चाहे कुछ भी करें, उन्हें कोई दोष नहीं देता। मगर औरत की देह सफेद चादर की तरह है जिस पर आब का हल्का छींटा भी अपना दाग छोड़ जाता है और दाग भी ऐसा जो कभी मिटता ही नहीं। बेशक खुद मजहब और शरीयत ही उसके सारे कुकर्मों की हिफाजत करते हैं। पहरेदारी करते हैं। औरत हिली-डुली नहीं कि उसके दामन में दाग लग जाते हैं और दाग भी ऐसा जो कभी धुलता नहीं। मर्दों की बनायी शरीयत की इस बेरहम दुनिया में औरत नाचीज है। मैं अपने ही घर में नाचीज बनकर रह गयी। सबके ताने सुनती रही। एक रोज मेरे जेहन में आया कि अम्मा को सब कुछ सच-सच बता दूं। पर जावेद की रोनी सूरतका ख्याल कर मैं चुप रह गयी। दरअसल मैं नहीं चाहती थी कि इसे लेकर अशरफ और जावेद के बीच दरार पैदा हो और दोनों भाइयों के बीच उनकी दुश्मनी की मैं अहम् वजह बनूं। हालांकि मेरा चुप रहना ही मेरी मुसीबत की वजह बनी। मैं चुप रहकर भी अपने पाक साफ दामन को कलंकित होने से न बचा सकी। जिसे मैंने स्नेह दिया, प्यार दिया, जिस पर मैंने इतना विश्वास किया- वह सूरत इस कदर विकृत होगी!’ यह सोचकर मैं अन्दर ही अन्दर पीड़ा महसूस करती रही।
इस बीच घटना की खबर पाकर मेरे शौहर भी कलकत्ता से घर लौट आये। उनका तेवर पहले से काफी बदला हुआ नजर आया। जिस शौहर पर मैं गुमान करती, जिसे लाखों में एक समझती और न जाने कितनी रातें हमने एक दूसरे के जिस्म को देखा-परखा था और जीवन-सुख का अनुभव किया था, उस मर्द को भी मैं कहां समझ पायी! उसने भी मुझसे मुंह फेर लिया। जबकि उन पर यकीन था। सोचा था, उन्हें अपने विश्वास में ले लूंगी। उनके विश्वास की डोर को कभी टूटने न दूंगी। चाहे मुझे और कोई न समझे मगर वह जरूर समझेंगे। मगर ऐसा न हो सका। शरीयत के कानून आदमियत पर भारी पड़ी।
अशरफ! अर्थात् मेरे शौहर यकीनन मेरा साथ देंगे और हम दोनों एक साथ मिलकर सारी मुसीबतों का सामना करेंगे।’ अंततरू मेरा यह विश्वास भी टूट गया। एक मर्द की बनायी शरीयत के आगे मैं हार गयी। मेरे देवर के स्पर्श मात्र से मेरा सतीत्व कलंकित हो चुका था।
मगर मेरे शरीर के हर अंग से खेलने वाला मेरा शौहर अशरफ अब भी पवित्र बना हुआ था। जाहिर है कि गध्ैर औरत के स्पर्श से कोई मर्द कभी भी अपिवत्र नहीं होता। अपवित्र तो सिर्फ औरत ही होती है!
चूंकि मैं अपवित्र हो चुकी थी, इसलिए अब अशरफ का मेरे साथ रहना मुमकिन नहीं था। वह दूसरी शादी का मन बना चुके थे। हालांकि मैं यह समझती हूं, कोई भी जगह किसी के जाने से खाली नहीं होती। अशरफ मुझे तलाक देना चाहते हैं। वह अपने जीवन से मुझे निकाल बाहर करना चाह रहे हैं। वर्षों के देह-मन के रिश्तों को वह एक ही झटके में तोड़ देना चाह रहे हैं।
वह बेरुखी से बोले, तुम्हारा साथ अब कतई मुमकिन नहीं रहा। मैं तुम्हें तलाक देने आया हूं। तुम अपने जीवन का फैसला कर लो।’ यह सुनते ही मेरे शरीर का रोआं-रोआं कांप गया।
मैं घबड़ा कर बोली, ‘आप भी मुझ पर संदेह करने लगे! इस घर को छोड़कर मैं कहां जाऊंगी!’ मेरा गला इतना भर आया कि इससे आगे कुछ कहते न बन पड़ा। तभी अम्मा बड़बड़ाने लगीं, तुम्हारी वजह से मेरा जावेद घर छोड़कर चला गया। तुमने उस पर ऐसा जादू का जाल बिछा दिया कि। मैं और बखेड़ा घर में खड़ा करना नहीं चाहती। जग हंसाई तो तूने करवा ही दी। हम मोहल्ले में मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहे। अब तुम इस घर में नहीं रह सकती। समझी?’ फिर उन्होंने पलटकर अपने बेटे को हिदायत दीं, ‘अशरफ तुम भी दो टूक कान खोल कर सुन लो, अगर इस कुलछनी से तुम्हें ज्यादा मोहब्बत है और इसे तलाक नहीं दे सकते तो इसे लेकर मेरी आंखों से कहीं दूर चले जाओ। हम अपने बूते अपना गुजारा कर लेंगे।’ अशरफ ने अम्मा का कोई जवाब नहीं दिया। वह चुप रहे।
आफत तो आ ही चुकी थी। मैं चुप रहने के सिवाय और क्या कर सकती थी! हालत बिगड़ती ही चली गयी। एक दिन मेरे अब्बा को बुलाकर उनके हवाले मुझे कर दिया गया। सो मैं मायके में ही रहने लगी। मेरे हाल को देख कर अब्बा भी परेशान हो गये। अम्मा सब समय किच-किच करतीं। भाई व भाभी बेरुखी से पेश आते।
अब्बा पर घर-गृहस्थी का बोझ था। आय का कोई दूसरा जरिया नहीं था। मैं भी उन पर एक बोझ बन गयी। इसी फिध्क्र में अब्बा के चेहरे बदरंग होते चले गये। एक रोज मेरे छोटे भाई ने अब्बा को राय दी कि क्यों न जावेद को पंचायत में बात खुलासा करने को कहा जाय। आखिर बदनामी तो ऐसे भी हो रही है, वैसे भी होगी। भाई की राय अब्बा ने मान ली। मेरी ससुराल में ही पंचायत बैठायी गयी। भरी महफिल में मेरे अब्बा को बेईज्जत होना पड़ा। अब्बा इस बेइज्जती को बर्दास्त न कर पाये और फिक्र के मारे महीना बीतते न बीतते इस जहां से रुख्सत हो गये। इस घटना के बाद से मैं बिल्कुल निसंग हो गयी। अब घर के एकांत कोने में बैठे रहना ही मेरी नियति बन गयी है। अम्मा की बेरुखी तथा भाई की बढ़ती नाराजगी मेरे लिए असह्य होने लगी।
आज सुबह से ही परेशान हूं। मन उजड़ा-उजड़ा -सा लगने लगा है। जीवन की निश्चयता भी प्रायरू खत्म होने की कगार पर है। कहीं कोई रोशनी नहीं दीख रही। हर ओर अंधेरा ही अंधेरा है। अल्लाह की बनायी इस दुनिया में मुझे कहीं भी इनसाफ नहीं दिख रहा तो क्या इसमें भी मेरा ही कुसूर है! मेरे सवालों का जवाब क्यों कोई देना नहीं चाहता! क्या मजहब की बुनियाद इतनी कमजोर हो चुकी है। फिर किसके सहारे मन में जीने की उम्मीद जागे। एक-एक कर सभी किनारे कटते ही जा रहे! क्या ठिकाना, कब किस बहाव में बह जाऊं! कोई तो नहीं, जो मुझे बहने से रोक सके।
अब्बा को गुजरे हुए कोई साल भर हो गये। घर के सभी कार्य पूर्ववत् ही चल रहे हैं। रही बात मेरी जिंदगी की, खैर वह भी अपनी रफ्तार से घिसट रही है।
आदमी किसी की प्रतीक्षा कर सकता है मगर वक्त कभी किसी की प्रतीक्षा नहीं करता और हम इतने मजबूर हैं कि वक्त के साथ चल नहीं पाते! यही कारण है कि वक्त आगे बढ़ जाता है और हम पीछे छूट जाते हैं।
मेरे बाल सफेद होने लगे हैं। असमय ही चेहरे पर झुर्रियां दिखने लगी हैं। यह वही शरीर है जिससे हर कोई लिपटना चाहता था! मगर आज सब मुंह फेर रहे हैं। आंखों के नीचे गहरी काली लकीरें उभर आयी हैं। मेरे वे नयन-रक्त डोरे जिनके कारण जावेद ने अपनी सूझ-बूझ खो दी, दर्पण अब दिखते ही नहीं! जाहिर है मैं किसी को नहीं लुभा सकती। देह सूखकर लकड़ी बन गयी है। वह भी किसी काम की नही रही। फिर भी अशरफ के साथ मेरा रिश्ता है। मगर आज मेरा यह रिश्ता भी खत्म हो जायेगा। उन्हें शौहर कहने का मेरा हक भी आज के बाद नहीं होगा, कारण कि मेरे शौहर आज अपने चचा के साथ आये हैं मुझे तलाक देने। उनके साथ ही मौलबी साहब भी आये हुए हैं। सुना है, सातवीं कक्षा में पढ़ रही अपनी लड़की से अशरफ का निकाह करना चाहते हैं। सब लोग पूरी तैयारी के साथ आये हैं। अशरफ यानी कि मेरा शौहर अपने चचा की लड़की सेे निकाह करेगा और इसके लिए जरूरी है कि वह पहले मुझे तलाक दे।
मैं निर्दोष हूं। बिल्कुल निर्दोष। तलाक के पहले मैं अशरफ को यह विश्वास दिलाना चाहती हूं। कारण कि खुद को निर्दोष साबित किये बगैर मेरी रुह को चैन नहीं मिलेगा। भाई मेहमानों को मना रहे हैं। मगर मेहमान मानने को तैयार नहीं हैं।
श्हम लोग यहां अपनी खातिरदारी कराने के लिए नहीं आये हैं। अशरफ तलाक देगा, फिर हमलोग यहां से चले जायेंगे। अशरफ के चचा ने कड़े शब्दों में कहा। न जाने कहां से मुझमें इतनी हिम्मत आ गयी। मैं पर्दे की ओट से निकलकर सामने आ गयी और अशरफ से इस बेइंसाफी की वजह साफ शब्दों में बयान करने की बात पर अड़ गयी। मेरे शौहर के कुछ बोलने के पहले ही उनके चचा मुझ पर बरस पड़े । ‘तुम्हें शर्म आनी चाहिए! मगर तुम पंचों के सामने जुबान चलाती हो। गंदी व बदचलन औरत!’अशरफ के चचा बेशर्मी पर उतर आये। इस पर मेरे भाई ने एतराज जताया। मेरी बहन बिल्कुल पाक दामन है। आप अपनी जुबान पर लगाम दें। बर्ना।’
‘बर्ना क्या, बाहर निकल कर देखो कि लोग-बाग क्या कहते हैं। कितनों की जुबान पर तुम लगाम लगाओगे?’ इस पर भाई चुप हो गये। चचा बोलते रहे, ऐसा तुम्हारा मानना हो सकता है। लेकिन जो हकीकत है, उसे तुम झुठला नहीं सकते। शक के हाथ पैर नहीं होते। और तुम्हें यह जानना चाहिए कि इस्लाम में अगर कोई तलाक चाहे तो बस बात यहीं आकर खत्म हो जाती है। न वकील न आईन-अदालत। अल्लाह के बनाये हुए नियम व कधनून पर कोई सवाल नहीं खड़े किये जा सकते। यह बात तुम्हें समझनी चाहिए और अपनी बहन को भी तुम्हें समझा देना चाहिए। यह रहा मोहर! इसे लो और अपनी बहन को थमा दो।’ शरीयत की दुहाई देते हुए मौलबी ने मोहर की रकम आगे बढ़ा दी। मुझे लगा कि किसी ने अचानक ही मेरे सीने में खंजर घुसा दिया हो। मेरी जुबान अनयास ही बंद हो गयी। मेरे भाई भी चुप हो गये।
मेरे शौहर अशरफ ने मौलबी साहब के वाक्य दुहराये, ‘मैं अशरफ वल्द अहेदुर रहमान शबनम वल्द अकबर हुसैन को चार गवाहों तथा तुम्हारे भाई की मौजूदगी में खुदा के बताये हुए नेक रास्ते पर फरमाने इलाही की खातिर शादी जैसे पाक साफ बंधन तथा करार को तोड़ने के कारण मैं तुम्हें एक, दो, तीन एकै बाद दीगेर तलाक देता हूं।’
मेरे शौहर तलाक देकर चले गये। मैं काफी देर तक उसी जगह जस की तस खड़ी रही। उस रोज घर में चूल्हा नहीं जला। अम्मा विलख-विलख कर खूब रोयीं और फिर अचेत -सी बिस्तर पर पड़ गयीं। वह किसके आगे फरियाद करतीं!
अब तो कटी हुई पतंग की तरह दिशाहीन जिन्दगी है मेरी! किससे न्याय के लिए फरियाद करूं! मेरे साथ जो कुछ भी हुआ, उसे सोचकर मैं हैरान हूं। अल्लाह के इंसाफ पर मुझे शंका हो रही है। शरीयत के नाम पर कितने अनर्थ किये जा रहे! मैं कोई गुनाहगार नहीं हूं फिर भी मुझे सजध दी गयी! मैं जानती हूं, मेरी जिन्दगी की रोशनी हवा के एक हल्के झोंके से कभी भी बुझ सकती है और मेरे भाई मुझे दफनाकर अपना फज्र अदा कर देंगे। मगर मेरे उन सवालों का क्या होगा? मेरे जीवन को किसने नरक बनाया? मेरी सुख-सपनों को किसने छीना? अल्लाह ने अथवा निहायत एक मर्द द्बारा बनायी गयी शरीयत ने? या फिर दोनों ने? कौन देगा, जवाब! क्या मेरे प्रश्न अनुत्तरित ही रह जायेंगे?

— डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह

संपादक, ‘आपका तिस्ता-हिमालय’
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डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह

सम्पादक, हिमालय प्रहरी