सामाजिक

रंग बेरंग

मनुष्य के जीवन में रंगों का बहुत महत्त्व है ! कभी कभी तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे जीवन मात्र रंगों का खेल है ! देखा जाय तो हमारी पूरी उम्र रंगों के पीछे भागते हुए ही बीत जाती है ! रंगों की चाहत भी अद्भुत होती है, किसी को कोई रंग भाता है तो किसी को कोइ और ! परंतु एक बात तो निश्चित है,सभी के जीवन में ऐसे कुछ रंग अवश्य होते हैं जिनके सहारे वह अपने सपनों को जीवन पर्यन्त रंगता रहता है ! जीवन की सार्थकता समझने की प्रक्रिया भी रंगों की प्राकृति समझने से शुरू होती है ! आपने स्वयं अनुभव किया होगा कि सांसों में उतर कर मन को तरंगित  करने वाले रंग भी कभी कभी बुझे बुझे से लगाने लगते हैं ! यह भी आवश्यक नहीं कि किसी को सुन्दर लगने वाला रंग सभी को अच्छा ही लगे ! किसी रंग का अच्छा लगना पूर्णतः इस बात पर निर्भर करता है कि आपका मन उस रंग को कितना आत्मसात कर पाता है और आप उस रंग में कितना घुल पाते हैं ! यही कारण है कि पूरनमासी के महल में चांदी के कालीन पर बिखरे हुए दूधिया रंग का आकर्षण कभी मन को शीतलता प्रदान करता है तो कभी काँटों की तरह चुभने लगता है !

रंग बोलते भी हैं, बहुत कुछ कहना चाहते हैं परंतु उनकी भाषा समझने के लिए हमें रंगों सा सात्विक और निष्कपट होना पड़ता है लेकिन हम तो बस उनकी ऊपरी चमक को ही सब कुछ समझ बैठते हैं और उनके अंतर्मन में झांककर कभी देखने का प्रयास भी नहीं करते ! हाँ  इतना अवश्य समझ पाते हैं कि ये रंग ही हैं जो जीवन में इंद्रधनुष बोते हैं वरना जीवन का सूनापन रंगहीनता को गले लगाकर हमारी जिजीविषा को कब का निष्प्राण कर चुका होता ! जीने के लिए कोई न कोई रंग आवश्यक है भले ही वह संगमरमर पर तराशी हुई सफ़ेद रंग की कोई परिकल्पना ही क्यों न हो ! जीवन का अभिप्राय ज़िन्दगी के कैनवास पर उन अनबोलते सपनो को उकेरकर उनमें अपने मनपसन्द रंगों को भरना होता है जिन्हें हमारी मन की आँखें देखती हैं ! बिना रंगों के जीवन की कल्पना करना वीरान खँडहर में गुमसुम बैठे हुए उस मनुष्य की तरह होगी जो प्रतिपल निराशा के गहन अँधेरे में डूबता जाता है !

प्रकृति ने भी अपनी संरचनाओं में रंगों का भरपूर उपयोग किया है जैसे उसे इस बात का पूरा   अनुमान था कि मनुष्य को निराशा से बचाने का एक मात्र यही एक विकल्प है ! जरा सोचकर देखिये अगर रंग नहीं होते तो प्रकृति का आँगन कितना सूना होता,सारी धरती पथराई  सी लगती,आकाश रोया रोया सा और  पेड़, पौधे, फूल फल, पशु, पंक्षी सब कुछ बुझे बुझे से होते ! जीवन जीवंत नहीं दिखता,आँखें ढूंढते ढूंढते थक जातीं पर कहीं कोई बसंत नहीं दिखता ! प्रकृति ने रंगों का सृजन और उनका उपयोग बहुत सोच समझकर सावधानी पूर्वक किया है ! हर रंग के पीछे एक अभिप्राय है, उद्देश्य है, परन्तु हम मनुष्यों ने इन्हें ‘रंग’ से अधिक ‘कभी  कुछ नहीं समझा ! हमने हर युग में रंगों का चमकीलापन तो देखा,आकर्षित भी हुए परन्तु इनके अंतर में छुपे हुए भावों को कभी पहचान नहीं पाए !
हम रंगों के पीछे बेतहाशा भागते हैं परंतु यह कभी नहीं समझ पाते कि वह कौन सा रंग है जिसे हमें अपने जीवन में उतारना है ! रंगों में उलझ कर हमारा वास्तविक रंग धूमिल पड़ने लगता है परंतु हमारे विचारों की शुद्धता को प्रमाणित करने वाला रंग, हमारी पहचान की गरिमा को परिभाषित करने वाला रंग हमें नहीं मिल पाता ! सफ़ेद रंग को सच्चाई और नैतिकता का आधिकारिक आदर्श मानकर हम उसे बड़े गर्व से धारण तो लेते हैं परंतु कभी विचार नहीं करते कि जब मानवता का कलंकित रंग इस पर पड़ता है तो इसकी आत्मा कितनी तड़प जाती होगी !  बदन पर रंगों की शहस्त्र परतें चढ़ा लेने के बाद भी अगर रंगों की छुवन आत्मा को स्पर्श नहीं करती तो सब निरर्थक है ! अगर हम मनुष्य हैं तो निश्चय ही हमें मनुष्यता के रंग भाने चाहिए परंतु आज जिस प्रकार लोग चमकीले रंगों के पीछे भाग रहे हैं उसे देखकर ऐसा लगता है जैसे हम बस मुर्दा रंगों को ओढ़कर मनुष्य होने की सार्थकता सिद्ध करने की प्रक्रिया में जी रहे हैं !

समय के साथ मनुष्य ने रंगों का उपयोग अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिए करना शुरू किया ! सबसे पहले तो रंगों को बांटकर उनके बीच द्वेष की दीवार खड़ी कर दी फिर उनके नाम पर आपस में लड़ने लगे ! रंगों की आड़ में अपने कुत्सित स्वार्थ और अहंकार को युगों तक साधते रहे ! कभी चेहरे के रंग तो कभी विचारों के रंग ,कभी मिटटी के रंग तो कभी पानी के रंग ! रंगों के भेद पर इतनी लड़ाईयां हुईं कि लोग लहू और पानी के रंग में अंतर करना भूल गए ! बेचारे रंग बेबस खड़े सारा खेल देखते रहे ! वो मनुष्यों के बीच पिसते रहे ! काला रंग गोरे रंग के काँधे पर सर रखकर सुबकता रहा,चीखता रहा कि हम दोनों एक ही हैं, हमारे नाम पर इस द्वन्द को बंद करो परंतु उसकी बात किसी ने नहीं सुनी !
वर्चस्व और अहंकार के नशे में चूर जब भी सरहद पर खूंखार टैंकों का उबलता हुआ बारूद मानवता को लहूलुहान करता है तो मिट्टी का रंग तार-तार हो जाता है,धरती कांप उठती है, तब माटी का रंग बेरंग होकर बार बार यही कहता है कि “सरहद के दोनों तरफ एक ही रंग है इसे लहुलुहान मत करो वरना आने वाली पीढ़ियाँ लहू के रंग को छोड़कर कोई दूसरा रंग कभी नहीं पहचान पायेंगी परंतु विध्वंस के नर्तन के पुजारी उसकी बात अनसुनी कर देते हैं !
आज दुनिया का मिलावटी रंग देखकर ये रंग भी हतप्रद हैं ! मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए रंगों की परिभाषा ही बदल दी ! जाति,धर्म,समुदाय,भाषा और क्षेत्र को अलग अलग रंगों में रंग कर अपने चेहरे पर मनचाहे रंगों की मोटी परत चढ़ा ली ! भोले भाले रंगों की बची खुची सच्चाई और अस्तित्व उस दिन पूरी तरह समाप्त हो गया जब अपनी गरिमा को अक्षुण रखने वाले इन रंगों पर द्वेष,अहंकार, लालच,शोषण,प्रतिशोध और आतंक का कलुषित और जहरीला रंग चढ़ाकर इन्हें अपना रंग बदलने को विवस किया गया  ! इन्हें विश्वास नहीं हुआ  कि जिन मनुष्यों के लिए इन्होंने फुलवारियां उगाईं वही इनके साथ इतना बड़ा छल कर रहे हैं !
आज भी जब कभी इनकी असहनीय पीड़ा इनकी आँखों में उमड़ने को तड़पने लगती है तो ये बादलों की गोद में चले जाते हैं और जी भर के रोते हैं परंतु इनके विश्वास का सूरज कभी मद्धिम नहीं पड़ता ,अगले ही पल ये इंद्रधहनुष बनकर फिर खुशियां बरसाने लगते हैं ! कुछ देर बाद इंद्रधनुष तो विलीन हो जाता है परंतु वहां आकाश में बिखरे हुए रंग अपनी पहचान और सात्विकता को प्रमाणित करते हुए सत्य, अहिंसा, शांति सद्भाव और स्नेह का उद्घोष करते हुए पूरी दुनियां पर छा जाते हैं और मनुष्य से पूछते हैं जीवन के सार्थक रंगों को बेरंग करके आखिर उन्हें क्या मिला ?
ज्ञानचंद मर्मज्ञ

ज्ञानचन्द मर्मज्ञ

संपादक, साहित्य साधक मंच,बंगलुरु ! मो. 09845320295 ईमेल: [email protected]