लघुकथा

“विकास का वोट”

चुनाव हमारे जीवन का अंग बन गया है जो आए दिन कहीं न कही, कभी प्रादेशिक तो कभी राष्ट्रिय त्यौहार बन आता ही रहता है। यह जब भी, जहाँ भी आता है वहाँ के लोगों की सक्रियता बढ़ जाती है। हर घर में कोई न कोई वक्ता स्वयं उठ खड़ा होता है और किसी का दामन पकड़ कर मुंह फाड़ने पर बाध्य हो जाता है, इतना ही नहीं वह लोकतंत्र का सच्चा सिपाही भी बन जाता है। खासकर ये लोग चौराहे पर भटकने वाले होते हैं जो सबकी कुंडली में बैठे अनसुलझे ग्रहों को जीत वाले घरों में बैठाने लगते हैं। खुद एक समस्या बने हुए गुमराह ये लोग, नेताओं की वादा खिलाफी को तिल का ताड़ बनाकर विरोधियों को दनादन पटकनी देने लगते हैं। मजा आता है लोगों की अपने आप से बेवफाई करते देखकर, न नौकरी, न कल कारखाने, न सड़क, न बिजली- पानी कुछ भी तो नहीं है इनके आगे पीछे, हाँ अगर कुछ है तो उसे भौकाल कहते हैं और सारे भौकालियों के माथे पर चुनाव का भार ऐसे चढ़ जाता है मानों शनि की साढ़ेसाती चढ़ गई हो। बात- बात पर हाथापाई और गाली-गलौज देखते ही बनता है। जिनसे गर्ज पर जुड़े हुए हमारे माननीय नेता भी कम नहीं है, उनका तो काम बोलता है और विकास का नया जुमला, उनकी जुबानी चुनावी घोसड़ा पत्र में आधिकारिक रूप से छप जाता है। हाँ, एक खास बात…..अगर आप भूल से किसी नेता का चुनावी भाषण सुनने पहुँच गए तो हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाएंगे और हास्य कवियों को भूल जाएंगे।मज्जा ही मज्जा है चुनाव के पावन पर्व में, भले न देश की आर्थिकी रसातल में चली जाय।हमें क्या, हम तो एक ही बात जानते हैं कि देश का लोकतन्त्र मजबूत हो और आम जनता इसमे अपनी, अरेरे भूल हो गई…..अपने वोट की आहुति दे…..इस अधिकार का अधिकार सहित पालन हो, बाकी सब कुछ अधिकार युक्त तो है ही……..
घर में चुनावी माहौल की बातें सुन-सुनकर अट्ठारहवें बसंत को पार कर गई कजरी का नाम भी इसबार वोटर लिस्ट में आ गया है। इस बार वह भी वोट की पूजा में उत्साह से भाग लेगी और अपने ऊपर नाबालिकों द्वारा हुए यौन शोषण का बदला लेगी। जिसकी कराह से गाँव तो हिला पर प्रशासन मगरमच्छ की तरह मुंह बाए सुस्त ही पड़ा रहा। साथ में उसकी विधवा भाभी भी बटन दबाएगी जिसका रोगी पति को अकारण 307 का मोल्जिम बना दिया गया और वह सजा काटते-काटते मर गया। बूढ़ा बाप, चारपाई पर लेटे-लेटे मतदान करेगा जिसकी दोनों आँखें मोतियाविंद के आपरेशन में ब्लॉक के स्वास्थ केंद्र की लापरवाही में भेंट चढ़ गई। ऐसे दिनों में अगल-बगल के लोग ही पाटीदार व साथी बन जाते हैं, बगल में रहने वाली कजरी की सगी छोटकी चाची भी अपने नन्हें बच्चें को गोंदी में उठाये मतकेंद्र की शोभा बढ़ाएगी जिनकी पहली प्रसूती रोड पर गाडी के गड्ढ़े में कई किलोमीटर चलने से हो गई थी। ऐसे समाचारों को इक्कीसवीं सदी में जानने-बूझने के तमाम साधन हैं, वाट्सएप, फेसबुक इत्यादि इत्यादि पर यह ताज़ी बातें हमने चाय की दूकान पर चुस्की के दौरान पाई है……जो भी हो चुनाव का बार-बार होना, कईयों के लिए फायदे की बात तो है जो किसी विकास से कम नहीं है, तो आइए हम सब मिलकर विकास का वोट दें और अपने अधिकार का प्रयोग कर सुखी हो जांय……
“दोहा”
मिलजुल कर डालें सभी, अपना अपना वोट
पुलकित पावन देश हो, दें न किसी को चोट।।………..

हरपल खुशियाँ ही रहे, अपने अपने बूथ
हर चुनाव है आप का, पनप न पाए जूथ।।……….

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ