मुक्तक/दोहा

मुक्तक

जिस दिन से मेरी आँखों में हाय ! तुम बस गये हो
ग्लोकोमा ने तो उनमें , अपना घर बना लिया है
ये बीमारी अब अंत तक , साथ मेरा निभाएगी ,
बावफ़ा हैं , इसी रिश्ते से हमने जता दिया है !
दंगे – फ़साद करके तुम , क्यों लहू बहाते हो ?
नीच कर्म करके अपनी तुम , जात दिखाते हो ?
सफ़ेद लिबास में भी तुम , कर्म करते हो  काले
खाई में गिर खुद को उच्च कोटि के  बताते हो !
— रवि रश्मि ‘अनुभूति’