कविता

जिस्मों की मंडी

शिक्षित समाज,
ये सभ्य समाज,,,
सब्जी-भाजी की तरह,
लगती है जहाँ,
आज भी…
जिस्मों की मंडी ॥

नज़रें करें,
तोल-मोल ।
कभी छू कर,
तो कभी कुटिल निगाहों से ।
करें अर्धनग्न…
लगाएँ मोल भाव ॥

सफेदपोशी की चादर ओढ़े,
आदमखोर…
बेचें जमीर ।
और वे मजबूर,
लाचार …
तो बस तन ही बेचें ॥

कुछ मजबूरी में,
तो कुछ हो लाचार ।
रोज़ ओढ़ कफ़न,
हो तैयार ,
सब्जी भाजी की तरह …
बिकने के लिए ॥

अंजु गुप्ता

*अंजु गुप्ता

Am Self Employed Soft Skill Trainer with more than 24 years of rich experience in Education field. Hindi is my passion & English is my profession. Qualification: B.Com, PGDMM, MBA, MA (English), B.Ed