मेरे चौथी ग़ज़ल
फर्श से अर्श तक पहुँची हूँ, वापस फर्श तक पहुँचना बाक़ी है।
हक़ीकत देखना है अभी कि अभी तो झूमा रहा मुझे मेरा साकी है॥
जाने से किसी के ख़त्म होता है कहाँ जीने का सिलसिला भी।
कि कुछ न बचा हो तो भी, अभी मैं बाकी हूँ, मेरा वजूद बाकी है॥
क्यों सर-ए-सहर आँखों मे मेरे हसीन ख्वाब उतर आते हैं।
कि शाम बाकी है, दिन ढला नहीं कि अभी तो रात बाकी है।।
यों खड़े हैं ऊँचाई पर कि ज़माना नीचे नज़र आता है।
ज़माने से ही तो हम हैं, भला नज़रों कि ये क्या चालाकी है॥
क्यों एक ही ज़मीन की तरह मिलते नहीं हम गले लगकर।
क्यूँ ये रंजिशें हैं, क्यों सर-ए-सरहद पर फैला रंग खाकी है॥
उफ ये क्या कह दिया मैंने, क्यूँ कि अमन की कोई बात।
कैसी नादान हूँ मैं, मेरे बातों में ये कैसी अजब सी बेबाकी है॥
चंद लम्हे गुज़ारे हमने यहाँ, और कुछ साँसें भर बची हैं।
बहुत नहीं अभी कि पर्दा उठने में अब कुछ ही देर बाकी है॥
कौन आया था साथ मेरे कि साथ मेरे अब जाएगा वापस।
तो खुदी से पूछा रेणुका कि सफर ऐ हमसफर कितना बाकी है॥
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