कहानी

मैं किसी की जेब-वेब में नहीं रहती..

शाम को आफिस से लौटकर अपने आवास में पदार्पण करते समय मैं मोबाइल फोन पर बात भी कर रहा था। बात समाप्त होने पर देखा, फोन के स्क्रीन पर श्रीमती जी का नम्बर दिखाई पड़ा, लेकिन मैंने काल पर प्रेस नहीं किया तथा फोन को वैसे ही, यह सोचते हुए, अपनी पैंट की जेब में रख लिया कि, अभी थोड़ी देर बाद रिलैक्स होकर फोन कर लेंगे। इसके बाद किसी काम में व्यस्त गया तथा फोन के बारे में भूल गया। कुछ क्षणों बाद मेरे कानों में एक महीन सी “हलो-हलो” की आवाज सुनाई पड़ी। यह आवाज मेरे जेब में पड़ी मोबाइल फोन से आ रही थी। देखा, श्रीमती जी की ही काल थी…मैं समझ गया कि मोबाइल के टच-स्क्रीन पर टच हो जाने से काल चली गई होगी।
जेब से फोन निकाला और मैं भी “हलो-हलो” करने लगा। उधर से श्रीमती जी की आवाज आ रही थी “तुम्हें मेरी आवाज सुनाई नहीं पड़ रही है क्या? इतनी देर से हलो-हलो कर रही हूँ…!” मैंने कहा, ” नहीं..ऐसी बात नहीं..असल में यार! तुम्हारी आवाज मेरे जेब से आ रही थी..” मेरे इतना कहते ही वह तपाक से बोली, “सुनो! मैं किसी की जेब-वेब में नहीं रहती कि मेरी आवाज जेब से आएगी..!!” मैंने हँसते हुए कहा, ” अरे भाई! तुम नहीं, मेरा मोबाइल मेरे जेब में था..जहाँ टच हो जाने से काल चली गई होगी ..मैं जानता हूँ..तुम जेब में नहीं रह सकती” खैर, इसके बाद हम दोनों एक साथ हँस पड़े थे।

मैं जानता हूँ, श्रीमती जी अपनी पत्नी की भूमिका के साथ-साथ एक स्त्री होने और इसके सम्मान के प्रति भी काफी सजग और संवेदनशील रही हैं, शुरू से ही मुझे इस बात का इल्म रहा है और इसी वजह से कभी-कभी वे पारिवारिक परिस्थितियों में असहज हो जाती हैं। खैर, फोन पर हमारी वार्ता समाप्त हुई तो मेरा ध्यान उस दिन की उनकी बात पर चला गया।

किसी छुट्टी के दिन जब मैं घर पर होता हूँ तो उनके किचन-टाइम पर मैं भी या तो टी.वी. पर न्यूज देखने या फिर मोबाइल में व्यस्त हो जाता हूँ। अकसर इस बात को लेकर हमारे बीच नोंक-झोंक भी हो जाती है। उस दिन मैंने अपनी इस ज्यादती को भाँप लिया और उनका साथ देने के लिए किचेन में चला आया। भृकुटी टेढ़ी कर उन्होंने मुझे देखा था, जैसे वे कहना चाहती हों, “मैं आपकी चाल समझती हूँ।” हाँ मेरी चाल उनकी डाट से बचने की ही थी, लेकिन वे बोली कुछ नहीं और इधर मैं वहीं किचेन की काली ग्रेनाइट वाले प्लेटफार्म के ऊपर पसर गया था। रोटी बेलते और सेंकते हुए श्रीमती जी हमें बताने लगी थीं..

“जानते हो…वह जो हमारे घर के पीछे के खाली प्लाट पड़े हैं न..कल जब मैं गैलरी में थी तो देखा, एक दुबली-पतली कृशकाय स्त्री वहाँ उगे झाड़ और पेड़ों से सूखी टहनियाँ इकट्ठी कर रही थी…वहीं जमीन पर बैठा एक पुरुष आराम फरमा रहा था…वह उस औरत का पति ही था और दोनों मजदूर ही थे…काफी देर तक, मैं उस औरत को देखती रही थी…अब तक अकेले ही वह औरत लकड़ियों का एक बड़ा गट्ठर तैयार कर चुकी थी…उस गट्ठर को उसने यत्नपूर्वक अकेले ही बाँधा भी और वह औरत मुझे गर्भवती भी दिखी…मुझे उस स्त्री की, इस दशा पर अब तरस आने लगा था…और…इधर लकड़ियाँ तोड़ने से लेकर गट्ठर बाँधने तक उसका आदमी वहाँ बैठा रहा और उसने उस स्त्री की कोई मदद नहीं की थी..! मैंने देखा, उस औरत ने कपड़े की एक गुड़री बनाई और उसे अपने सिर पर रखा, फिर किसी तरह लकड़ी के उस गट्ठर को अकेले ही अपने सिर पर उठाकर रखा…यह सब मुझसे देखा न गया और उसके पास चली गई…”

रोटियाँ बेलते और सेंकते हुए ही श्रीमती जी ये बातें मुझे बता रही थीं। इस दौरान मैं ध्यान से उनकी बात सुन रहा था…बातें मुझमें उत्सुकता जगा रही थी। एक बात और, इस सुनने-सुनाने के बहाने हमारा साथ भी हो रहा था। इधर मेरी दृष्टि सिंकती रोटियों पर भी पड़ रही थी। रोटियाँ आँच पाकर फूलती और जैसे ही फूली रोटियों से भाप निकलता, वे धीरे से पिचक जाती…फिर आगे की बात बताई..

“जैसे ही स्त्री ने गट्ठर अपने सिर पर रखा..मैं उसके सामने खड़ी थी… मैंने उससे पूँछा, “तुम्हारे पेट में कितने महीने का बच्चा है?” उस स्त्री ने सकुचाते हुए बताया, “आठ…नहीं..नौ महीने का..!” आगे मैंने पूँछा, “तुम्हें जाना कहाँ है?” स्त्री का गंतव्य यहाँ से लगभग तीन किमी दूर पड़ता है..मैंने उसे डाटते हुए कहा, “उतार गट्ठर..तुरंत उतार.! तू यह गट्ठर नहीं ले जाएगी” स्त्री ने लकड़ी का गट्ठर अपने सिर से उतार कर जमीन पर रख दिया….
….इधर गुस्से से मैंने घूर कर उसके पति की ओर देखा, जो अब तक उठकर खड़ा हो गया था, मैंने पूँछा “क्यों..तू इसका पति है न?” उसके “हाँ” कहते ही मैंने उसे फिर डाटा, और कहा, “तू तो ठीक-ठाक है! और तू इसका पति भी है?…और…तुम्हारी यह पत्नी गर्भवती भी है न” अब वह सिर झुकाए मेरी बात सुन रहा था… मैंने उससे कहा, “तुम्हें शर्म नहीं आती…यह बेचारी गर्भवती है और कमजोर भी है…तब भी, इसने अकेले ही लकड़ियाँ तोड़ी और गट्ठर बनायी और अपने सिर पर भी रखा…तुमने कोई मदद नहीं की…इस हालत में बेचारी इतनी दूर तक लेकर जाएगी भी..!!” मैंने कहा, “यह नहीं ले जाएगी इस गट्ठर को…इसे तू ले जाएगा..! उठा इसे..! रख अपने सिर पर..!!” अब तक मेरी डाट से सहमा उसका पति गट्ठर को अपने सिर पर चुपचाप रख लिया था और आगे-आगे वह पीछे-पीछे उसकी वह स्त्री.. दोनों वहाँ से चले गए।”

पूरी बात ध्यान से सुन मैंने एक गहरी साँस ली और श्रीमती जी से मैंने बस इतना ही कहा,

“यार, गरीबी की स्थिति में और शारीरिक श्रम करने के कारण इन मजदूर टाइप के लोगों को अपनी संवेदनाओं को भी समझने का मौका नहीं मिलता होगा..!”

मेरी बात पर उन्होंने मुझे ध्यान से देखा और रूखे अंदाज में बोली, “रोटियाँ सिंक गई हैं, खाने की तैयारी करो” यह कहते हुए वे किचेन से बाहर जाने लगीं तो मैं भी उनके साथ पीछे-पीछे किचेन से बाहर चला आया…वाकई! चीजों को बहुत गहराई से समझने की जरूरत होती है।

इधर “नाक से सिंदूर लगाने” की बात पर मुझे ध्यान आया कि इस बात पर हमारे बीच बहुत पहले से ही चर्चा होती रही है। मैंने श्रीमती जी को मजाक में कई बार टोका भी है। ऐसे ही एक बार जब मैंने कहा, “यार, तुम सिंदूर नहीं लगाती, या लगाती हो तो बहुत कम…पता ही नहीं चलता…” इस पर उन्होंने कहा था, “देखिए, हमारा विवाह बचपन में ही हो गया था..तब मेरी दादी कहा करती थी..सिंदूर इस तरह नहीं लगाना चाहिए कि दिखाई पड़े..या फिर सिर को पल्लू से ढँके रहना चाहिए…सिंदूर लगाना दिखावे की चीज नहीं होती..इसे दिखावे की तरह नहीं लगाना चाहिए” आगे उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा, “तभी से मेरी यह आदत पड़ गई है और ऐसे भी, लोग अपनी प्रिय चीज को बुरी नजरों से बचा कर रखते हैं… नुमाइश नहीं लगाते…समझे..!” इसके बाद मैंने इस विषय पर उन्हें फिर कभी नहीं टोंका।

सच है रिश्ते प्रदर्शित नहीं किए जाते बल्कि रिश्तों को जिया जाता है, प्रदर्शन में तो खोखलापन छिपा होता है।

*विनय कुमार तिवारी

जन्म 1967, ग्राम धौरहरा, मुंगरा बादशाहपुर, जौनपुर vinayktiwari.blogspot.com.

One thought on “मैं किसी की जेब-वेब में नहीं रहती..

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी और प्रेरक कहानी !

Comments are closed.