सामाजिक

ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण की सकारात्मक पहल

आख़िर इस देश को हुआ क्या, हर बात पर जाति, धर्म औऱ मजहब आ जाता है। वर्तमान दौर में प्रदूषण वैश्विक समस्या बनती जा रही है, जिसमें कानफोड़ू ध्वनि प्रदूषण काफ़ी अहम भूमिका अदा कर रहा है। ऐसे में अगर उत्तर प्रदेश सरकार ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए सकारात्मक पहल करती है, तो उसे राजनीतिक औऱ मजहबी चश्में से नहीं देखना चाहिए। वैसे राजनीति का काम ही व्यर्थ का बवंडर खड़ा कर अपने पक्ष में हवा का रुख़ मोड़ना होता है, लेकिन अगर देश के लोग भी सही-ग़लत के तथ्यों की तह तक जाए बिना आँख बंदकर किसी के कहने पर दौड़ लगाएंगे, तो चोट तो पहुँचेगी। ध्वनि प्रदूषण। आज के वक्त की बड़ी समस्या नहीं है, क्या? फ़िर बेजा का वितंडा क्यों रचा जा रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार निद्रावस्था में आस-पास के वातावरण में 35 डेसीबेल से ज्यादा शोर नहींं होना चाहिए और दिन का शोर भी 45 डेसीबेल से अधिक नहींं होना चाहिए। ध्वनि प्रदूषण द्वारा जहां हमारे समाज के लोगों को बोलने में व्यवधान, चिड़चिड़ापन के साथ अन्य विकृतियों जैसे – उच्च रक्तचाप, उत्तेजना, हृदय रोग, आँख की पुतलियों में खिंचाव और तनाव आदि का सामना करना पड़ता है। फ़िर भी हमारा समाज धर्म आदि के नाम पर अपने सेहत औऱ स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने को कैसे तैयार रहता है। ऐसे में हमारे समाज को समझना होगा, लाउडस्पीकर आधुनिक प्राधौगिकी की देन है, जबकि धर्म व्यवस्था सदियों से चली आ रही है, दोनों का आपस में कोई तालमेल नहीं। हमें स्वच्छ वातावरण पर ध्यान पहले केंद्रित करना चाहिए। न कि छोटी- छोटी बात में बात का बतंगड़ खड़ा करना चाहिए। कबीर दास का एक दोहा है, कंकर पत्थर जोरि के मस्ज़िद, लियो बनाए। ता चढ़ी मुल्ला बांग दे, का बहरा हुआ खुदाय। क्या भगवान, अल्लाह इतने निरीह हो गए हैं, कि वे अपने भक्तों की अरदास नहीं सुन सकते। भगवान, अल्लाह, रब, खुदा क्या बहरा है, जिसके लिए लाउडस्पीकर पर भजन-कीर्तन और अज़ान पढ़नी पड़े। सूबे की योगी सरकार ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के आदेश पर मंदिर और मस्जिद सभी जगहों पर लाउडस्पीकर बजने पर लगाम लगाने का आदेश दिया है, क्योंकि ध्वनि प्रदूषण भी एक तरीके का प्रदूषण है। जिसकी वज़ह से लोगों की मौत हुई भी है, और हो रहीं है। पर इस दुष्परिणाम को दरकिनार कर तल्ख़ धार्मिक टिप्पणियों का बाज़ार गर्म चल रहा है। जो सामाजिक व्यवस्था के लिए सही नहीं है।

श्रद्धा और भक्ति-भाव किसी बाहरी आवाज़ की मोहताज नहीं होती, ऐसे में समझ नहीं आता। क्या लाउडस्पीकर पर भोंपू बजाने से ही ख़ुदा, अल्लाह प्रसन्न होते हैं। जब ऐसा नहीं तो फ़िर क्यों मंदिरों में धर्मिक स्वतंत्रता का हवाला देकर कीर्तन-भजन औऱ घन्टी साथ में मस्जिदों में अज़ान की जाती है। शायद भोंपू बजाना किसी धर्म के क्रिया-कर्म में नहीं, और शायद ईश्वर, अल्लाह भी नहीं कहते कि हम बिना भोंपू के प्रसन्न नहीं होंगे। इसके इतर किसी धर्म के ग्रन्थों में भी भोंपू बजाने का ज़िक्र नहीं। फ़िर अगर इससे सामाजिक व्यवस्था को सीधे तरीके से नुकसान होता है, तो इस प्रथा को बंद करना चाहिए। अगर परम्परा के नाम पर हम हर बात को ढोते रहेंगे, तो यह कोई अच्छी बात नहीं। वर्तमान समय कोई धर्मयुद्ध का वक्त नहीं, कि लाउडस्पीकर के माध्यम से लड़ा जा रहा है, यह देश की सभी क़ौमों को समझना होगा। क्या भजन-कीर्तन औऱ अल्लाह-हो- अकबर के बीच कोई प्रतिद्वंदता चल रहीं है, नहीं न, औऱ आखिर में कहते हैं, न ईश्वर, अल्लाह सब एक है, फ़िर यह ज़रूरी नहीं कि हमारी अरदास तभी पहुँचेगी, जब हम लाउडस्पीकर पर चिलाएगे? प्रभु और अल्लाह तो कण-कण में बसते हैं, फ़िर उन तक अपनी अरदास पहुचाने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं।

सूबे के मुख्यमंत्री का फ़ैसला सामाजिक और धर्मिक साँचे के हिसाब से लिया गया सटीक फ़ैसला है। कुरान और भजन-कीर्तन मन की शांति के लिए पढ़े जाते हैं, न कि किसी को परेशान करने के लिए, फ़िर लाउडस्पीकर की क्या ज़रूरत? ज़रूरत है, तो समाज के हर तबक़े को अपनी सोच में बदलाव करने की, क्योंकि कुछ धर्म गुरु औऱ मौलबी भोली-भाली आवाम को एक-दूसरे के प्रति भड़का देते हैं, औऱ जिसमें घी ड़ालकर सियासतदार अपनी रोटी सेंकते है। ऐसे में नुकसान किसका होता है, गंगा-जमुनी तहजीब में गोते लगाने वाले समाज का। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का फ़ैसला किसी वर्ग विशेष को ध्यान में ऱखकर नहीं लिया गया है, उक्त फ़ैसले के भीतर सभी धर्म स्थल आते हैं। धर्म और मज़हब निजी मामला है। उत्तर प्रदेश में लाउडस्पीकर पर रोक का मतलब किसी धर्म, वर्ग विशेष की धर्मिक स्वतंत्रता में ख़लल डालना न होकर व्यापक दृष्टिकोण में ध्वनि प्रदूषण को कम करना है। जब ईश्वर औऱ अल्लाह तक अपनी आवाज़ पहुचाने के लिए किसी माध्यम की ज़रूरत नहीं? फ़िर लाउडस्पीकर का प्रयोग किसी भी धर्म के धर्मगुरु क्यों करते हैं? क्या लोगों को एकत्रित करने के लिए। ऐसे में चीख-चीख़कर अगर किसी भी धर्म के लोगों को एकत्रित किया जाता है, तो वह भी संवैधानिक तरीक़े से गलत है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति संवैधानिक तरीक़े से जीवन-जीने को स्वतंत्र है, फ़िर उसकी स्वतंत्रता में ख़लल कोई कैसे डाल सकता है। धर्म औऱ मज़हब किसी पर थोपा नहीं जा सकता। यह अपने अंतःकरण की आवाज़ होती है, किसे कैसे अपना जीवन संवैधानिक दायरे में जीना है।

धर्मस्थलों पर कानफोड़ू आवाज़ में बजते लाउडस्पीकरों पर बॉम्बे हाईकोर्ट जहां पहले ही साफ कह चुका है, कि बगैर प्रशासनिक अनुमति के किसी भी धर्म के लोग लाउडस्पीकर नहीं लगा सकते। साथ में बॉम्बे हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था, कि किसी भी धर्म के लोग मौलिक अधिकार की दुहाई देकर भी लाउडस्पीकर की मांग नहीं कर सकते। मतलब साफ़ है, कि संवैधानिक तरीका भी धर्म के नाम पर कानफोड़ू आवाज़ की इजाज़त नहीं देता। इसके साथ लाउडस्पीकर के इस्तेमाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने भी एक याचिका की सुनवाई में यह आदेश दे चुकी है, कि रात दस बजे से सुबह छह बजे तक लाउडस्पीकर का प्रयोग नहीं हो सकता। रिहाइशी इलाकों में ध्वनि का स्तर सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक 55 डेसीबल से अधिक नहीं होना चाहिए। जबकि व्यवसायिक क्षेत्रों में सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक 65 डेसीबल और रात 10 बजे से सुबह 6 बजे तक 55 डेसीबल तक का स्तर होना चाहिए। इस नियम का पालन न होना पर्यावरण संरक्षण 1986 की धारा 15 के तहत दंडनीय अपराध है। फ़िर भी आज तक इस नियम का पालन नहीं हुआ। नियम भी सख़्त है, इस नियम का उल्लंघन करने पर 5 साल की कैद या एक लाख का जुर्माना या फिर दोनों। फ़िर भी आज भी भोंपू कान का चीरहरण कर रहें हैं। ऐसे में योगी सरकार का फ़ैसला यह साबित करेगा, कि ध्वनि प्रदूषण रोकने में हमारी व्यवस्था कितनी सफ़ल हो पाती है। वैसे आज के वक़्त में ध्वनि प्रदूषण पर काबू पाना वक्त की जरूरत बन गई है। पर यह तब तक संभव नहीं होगा। जब तक समाज का हर तबका अपने प्रति और समाज के प्रति वफादार और सचेत नहीं होगा। इसलिए आवश्यक यह है, कि योगी सरकार के लाउडस्पीकर पर रोक के फ़ैसले को धर्म और समुदाय के चश्मे से न देखकर व्यापक स्तर पर उसके फ़ायदे को देखा जाए। साथ में समाज को ध्वनि प्रदूषण से होने वाले नुकसान से अवगत कराया जाए। इसके इतर अगर ध्वनि प्रदूषण से समाज को निज़ात ही चाहिए, तो सरकार के साथ सामाजिक व्यवस्था को प्रेशर हार्न बंद करने पर बल देना चाहिए। इंजन व मशीनों की मरम्मत समय-समय पर करवानी चाहिए। इसके साथ मेट्रो, गाड़ी आदि से उत्पन्न प्रदूषण पर भी लगाम लगाने की दिशा में कड़ा क़दम उठाना होगा।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896