कविता

जिंदगी….

जिंदगी
बहुत दूर आ खड़ी है
बचपन से निकल कर
उम्र के ढलान पे
ललाट पर खिंची रेखाएं
आंखों के नीचे गहराया कालापन
बता रही है
अब उम्र बताने की जरूरत नहीं
समय ने तय कर दिया है हमारा पता
एक दस्तक मस्तिष्क में खटखटाता
बीत गया वक्त अठखेलियों का
जबकि देह से परे
अंतस आज भी खेलता है भीतर
पाबन्दियों से मुक्त
तलाशता है बार-बार बचपन का मंजर
पर इंशान
बाह्य आरोपों,
समाजिक प्रतिक्रियाओं के भय से
मिटाने का प्रयास करते हैं
अपने अंदर के बाल-मन को
पर वो ताउम्र मिटता नहीं
जब तक शरीर निष्क्रिय न हो जाता
देह त्याग न देता
जागता है वो
जगाता है हमें
मैं भी तुम्हारा ही हिस्सा हूं
लौटता है इंशान
कुछ पल कुछ समय के लिए
अपने बचपन के वजूद में
जीता है सुकून से बिना किसी बंधन
भूलकर उम्र के ढलान को
और एक खुशी जन्म लेती है जहन में
दिल तो बच्चा है जी।

*बबली सिन्हा

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