मुक्तक/दोहा

होली के दोहे

रंगों के सँग खेलती, एक नवल- सी आस।
मन में पलने लग गया, फिर नेहिल विश्वास।।

लगे गुलाबी ठंड पर, आतपमय जज़्बात।
प्रिये-मिलन के काल में, यादें सारी रात।।

कुंजन, क्यारिन खेलता, मोहक रूप बसंत।
अनुरागी की बात क्या, तोड़ रहे तप संत।।

बौराया -सा लग रहा, देखो तो मधुमास।
प्रीति-प्रणय के भाव का, है हर दिल में वास।।

अपनापन है पल्लवित, पुष्पित है अनुराग।
सभी ओर ही श्रव्य हैं, अंतर्मन के राग।।

रंगों में जज़्बात हैं, हैं नेहिल अनुबंध।
सबको गूंथे प्रेम से, भाव भरे सम्बंध।।

जात-पात का भेद ना, रंग लुटावें प्यार।
अंतर्मन की शुद्धता, से महके संसार।।

भली लगे शीतल हवा, मौसम के प्रतिमान।
अधरों पर पलने लगा, ढाई आखर गान।।

करते मंगलकामना, आकर रंग-अबीर।
वे भी चंचल हो गये, जो थे नित गम्भीर।।

कायम रह पाये नहीं, अनुशासन के बंध।
अभिसारों ने रच दिये, नये-नये अनुबंध।।

फागुन की अठखेलियां, नयनों की है मार।
बदला-बदला लग रहा, देखो यह संसार।।

कदम-कदम से मिल रहे, हाथ गह रहे हाथ।
पर्वों को तो मिल रहा, धर्म, नीति का साथ।।

— प्रो.शरद नारायण खरे

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल-khare.sharadnarayan@gmail.com