सामाजिक

लेख– नारों के फ़ेर में देश को मत उलझाईए।

सरकारें जनकल्याणकारी होने का कितना ही दम्भ क्यों न भर ले। लेकिन शायद तत्कालीन परिस्थितियों को देखकर यह कहना गलत नहीं होगा, कि रहनुमाई व्यवस्था लोकतांत्रिक व्यवस्था को नारों के माध्यम से चलाना सीख गई है, औऱ अवाम उसमें उलझकर जीने को विवश। चुनावी जुमले आज की उपज नहीं, ये राजनीतिक विरासत की देन हैं। आज सिर्फ़ इनका विस्तार हो गया है। आज राजनीतिक जुमलेबाजी में ग़रीबी हटाओ शब्द का स्थान फाइव स्टार, न्यू इंडिया और वर्ल्ड क्लास जैसे शब्दों ने ले लिया है, यह कहना ग़लत न होगा। जिनका अवाम की वास्तविक जीवनशैली में बदलाव लाने की कोई आशा दिखती नहीं। आज अपनी राजनीतिक दुकान चलाने के लिए कोई हर हाथ शक्ति, हर हाथ तरक़्क़ी की बात करता है, तो कोई न गुंडाराज, न भ्रष्टाचार। अबकी बार सिर्फ़ उक्त सरकार का दावा पेश करता है, लेकिन क्या हकीकत में उनके वायदे पूरे होते हैं, बिल्कुल नहीं।

आज जुमलेबाजी नामक नया राजनीतिक अस्त्र ढूढ़ लिया गया है, जिससे जनता को गुमराह किया जा रहा है। जिसकी अगली कड़ी में हाल ही में पेश हुए बजट के माध्यम से एक नया जुमला औऱ जोड़ दिया गया है, दुनिया की सबसे बड़ी। अगर हम अपने रहनुमाओं की जुबानी पर गौर करें। तो वे यह कहते हुए नहीं थक रहें, कि वर्तमान सरकार ने दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना शुरू की है। जिस योजना का असल नाम है, आयुष्मान भवः। अब ऐसे में बहुतेरे सवाल प्रकट होते हैं। जब जिस देश के नौनिहालों का बचपन ही सुरक्षित नहीं, फ़िर देश आयुष्मान कैसे हो सकता है। स्वास्थ्य व्यवस्था जिस दौर में चरमरा रही, देश आयुष्मान कैसे हो सकता है। वैसे नारों और जुमलेबाजी का इतिहास देश की राजनीति में पुराना है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसकी बाढ़ सी देश में आ गई है। अब तो किसी भी योजना का निर्माण होने और उसके सफ़ल होने की रुपरेखा तैयार होने से पूर्व नारे गढ़े जाते हैं। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ खिलवाड़ ही समझ आता है।

एक गुण और है, ये नारे नेताओं के नाम के अनुसार बदलते रहते हैं। वर्तमान दौर में महंगाई बढ़ रही है, रोजगार पैदा सरकार कर नहीं पा रही, सामाजिक व्यवस्था दरक रहीं है। फ़िर भी विकास औऱ नए होते भारत के नारों की सत्ता के गलियारों से जय- जयकार हो रही है। बहुत हुई महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार जैसे नारों से सत्ता में आई एनडीए की सरकार अब आयुष्मान भवः का नारा लगा रहीं है, लेकिन उसका स्वास्थ्य महकमा ही स्वास्थ्य सेवाओं के चौपट होने की बात कर रहा है, जो चिंताजनक स्थिति है। नीति आयोग के हालिया आंकड़े के मुताबिक उत्तरप्रदेश की स्थिति स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफ़ी दयनीय है। ऐसे में अगर तेलंगाना जैसे गैर भाजपा शासित राज्य अच्छी स्थिति में है। तो यह स्थिति भाजपा शासित राज्यों को सुधारना होगा। अगर 2019 में पुनः सत्ता का सारथी बनना है, तो, क्योंकि स्वास्थ्य जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है।

स्वास्थ्य सेवाओं में गिरावट का पहला कारण देश में अत्याधुनिक तकनीक की कमी और प्रशिक्षित डॉक्टरों की कमी, इसके अलावा दूसरा कारण जिला अस्पतालों की मलिन अवस्था है। तीसरा और सबसे मुख्य कारण स्वास्थ्य को राज्य सूची में जगह देना है। यह किसी से छुपा नहीं है, कि राज्य सरकारों की यह आदत सी बन गई है, कि वे पहले केंद्र का मुंह ताकते है। फ़िर किसी योजना का निर्माण करते हैं। यह व्यथा का सबसे बड़ा कारण होता है। कहीं न कहीं शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मूलभूत मसले राज्य और केंद्र दोनों की गोदी में पड़े रहने के कारण भी अपने सकल उद्देश्य को पूरा करने में असमर्थ होते हैं। केंद्र और राज्य सरकारें अगर एक ही झंडे तले नहीं चल रहीं, फ़िर सामाजिक स्वास्थ्य और शिक्षा की और दुर्दशा हो जाती है। इसी महीने की शुरूआत में अगर दिल्ली उच्च न्यायालय की खण्डपीठ द्वारा यह कहा जाता है, कि केंद्र सरकार का स्वास्थ्य पर ख़र्च न्यूनतम है। वह जीडीपी का सिर्फ़ 0.3 फ़ीसद ही ख़र्च करता है। फ़िर सबको स्वास्थ्य जीवन हमारी रहनुमाई व्यवस्था सिर्फ़ सबसे बड़ी योजना का दावा करके उपलब्ध नहीं करा सकती। ओबामा केयर जैसे स्वास्थ्य सेवा पर मोदी केयर नाम चस्पा करने से बदलाव नहीं आएगा। इसके लिए केंद्र सरकार को बिना भेदभाव के जरूरत के मुताबिक राज्यों को स्वास्थ्य मद के लिए धन आवंटन करना होगा, सरकारी अस्पतालों की बद्दतर हालात सुधारने की तरफ़ ध्यान देना होगा। अगर राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का बजट घटाकर विश्व की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना की बात हो रहीं, तो यह जनता के साथ राजनीतिक छलावे से कम नहीं। अमेरिका का ओबामा केयर अगर अपने स्वास्थ्य बजट पर 17 फ़ीसद ख़र्च करता है। वहीं अन्य देशों में जापान जैसे देश 10 फ़ीसद और फ्रांस 11 फ़ीसद ख़र्च करता है। तो देश की स्वास्थ्य सेवाओं को केंद्र की सूची में शामिल कर, बजट में वृद्धि करके सतत निगरानी तंत्र विकसित करना होगा, तभी स्वास्थ्यतन्त्र कुपोषित स्वास्थ्य से बाहर निकल सकता है। वरना नारों की सियासत होती रहेगी, और अवाम स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए तरसती रहेगी। वैसे ही जैसे ग़रीबी हटाओ के नारों के साथ जय जवान और जय किसान का हश्र हुआ है। यह इसलिए क्योंकि न तो इतने वर्षों में ग़रीबी हट सकी, और न किसानों की जय हुई।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896