दिल के घाव
”भाई, आज बड़े हर्ष के साथ देश-विदेश में रक्षाबंधन का पावन त्योहार मनाया जा रहा है, पर देख रहा हूं, कि उत्तर प्रदेश के इस संभल जिले के बेनीपुर चक में रक्षाबंधन की कोई हलचल ही नहीं है. क्या आप लोग रक्षाबंधन का त्योहार नहीं मनाते?” उसने कोई जवाब नहीं दिया. पूछने वाला उत्तर न पाकर चल दिया था, लेकिन वह अपने अतीत में गुम हो गया था.
”कोई कैसे मनाए रक्षाबंधन? कैसे बताए कि यहां तो यह त्योहार सदियों से नहीं मनाया जाता. भला यह भी कोई बात होती है! त्योहार की खुशी आपसी मेलजोल और सद्भाव से होती है, लेकिन हमारे पूर्वजों की एक बहिन के क्या किया!” उदासी ने उसे घेर लिया था.
”उसने अपने भाइयों को राखी बांधी, भाइयों ने खुशी में फूले न समाते हुए उससे उपहार मांगने को कहा. बहिन ने क्या किया? उपहार नहीं, उनकी जान ही मांग ली. बहिन ने उपहार में गांव की जमींदारी ही मांग ली. भाइयों ने उपहार तो दिया, पर अपनी जमींदारी बहिन को देकर उन्हें गांव से निष्कासित होना पड़ा और वे इस गांव में आकर बस गए. ऐसे में रक्षाबंधन कौन मनाए और कैसे मनाए?” बहिनों के प्रति उसके मन का आक्रोश स्वाभाविक था.
अपने दिल के घाव तो वह सहला नहीं सकता था, अलबत्ता अपनी उदासी छुपाने के लिए वह गायों को सहलाने लगा.
सच है, त्योहार में प्रेम और सद्भाव बढ़ाने, मिलने-मिलाने और मिठास की भावना का बाहुल्य होना चाहिए, लोभ-लालच की भावना से त्योहार की कटुता ही बढ़ती है. दिल के ऐसे घावों का भरना नामुमकिन होता है.