कविता

अखिलता की विकल उड़ानों में

अखिलता की विकल उड़ानों में,
तटस्थित होने की तरन्नुम में;
उपस्थित सृष्टा सामने होता,
दृष्टि आ जाता कभी ना आता !
किसी आयाम वह रहा होता,
झिलमिला द्रश्य को कभी देता;
ख़ुमारी में कभी वो मन रखता,
चेतना चित्त दे कभी चलता !
कभी चितवन में प्रकट लख जाता,
घुले सुर में कभी हृदय रसता;
कभी वाणी में बजाता वीणा,
भीना भीना सा उर कभी करता !
चीन्हा चीन्हा सा हर कोई लगता,
साधना में है हर मिला रहता;
सहस्र पंखुड़ी खिला रखता,
बैठ गोदी गुरु के अंग लगता !
विलीन होती सकल द्विविधाएँ,
समाधित होतीं सकल शंकाएँ;
छटा ‘मधु’ देखते जटा शिव में,
छवीली सृष्टि लखे कण गण में !

—  गोपाल बघेल ‘मधु’