लाख ज़ुबाँ पर हों पहरे
लाख ज़ुबाँ पे हों पहरे ख़ामोशी सब कह जाती है।
सुनने वाला हो कोई चुप की दीवारें ढह जाती हैं।।
समय पे न तदबीर करो तो यूँ ही होता है अक्सर,
लहरों संग बह चले घरौंदे रेत किनारे रह जाती है।
आसपास के रेल मेले से न आंको अब मुझको,
बाहर भीड़ भले ही हो भीतर तन्हाई रह जाती है।
अहसासों को लब तक लाने में जो देरी करते हो,
बात बात में आने वाली बातों में ही रह जाती है।
एक मुक़दमा अब तुझको खुद पे दायर करना होगा,
जुल्मों की शुरुआत यही ख़ामोशी से सह जाती है।
धर्म तर्क औ’ ज्ञान ‘लहर’ हैं काला अक्षर जैसे कि,
लोग सड़क पे आ जाते धरी किताबें रह जाती हैं।