संस्मरण

दादा जी ( एक संस्मरण )

 

बात लगभग पैंतालीस साल पुरानी है । हमारे छोटे दादाजी पहलवान थे । दाँतों से गेहूँ का भरा बोरा ( लगभग 110 किलो ) उठा लेना उनके लिए सामान्य सी बात थी । उनकी खुराक बहुत थी । अपने घर के अलावा बाहर कहीं भी उनका पेट नहीं भरता था , यही वजह थी कि वह कहीं भी मेहमानों के यहाँ जाना पसंद नहीं करते थे । उन दिनों ऐसा नहीं था आज की तरह कि गए , मिले और कुशल क्षेम जाना समझा और वापस आ गए । दूरदराज के गाँवों में रिश्तेदारियाँ यातायात के साधन के अभाव में बहुत दूर महसूस होती थीं ।
उनके छोटे बेटे की शादी 1974 में ऐसे ही एक दूर के गाँव में हुई थी । लड़कीवालों के कई बार के आग्रह को स्वीकार करते हुए छोटे दादाजी ने उनके यहाँ जाने की हामी भर ली । तय किये गए दिन छोटे दादाजी एक पड़ोसी के साथ सुबह बड़े सवेरे निकल पड़े । गर्मी की छुट्टीयों की वजह से मैं भी गाँव आया हुआ था और दादाजी का दुलारा होने की वजह से मुझे भी अपने साथ ले गए थे । अपने घर से खेतों के बीच लगभग तीन किलोमीटर चलकर हम सड़क पर पहुँचे जहाँ से हमें एक इक्का ( एक घोड़ेवाला ताँगा ) मिल गया । लगभग ग्यारह किलोमीटर के इक्के की सवारी में आधा घंटे से ज्यादा का वक्त लग गया । बाजार से गरमागरम इमरती खरीदकर वहाँ से हम पैदल आगे बढ़े । लगभग सात किलोमीटर पैदल जाना था और सूरज की किरणें अब तेज हो रही थीं । और कोई विकल्प था नहीं सिवा पैदल जाने के । शहर में रहने की वजह से मुझे पैदल चलने का इतना अभ्यास नहीं था लेकिन नौ दस साल की अवस्था में भी उत्साह की कोई कमी नहीं थी । जब हम गंतव्य तक पहुँचे वक्त ग्यारह से अधिक का हो चुका था । काफी आवभगत हुई । उन दिनों गाँवों में मेहमानों को दाना और गन्ने का रस ( शरबत ) दही मिलाकर देने का रिवाज था । दोनों ने पूरे मजे से रस और दाने का आनंद लिया । मुझे तो दाना चबाना बिल्कुल पसंद नहीं था सो मेजबानों में से कोई जाकर पारले ग्लूको बिस्किट ले आया था मेरे लिए । इसके बाद मेहमानों और मेजबानों में बातों का जो दौर शुरू हुआ वह निर्बाध दो घंटे तक चलते रहा । समाज में ही पता नहीं किस किस की चर्चा हो रही थी मेरे तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ रहा था लेकिन शराफत से बैठ कर उनकी बातें सुनने के अलावा किया भी क्या जा सकता था । बातों का दौर अभी भी खत्म न होता यदि एक लड़का हाथों में पानी से भरा हुआ एक बड़ा मुरादाबादी लोटा लेकर न आ गया होता । लोटा दादाजी के सम्मुख रखकर उसने उनसे हाथ पाँव धो लेने का आग्रह किया और बताया कि भोजन तैयार है , कृपया चलें । एक बाल्टी पानी का भी भरकर रखा हुआ था । घर से बाहर दरवाजे के सामने ही सभी लोग हाथ पाँव धोकर अंदर दालान में पहुँचे । नीचे जमीन पर करीने से नई दरी बिछी हुई थी । हम सब अपनी अपनी जगह बैठ गए ।
भोजन थाली में परोसकर आ गया । घी से बघारी हुई दाल , चावल , सब्जी और रोटी ,के अलावा पापड़ और अचार तो होना ही था । सभी ने भोजन शुरू किया । सामने मेजबान दादाजी के समधी बैठ गए और आग्रहपूर्वक भोजन कराने लगे । दादाजी के ना ना करते हुए भी उन्होंने जबरदस्ती दो बार दो दो रोटी उनकी थाली में डाल दिया । भोजन करते हुए दादाजी ने पड़ोसी की तरफ देखा । वह थाली का भोजन समाप्त कर कभी का तृप्त हो चुका था और बैठकर दादाजी के भोजन समाप्त करने की बाट जोह रहा था । गाँवों के शिष्टाचार के मुताबिक भोजन करने के बाद सबके साथ ही उठा जाता है । इधर इतनी रोटियाँ खाने के बाद भी दादाजी के पेट का एक कोना भी नहीं भरा था लेकिन संकोचवश या शिष्टाचारवश उन्होंने और रोटियाँ लेने से इंकार कर दिया था । कुछ खाना भी जरूरी था और संकोचवश नई रिश्तेदारी की वजह से माँगना भी उचित नहीं था , उनके सामने धर्मसंकट जैसी स्थिति आ गई थी । ऐसे में उनकी चालबाजी देखकर हम लोग मन ही मन हँसे बिना न रह सके । हुआ यूँ कि रोटी मना करने के बाद मेजबान ने और रोटी जबरदस्ती डालना बंद कर दिया । अब चावल और दाल की बारी थी । अब दादाजी ने चावल में दाल ज्यादा लपेटना शुरू किया । थाली में थोड़ा चावल बच गया और दाल खत्म ! मेजबान की नजर थाली में गई । एक बड़ा कटोरा दाल का जबरदस्ती डाल दिया थाली में । अब दादाजी ने अपना दूसरा पैंतरा चला । अब चावल अधिक और दाल कम लपेटना शुरू किए सो स्वभावीक था कि अबकी थाली में दाल बच जाए । मेजबान चावल लाने के लिए उठ ही रहे थे कि दादाजी ने इंकार करने के लिए हाथ उठाया भी लेकिन फिर स्वतः ही बोले ,” हाँ ! थोड़ा सा ही चावल देना । क्या है कि दाल बच गई है न ….अनाज फेंका नहीं जाना चाहिए । ”
इस तरह से भोजन करके थोड़ा आराम करने के बाद हम शीघ्र ही वापसी के लिए निकल पड़े ।
इस घटना के समय तो मुझे कुछ भी भला बुरा महसूस नहीं हुआ लेकिन बड़े होकर जब मुझे इस घटना के पीछे की वास्तविकता का पता चला तो मेरा सिर मेहमान और मेजबान दोनों के लिए श्रद्धा से झुक गया । उन दिनों अभावों का दौर था और जिस गर्मजोशी से मेजबान ने पूछ पूछ कर जबरदस्ती खिलाया था कि दादाजी जैसे इंसान भी तृप्त हो गए । जबकि बाद में पता चला था कि उस दिन उनके घर में पीछे महिलाओं के लिए भोजन बचा ही नहीं था । और मेहमान ने भोजन आवश्यक होते हुए भी सामान्य शिष्टाचार का पालन किया और जो भी मिला उसी में संतुष्टि का प्रदर्शन किया इसके लिए वह भी प्रशंसा के पात्र साबित हुए मेरी नजर में । सचमुच कितना प्यार व सम्मान था उन दिनों एक दूसरे के प्रति । काश ! हम इन अच्छाइयों को सहेज पाते अपनी अगली पीढ़ी के लिए !

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।