उपन्यास अंश

ममता की परीक्षा ( भाग – 36 )

 

मास्टर रामकिशुन की कही एक एक बात गोपाल के कानों में गूँज रही थी , अनवरत , लगातार । ‘ इन मजबूत धागों के बंधन से निजात पाना ईतना भी आसान नहीं है बेटा ! ‘ ये शब्द जैसे बम की मानिंद उसके दिमाग में फट रहे थे । उसे अपना दिल बैठता हुआ सा महसूस हो रहा था । कितनी उम्मीद बंधी थी उसे मास्टर रामकिशुन के बारे में जानकर कि वह एक पढेलिखे और सुलझे हुए प्रगतिशील विचारों वाले इंसान थे । बेटी और बेटे में कोई फर्क नहीं समझते तो फिर बेटी की इच्छा का अवश्य सम्मान करेंगे । दकियानूसी विचारों के खिलाफ समाज से लड़ने में पहल करेंगे ‘ लेकिन यहाँ तो सब कुछ उसकी सोच से उल्टा हो रहा था । उसकी समझ में नहीं आ रहा था वह क्या करे ? क्या कहे ? उसे अपना दिल बैठता हुआ सा लगा । मस्तिष्क में फूट रहे धमाके जब असहनीय हो गए तो वह दोनों हाथों से अपना सिर थामकर वहीँ नीचे बैठ गया । उसे नीचे बैठता देखकर मास्टर घबरा कर उठ गए और उसकी तरफ लपके । बदहवासी में उनके मुख से निकला ,” क्या हुआ बेटा ? तुम ठीक तो हो ? ”
” मैं तो ठीक हूँ बाबूजी ! बस आपकी बातों को समझने का प्रयास कर रहा था । मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि हमारे पुरखों ने समाज और उसके नियमों की परिकल्पना इंसान को जीवन जीने देने के लिए की थी या इंसान को इन नियमों का गुलाम बना देने के लिए इन नियमों की परिकल्पना की थी ? क्या उसी समय यह तय कर दिया था कि इंसान हमेशा हमेशा के लिए समाज का गुलाम हो जाएगा ? समाज के लिए ही जीयेगा भी और समाज के लिए ही मरेगा भी ? ” गोपाल से रहा नहीं गया । आखिर अपने मन की भड़ास उसने निकाल ही ली ।
उसकी बात सुनकर मास्टर के अधरों पर गहरी अर्थपूर्ण मुस्कान तैर गई ! धीमे स्वर में बोलना शुरू किया ,” समाज उस उफनती हुई पहाड़ी नदी की मानिंद है जो अपनी धारा की जद में आने पर बड़ी से बड़ी रूकावट को भी तहस नहस करके अपने साथ बहा ले जाती है । इसकी धारा के खिलाफ चलने की हिम्मत हमारे पुरखों ने कभी नहीं की क्योंकि वो जानते थे कि इसकी धारा के खिलाफ नहीं चला जा सकता । इसके साथ चलोगे तो यह अपनी लहरों पर सवार कराकर तुम्हें आनंदपूर्वक तुम्हारी मंजिल तक पहुँचा देंगी । मंजिल यानि एक सम्मानजनक जिंदगी । इसकी धारा के खिलाफ चलने वाले इतिहास में तो अपनी जगह बनाने में कामयाब हो जाते हैं लेकिन असल में अपने जिंदगी की जंग हार चुके होते हैं । तुम पढ़े लिखे हो , ऐसी न जाने कितनी कहानियाँ तुमने पढ़ी होंगी । बेटा ! जानते हो इतिहास क्यों पढ़ाया जाता है ? इतिहास पढ़ाया जाता है अतीत में हुई प्रमुख घटनाओं के बारे में जानकारी साझा करने के लिए ! और यह जानकारी साझा किया जाना इसीलिये जरुरी है ताकि हम अपनी अतित की भूलों से सबक ले सकें , पूर्व में की गई गलतियों को समझ सकें और पुनः उसकी पुनरावृत्ति किये जाने से बचें ! और मैं समझता हूँ कि तुम बहुत समझदार हो । ” थोड़ी देर के लिए रुके थे मास्टर रामकिशुन ! बड़ी गहराई से वह गोपाल के चेहरे पर पल पल बदल रहे भावों का निरीक्षण कर रहे थे । उनकी अनुभवी आँखें वह सब देख रही थीं जिसकी कल्पना गोपाल को सपने में भी नहीं थी । वह गोपाल के चेहरे पर छाये चिंता के बादल में अपनी बेटी के लिए सुख की बदली को छाता हुआ देख रहे थे , उसके लिए गोपाल के मन में मौजूद प्यार को देख रहे थे । क्षणिक गम के बाद अगले ही पल उसके चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक देखकर उन्हें गोपाल की दृढ इच्छाशक्ति पर हैरत भी हो रही थी । गजब के धैर्य के साथ ही उसके बात करने का ढंग और उसका व्यवहार उसके संस्कारों का परिचय दे रहे थे । उन्हें गोपाल हर तरह से साधना के लिए योग्य वर लग रहा था ‘ लेकिन समाज और गाँव के लोगों को क्या कहकर समझायेंगे ? ‘ यही सवाल उनके सामने मुँह बाए खड़ा था जिसका जवाब तलाशने की कोशिश वो कर रहे थे और इसी बहाने गोपाल को अपनी कसौटी पर परखने की कोशिश भी कर रहे थे । कुछ पल की खामोशी के बाद गोपाल की आवाज सुनाई पड़ी ,” आप की सीख सर माथे पर बाबूजी ! आप बड़े हैं , गुरु समान हैं ! आपका कथन सही है और उचित भी ! इतिहास की परिभाषा भी आपने बहुत अच्छे से समझाई है लेकिन मेरे मन में भी कुछ शंकाएं हैं जिनका जवाब मेरी इस अल्पबुद्धि के बूते से बाहर की है । कृपया मेरा मार्गदर्शन करें ! आपने बिलकुल सही कहा है कि इतिहास से सबको सबक लेना चाहिए लेकिन क्या इतिहास से समाज को सबक नहीं लेना चाहिए ? इतिहास स्वयं गवाह है कि हजारों जोड़ियों ने समाज के इन झूठे खोखले आदर्शों के खिलाफ बगावत की है और समाज की इन दकियानूसी विचारों की असंवेदनशील दीवारों पर सिर पटक पटक कर अपने प्रेम की दुहाई देते हुए खुद की भेंट चढ़ा दी है लेकिन अपने प्यार को छोड़ना गवारा नहीं किया । क्या इससे समाज को सबक नहीं लेना चाहिए ? क्या ऐसे प्रेमियों के लिए समाज के नियमों में कुछ बदलाव नहीं आने चाहिए ? बाबूजी ! एक बेटी का बाप होने के साथ ही आप एक शिक्षक भी हैं । समाज की अगली पीढ़ी को गढ़ने का नेक काम आप जैसे शिक्षकों के हाथों ही संपन्न होना है । आप सीख भी देते होंगे बच्चों को ‘ समय परिवर्तनशील है ‘ और वाकई है भी ! लेकिन समाज के नियमों पर यह उक्ति क्यों नहीं लागु होती ? आज भी हमारा समाज उन हजारों साल पहले के सड़े गले नियमों को मानने के लिए क्यों विवश है ? इतने प्रेमियों के बगावत की गूँज क्या समाज के बहरे कानों तक नहीं पहुँचती ? क्या उनकी सिसकियाँ और उनकी आहें समाज को नहीं सुनाई देतीं ? अगर हमारा समाज सुनता है तो फिर कहाँ लेता है वह सबक अतीत में हुई इन बरबाद जिंदगियों से ? क्या ईतनी जिंदगियों को बरबाद करने के गुनाह का कलंक समाज के माथे पर नहीं है ? बाबूजी ! आप जानते हैं कोई भी इंसान किसी सड़े हुए अंग के साथ ज्यादा दिन जिन्दा नहीं रह सकता । उसकी जिंदगी बचाने के लिए डॉक्टरों को उस के सड़े हुए अंग को ही काटकर अलग करना पड़ता है । मुझे उस समय का इंतजार है बाबूजी जब हमारे समाज से चिपक चुके इन सड़े गले नियमों को व्यापक ऑपरेशन द्वारा काटकर अलग कर दिया जायेगा । तब हमारा समाज और समाज के लोग सुख पूर्वक जी सकेंगे । जिस तरह प्रवाह के विपरीत चलकर कोई भी परेशान ही होता है उसी तरह नए समय में नए विचारों के प्रवाह के खिलाफ चलकर समाज को भी परेशान होना ही पड़ेगा , नए विचारों की बगावत का सामना करना ही पड़ेगा । ”
गोपाल की बात को ध्यान से सुनते और समझते हुए मास्टर रामकिशुन ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि गोपाल फिर से बोल पड़ा ,” बाबूजी ! आप जानते हैं समाज कुछ और नहीं बल्कि हम लोगों का समूह मिलकर ही समाज का निर्माण करता है । फिर ऐसा क्यों नहीं होता कि हम जो सोचते हैं वही समाज भी सोचे ? ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि अपनी सही सोच को भी मजबूती से समाज के सामने रखने की हिम्मत किसी के पास नहीं है । समाज के बहुसंख्य लोगों को ये नए नियम, नई सोच समाज के अधिकारक्षेत्र में एक दखलंदाजी की तरह चुभेगी । नई सोच और नए विचारों के हिमायती तो बहुत मिल जायेंगे लेकिन जब अपने विचार समाज के सामने एक मिसाल की तरह पेश करने की बारी आती है तब सबको साँप सूंघ जाता है । सवाल उठता है बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे ? कौन कोपभाजन बने समाज के बहुसंख्य रूढ़िवादी विचारों के हिमायतियों का ? बाबूजी ! आप समाज के प्रभावशाली व्यक्ति हैं । आपका काफी मान सम्मान है । लोग आपकी बात मानते भी हैं । यदि आप और आप जैसे लोग चाहें तो धीरे धीरे समाज को बदलना संभव है । मेरा आपसे निवेदन है कि मेरी बातों पर गौर करें और समाज को बदलने में अपने प्रभाव का उपयोग करें ! आगे आपकी इच्छा ! हम हर हाल में आपके फैसले के साथ हैं ! ”

क्रमशः

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।