कहानी

प्रतीक्षित आँखें

” तुम तीनों अगर लंदन चले गए तो मैं अकेली यहाँ पर क्या करूंगी? कैसे रहूंगी मैं तुम लोगों के बिना और किसके सहारे रहूंगी? तुम्हारे पिताजी होते तो कोई बात नहीं थी, दोनों मिल कर रहे लेते।”.. अनीता देवी अपने बेटे आशीष से मन की व्यथा बताने का प्रयास कर रही थी। बहु नवीना और पोता शांतनु भी साथ जा रहे थे। बेटा, बहू दोनों डॉक्टर हैं।
डॉक्टर होकर दो बहुत से मरीजों के दिल की धड़कन को नाप लिया परंतु माता पिता के मन की वेदना को नाप ना पाए। दोनों कहना है कि भारत में तो बहुत किस्मत आजमा लिया, अब लंदन जाने का मौका मिला है तो हाथ से यह मौका क्यों जाने दे? इसलिए इन दोनों ने फैसला किया कि लंदन जाएंगे। एक बार भी दोनों ने यह न सोचा की अकेली माँ यहाँ रह कर कैसे दिन काटेगी?
“माँ कुछ महीनों की तो बात है, एक बार हम लोग सेट हो जाएंगे तो आपको भी ले जाएंगे। फिर.. आप को अकेला नहीं रहना पड़ेगा।”…आशीष ने अपनी माँ को समझाते हुए कह।
“कुछ महीने भी मैं कैसे रह पाऊंगी बेटा, तुम लोगों के साथ रहने की आदत पड़ गई। अब अकेले रहना बहुत मुश्किल है। जब तक शांतनु को एक बार देख ना लूं, मेरा दिन अच्छे से गुजरता ही नहीं है। तुम्हारे पापा के जाने के बाद वही तो है जिसने मेरे जीवन के सफेद कैनवस पर फिर से खुशियों के रंग भर दिए। उसको देखे बिना मैं कैसे रह पाऊंगी। और फिर मेरी इतनी उम्र हो गई है कि सारा काम अकेले करना अब मेरे बस की बात नहीं रही। आंखें भी कमजोर हो गई है ठीक से दिखाई भी नहीं देता। नाते रिश्तेदार तो कोई है ही नहीं जो आकर मेरी देखभाल करेंगे और भला क्यों करेंगे? हम उनके लिए क्या करते हैं जो हमारे लिए करेंगे?”.. अनीता देवी की आंखें नम हो गई।
“माँ तुम बुरा ना मानो तो.. मेरे मन में एक बात आई है, कह दूं?”
“क्या बात है, क्या बात आई है तेरे मन में?”
“माँ.. तुम्हें कुछ महीनों के लिए वृद्ध आश्रम में छोड़ दे तो..!!”
“हाँ, हाँ, बुढ़ापे में बस यही रह गया था देखने के लिए कि बेटा अपने सुख के लिए माँ को वृद्ध आश्रम छोड़ दे।”.. अपनी साड़ी के पल्लू से आंखें पोंछते हुए अनीता देवी ने कहा।
“माँ.. समझने की कोशिश करो, बड़ी मुश्किल से यह मौका मुझे मिला है। ये मौका हाथ से चला गया तो दोबारा कभी नहीं मिलेगा।”

बहू नवीना और आशीष ने मिलकर यही तय किया कि माँ को कुछ महीनों के लिए वृद्ध आश्रम में छोड़ दिया जाए। परंतु आशीष के मन में कुछ बातें खटक रही थी तो उसने नवीना से कहा..” माँ को वृद्धाश्रम में छोड़ेंगे, मेरा मन नहीं मान रहा है। और फिर लोग भी क्या कहेंगे कि बेटा अपनी खुशी ढूंढने के लिए माँ को वृद्धाश्रम में छोड़कर चला गया लंदन।”
“कुछ ही महीनों की तो बात है आशीष। हम एक बार सेट हो जाएंगे तो माँ को आकर ले ही जाएंगे ना। कौन सा उन्हें हमेशा के लिए छोड़ कर जा रहे हैं।”…नवीना ने आशीष को हिम्मत देते हुए कहा।

वृद्ध आश्रम में अपने बेड पर लेटे लेटे अनीता देवी अतीत की बातें सोच रही थी..” जब पहली बार मनीष ने पीएमटी की परीक्षा अच्छे अंको से उत्तीर्ण की और शहर के ही कॉलेज में उसका दाखिला हो गया था डॉक्टर बनने के लिए। कितने खुश हुए थे उसके पिताजी और मैं। ऐसा लग रहा था जैसे सारा जहाँ मिल गया हो हमें। कैसे-कैसे सपने बुने थे हमने कि बेटा डॉक्टर बन जाएगा तो बुढ़ापे में हमें किसी दूसरे डॉक्टर के पास जाना नहीं पड़ेगा। बेटा डॉक्टर बन जाए, माँ बाप के लिए इससे बड़ी गर्व की बात और क्या हो सकती है? पूरे मोहल्ले भर को मिठाई बांटी थी हम लोगों ने।”

माँ को पीछे से आकर बाहों में भरते हुए मनीष ने एक दिन बड़े प्यार से कहा..” माँ.. मैं, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है! पिताजी से कहने की हिम्मत नहीं है, इसलिए तुमसे कहा कह रहा हूँ। मैंने एक लड़की पसंद की है, जो मेरे ही साथ पढ़ती है,नाम है नवीना। एक बार तुम उससे मिल लो। मैं उसे बहुत पसंद करता हूं और वह भी मुझे बहुत पसंद करती है। डॉक्टर की डिग्री मिलने के बाद हम दोनों शादी करना चाहते हैं।”
“अच्छा यह बात है, तो.. ले आ एक दिन उसे, मैं भी देख लेती हूं कैसी है लड़की!”
“मैं उसे साथ लेकर ही आया हूँ माँ.. बाहर खड़ी है, तुम्हारा आदेश हो तो अंदर बुला लूँ?”
“तू बड़ा चालाक है मनीष, जैसे ही देखा पिताजी घर में नहीं है, तो सारा मामला फिट करके आया है। जा जा बुला ले उसे अंदर, क्यों बेचारी को बाहर खड़ी करके रखा है।”
“माँ,, पिताजी को आप ही को समझाना पड़ेगा। मैं तो पिताजी से बात नहीं कर सकता। पिताजी के गुस्से से डरता हूं मैं।”
“अच्छा अच्छा कर लूंगी, पहले लड़की को तो बुला कर ला!”

लड़की देखने के पश्चात अनीता देवी ने लड़की पसंद कर ली थी और मनीष के पिता जी को भी मना लिया था। डॉक्टर बनने के बाद दोनों की शादी कर दी थी। शादी के दो साल के बाद शांतनु आया था जीवन में, शांतनु के आने के बाद तो जैसे घर में खुशियों का मेला लग गया था। उसके पीछे समय कहाँ से निकल जाता कुछ पता ही नहीं चलता। एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से मनीष के पिताजी भी चल बसे, अनीता देवी को अकेला छोड़ कर।

सात साल हो गए मनीष के गए हुए। यह सात साल तो जैसे सत्तर साल के बराबर थे। एक पल भी ऐसा नहीं था जब दिल से बेटा, बहू और पोते को भूला पाई हो, अनीता देवी। पर.. बेटा ऐसा निकलेगा उसने कभी सोचा ही नहीं था! शुरू शुरू में तो एक दो बार फोन कर लिया था और कहा था..” मैं आऊंगा माँ आपको लेने के लिए। उसके बाद धीरे-धीरे उसने फोन करना भी बंद कर दिया। कोई खबर लेना ही बंद कर दिया। आंखें बस दरवाजे की ओर लगी रहती कहीं मनीषा जाए और कहे..” माँ मैं आ गया हूं तुम्हें लेने के लिए!”.. इंतजार में अनीता देवी के दिन कटने लगे। धीरे धीरे वह बहुत बीमार रहने लगी, उम्र भी हो गई थी। तन की बीमारी से मन की बीमारी इतनी अधिक बढ़ गई थी कि आज उसने आखरी सांस ली..!!

अनीता देवी की अर्थी उठ रही थी। उसका कोई सगा कहने वाला पास नहीं था कि एक कफन लाकर उसको उढ़ा सके। कफन भी वृद्ध आश्रम वाले लेकर आए थे। साथ रहने वाले सभी लोग उसे आखरी विदाई देने बाहर आ गए थे। सब की आंखें नम थी, उनकी आंखें भी अनीता देवी के बेटे, बहू और पोते को ढूंढ रही थी…!!!

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- paul.jyotsna@gmail.com