मेरी स्मृतियों के अमित पिटारे में एक बहुत प्रिय संयोग है जिसे याद करके आज भी आत्मा तृप्त हो जाती है। सं १९७५ के जनवरी मास में मैंने भारत छोड़ा। पति देव पहले ही आ चुके थे। दो बड़े बच्चों को उनकी शिक्षा के कारण वहीँ पर छोड़ना पड़ा। मेरी माँ ने उनको आने ही नहीं दिया। ” जब तक सर पर अपनी छत न हो ,कहाँ भटकेगी ? कल को कुछ काम न बना तो यहीं आएगी वापिस। दुबारा कॉल्विन में दाखिला कौन देगा ? ”
अतः एक बच्ची जो केवल ढाई वर्ष की थी, मेरे संग आई। जीवन संघर्ष बहुत मारक था। बच्चे बहुत याद आते थे। कमी थी तो अपने खुद के घर की। दिन रात पाई पाई बचाकर हमने अगले स्कूल सत्र के शुरू होने से पहले घर ले ही लिया। मगर कागज़ी कार्यवाही पूरी होते होते अक्टूबर आ गया। शारदीय नवरात्र में हमने घर में पाँव रखा।
अब सफाई की बारी थी। घर एकदम खस्ता हाल था। सामान सभी पहले वाले ने साफ़ करके बेच दिया था। ना पलंग ना कुर्सी। नंगे फर्श ,टूटी तारें। जंग खाये हुए नलके। मेरी साध थी कि दिवाली तक जो जो हो सकता था सब पूरा कर लूँ। अतः नौकरी से लौटकर आते ही खाना बनाती ,बच्ची को नहला धुलाकर खाना खिलाती। वह सो जाती तो रात दस ग्यारह बजे तक सफाई परदों की सिलाई , अलमारियों की सजावट आदि करती। पतिदेव दीवारें रंगते। जिसने कभी कील नहीं ठोंका था वह राजदुलारा पूरा राज मजदूर बना हुआ था।
उस ज़माने में ठीक साढ़े पांच बजे बाज़ार बंद हो जाता था। दिवाली के पूर्व शनिवार को बाज़ार गयी और बिजली से जलनेवाली रंगीन बत्तियां लाई। अन्य पूजा आदि का सामान भी खरीदा। द्वार और दहलीज की जमकर सफाई व सजावट की। नए कालीन बिछाये थे खुद मैंने। सब काम निपटाकर साड़ी पहनी। पूजा सजाई। दिवाली का चित्र अंकित किया और उसको दीवार पर चिपकाया।
तब एक आध भारतीय दूकान दूर दराज़ पर कहीं होती थी। दीये अदि तो क्या ही मिलते। अतः गणपति और लक्ष्मी की जोड़ी दिवाली के चित्र पर ही अंकित की। कुछ अटकल पच्चू और कुछ गुजराती सहेलियों से पूछ कर पकवान ,मिठाई आदि बना ली थी। सब तैयारी करके हम माँ बेटी पतिदेव का इन्तजार कर रहे थे। तीन बरस की बच्ची नए खिलौनों में मगन हो गयी। मेरा मन पीछे पीछे भागता रहा। घर की ,बच्चों की बेहद याद आ रही थी। तब मोबाइल नहीं थे। पांच बजे से पहले फोन का रेट दोगुना होता था। पांच बजे के बाद भारत में रात हो जाती थी।
घर की पहली दीवाली और मैं अकेली ,बहनें ,भाई बेटा बेटी ,माँ पापा , पुराने नौकर चाकर ,मोहल्ले के बच्चे ,पटाखे ,आदि सब मेरी डबडबाई आँखों में भीड़ लगाए पड़े थे। माँ के भज न ,लक्ष्मी जी की आरती ,टेसू झांझी के गीत गाते गरीब बच्चे , मन का शोर थमता ही नहीं था। काश कोई मेरे द्वार भी आता मुझको बधाई गीत सुनाने ! ———-
अचानक घंटी बजी। अभी साहब के आने का समय तो नहीं हुआ ,फिर यह कौन ? पर स्मृतियों के दलदल से उबरकर सहसा मैंने दरवाज़ा खोल दिया। एक संग कई स्वर गा उठे , ” वी विश यू ए मेर्री क्रिसमस ,वी विश यू ए मेरि क्रिसमस ,वी विश यू ए मेरि क्रिसमस एंड ए हैप्पी न्यू ईयर , गुड टाइडिंग्स वी ब्रिंग टु यू एंड योर किंग , वी विश यू ए मेरि क्रिसमस एंड ए हैप्पी न्यू ईयर ————- ”
मोहल्ले के कुछ बच्चे ,उम्र पांच से पंद्रह वर्ष , बिना बुलाये मुझ अनजानी विदेशन के द्वार पर शुभ गीत गा रहे थे। बत्तियां जगमगाती देखकर वह समझे हमारी क्रिसमस होगी] अतः पैसे बटोरने के लालच में खींचे चले आये , अनजाने मेरी मुराद पूरी करने।
मैं दौड़कर अंदर गयी ,मुट्ठी भर टॉफियां और रेजगारी लाई और उनको दी। वह ख़ुशी ख़ुशी हँसते हुए चले गए। साथ ले गए मेरा सारा अवसाद। मन में गूंजा ,यहीं तेरी दुनिया है अब ,भगवान् ने यहीं से तेरे भाग्य के वेल विशर भेजे थे। तू यहीं अपने शगुन मनाएगी।
मैंने कभी कोई कोताही नहीं की। सालों साल रामलीला करवाई। मिठाइयां बनाईं और बच्चों को बांटीं। कंजकों को चूड़ियाँ बांटी। किसी की शादी हो मेरा सुहाग का आशीर्वाद स्वरूप शगुन का लिफाफा सबसे पहले जाता था।
उसी दिल से मैंने क्रिसमस को अंगीकृत किया। मैं शुद्ध हिन्दू गृहणी हूँ। सारे व्रत त्यौहार हर हालत में मैंने निभाए हैं पूरे अनुष्ठान से। मगर सब धर्मो को आदर दिया जिनको यहां आने से पूर्व मैं जानती भी नहीं थी। अपनापन हो तो सब अपने बन जाते हैं।
” अपनापन रखना मोरे घनश्याम !”