संस्मरण

अतीत की अनुगूंज -9 : लंदन में पहली दीवाली

मेरी स्मृतियों के  अमित  पिटारे में एक बहुत प्रिय संयोग है जिसे याद करके आज भी आत्मा तृप्त हो जाती है।  सं १९७५ के जनवरी मास  में  मैंने भारत छोड़ा। पति देव पहले ही आ चुके थे। दो बड़े बच्चों को उनकी शिक्षा के कारण वहीँ पर छोड़ना पड़ा। मेरी माँ ने उनको आने ही नहीं दिया। ” जब तक सर पर अपनी छत न हो ,कहाँ भटकेगी ? कल को कुछ काम न बना तो यहीं आएगी वापिस। दुबारा कॉल्विन में दाखिला कौन देगा ? ”
अतः एक बच्ची जो केवल ढाई वर्ष की थी, मेरे संग आई।  जीवन संघर्ष बहुत मारक था।  बच्चे बहुत याद आते थे।  कमी थी तो अपने खुद के घर की।  दिन रात पाई पाई बचाकर हमने अगले स्कूल सत्र के शुरू होने से पहले घर ले ही लिया।  मगर कागज़ी कार्यवाही पूरी होते होते अक्टूबर आ गया।  शारदीय नवरात्र में हमने घर में पाँव रखा।
अब सफाई की बारी थी।  घर एकदम खस्ता हाल था।  सामान सभी पहले वाले ने साफ़ करके बेच दिया था।  ना पलंग ना कुर्सी। नंगे फर्श ,टूटी तारें।  जंग खाये हुए नलके।  मेरी साध थी कि दिवाली तक जो जो हो सकता था सब पूरा कर लूँ।  अतः नौकरी से लौटकर आते ही खाना बनाती ,बच्ची को नहला धुलाकर खाना खिलाती।  वह सो जाती तो रात दस ग्यारह बजे तक सफाई परदों  की सिलाई , अलमारियों की सजावट आदि करती।  पतिदेव दीवारें रंगते।  जिसने कभी कील नहीं ठोंका था वह राजदुलारा पूरा राज मजदूर बना हुआ था।
उस ज़माने में ठीक साढ़े पांच बजे बाज़ार बंद हो जाता था।  दिवाली के पूर्व शनिवार को बाज़ार गयी और बिजली से जलनेवाली रंगीन बत्तियां लाई।  अन्य पूजा आदि का सामान भी खरीदा।  द्वार और दहलीज की जमकर सफाई व सजावट की।  नए कालीन बिछाये थे खुद मैंने।  सब काम निपटाकर साड़ी पहनी।  पूजा सजाई।  दिवाली का चित्र अंकित किया और उसको दीवार पर चिपकाया।
तब एक आध भारतीय दूकान दूर दराज़ पर कहीं होती थी।  दीये अदि तो क्या ही मिलते। अतः गणपति और लक्ष्मी की जोड़ी दिवाली के चित्र पर ही अंकित की।  कुछ अटकल पच्चू और कुछ गुजराती सहेलियों से पूछ कर पकवान ,मिठाई आदि बना ली थी।  सब  तैयारी करके हम माँ बेटी पतिदेव का इन्तजार कर रहे थे।  तीन बरस  की बच्ची नए खिलौनों में मगन हो गयी। मेरा मन पीछे पीछे भागता रहा।  घर की ,बच्चों की बेहद याद आ रही थी। तब मोबाइल नहीं थे। पांच बजे से पहले फोन का रेट दोगुना होता था। पांच बजे के बाद भारत में रात हो जाती थी।
घर की पहली दीवाली और मैं अकेली ,बहनें ,भाई बेटा बेटी ,माँ पापा ,  पुराने नौकर चाकर ,मोहल्ले के बच्चे ,पटाखे ,आदि सब मेरी डबडबाई आँखों में भीड़ लगाए पड़े थे।  माँ के भज न ,लक्ष्मी जी की आरती ,टेसू झांझी के गीत गाते गरीब बच्चे  , मन का शोर थमता ही नहीं था।  काश  कोई मेरे द्वार भी आता मुझको बधाई गीत सुनाने ! ———-
अचानक  घंटी बजी।  अभी साहब के आने का समय तो नहीं हुआ ,फिर यह कौन ? पर स्मृतियों के दलदल से उबरकर सहसा मैंने दरवाज़ा खोल दिया। एक संग कई  स्वर गा  उठे , ” वी विश यू ए मेर्री क्रिसमस ,वी विश यू ए मेरि  क्रिसमस ,वी विश यू ए मेरि क्रिसमस एंड ए हैप्पी न्यू ईयर ,   गुड टाइडिंग्स वी ब्रिंग टु यू एंड योर किंग , वी विश यू ए मेरि क्रिसमस एंड ए  हैप्पी न्यू ईयर ————-  ”
 मोहल्ले के कुछ बच्चे ,उम्र पांच से पंद्रह वर्ष , बिना बुलाये मुझ अनजानी विदेशन के द्वार पर शुभ गीत गा  रहे थे। बत्तियां जगमगाती देखकर वह समझे हमारी क्रिसमस होगी] अतः पैसे बटोरने के लालच में खींचे चले आये , अनजाने मेरी मुराद पूरी करने।
मैं दौड़कर अंदर गयी ,मुट्ठी भर टॉफियां और रेजगारी लाई और उनको दी।  वह ख़ुशी ख़ुशी हँसते हुए चले गए। साथ ले गए मेरा सारा अवसाद। मन में गूंजा ,यहीं तेरी दुनिया है अब ,भगवान् ने यहीं से तेरे भाग्य के वेल विशर भेजे थे।  तू यहीं अपने शगुन मनाएगी।
मैंने कभी कोई कोताही नहीं की। सालों साल रामलीला करवाई। मिठाइयां बनाईं और बच्चों को बांटीं। कंजकों को चूड़ियाँ बांटी। किसी की शादी हो मेरा सुहाग का आशीर्वाद स्वरूप शगुन का लिफाफा सबसे पहले जाता था।
उसी दिल से मैंने क्रिसमस को अंगीकृत किया। मैं शुद्ध हिन्दू गृहणी हूँ। सारे व्रत त्यौहार हर हालत में मैंने निभाए हैं पूरे अनुष्ठान से। मगर सब धर्मो को आदर दिया जिनको यहां आने से पूर्व मैं जानती भी नहीं थी। अपनापन हो तो सब अपने बन जाते हैं।
” अपनापन रखना मोरे घनश्याम !”

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल [email protected]