भाषा-साहित्य

शिक्षा में कोई एक विदेशी भाषा ऐच्छिक और देश में दो भाषा नीति हो

इसरो के पूर्व प्रमुख, जाने-माने वैज्ञानिक, शिक्षाविद और पद्मविभूषण से अलंकृत हिंदी नहीं मलयालम भाषी, बहुभाषाविद के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली ९ सदस्यों की समिति की राष्ट्रीय शिक्षा नीति,२०१९ के मसौदा से स्पष्ट होता है कि यह शिक्षा नीति किसी राज्य, भाषा विशेष, क्षेत्र, धर्म, सम्प्रदाय का ध्यान रख कर नहीं बनाई गई है। इसे भारत की भावी पीढ़ी के भविष्य के लिए अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक गुणवत्ता को ध्यान में रख कर तैयार किया गया है। राष्ट्र की समग्रता को लक्ष्य करके समता, गुणवत्ता, बड़नीयता, जवाबदेही, मार्गदर्शी उद्देश्य को आधार बनाया
गया है। इसे संकुचितता से दूर रखा गया है महात्मा गांधी की डेढ़ सौ वीं जन्म जयंति के प्रसंग में उनके भाषा, शिक्षा, शिक्षा में भाषा का माध्यम, स्वावलंबन और कौशल का उपहार है। यही नहीं भारत, भारतीय, भारतीयता का ज्ञान-सँस्कृत , प्राचीन भाषा प्राकृत, गणित, दर्शन, व्याकरण, संगीत, राजनीति, चिकित्सा, वास्तु, धातुकर्म, खगोलविद्या, नाटक,काव्य, कहानी आदि का इसमें समावेश है।
मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के मानव मंत्रालय ने जैसे ही जैसे नई शिक्षा नीति का मसौदा प्रसारित किया, वैसे ही शिक्षा नीति के पूरे मसौदे का अध्ययन किए बिना सिर्फ राजनैतिक दुराग्रह के वशीभूत दक्षिण के कतिपय राजनेताओं को अपने क्षुद्र और संकुचित राजनीतिक स्वार्थों को भुनाने का अवसर मिल मिल गया। साढ़े छ: सौ पृष्ठों में समाहित शिक्षा नीति के मसौदे की विशेषताओं को दरकिनार कर दिया यह भी विचार नहीं किया गया कि मसौदे में घर की भाषा, मातृभाषा, आठवीं अनुसूचि की भाषाओं का समावेश किया हुआ है। विरोध देश के जन-जन के जीवन को और मन को जोड़ने की भाषा, अपनी धरती की भाषा हिंदी को निशाना बना दिया गया। कहा गया-हिंदी को थोपना सहन नहीं किया जाएगा। केन्द्र सरकार आग से खेलने का काम कर रही है।
विरोध और नाराज़गी या असहमति के स्वर इन राज्यों के शिक्षा और उससे जुड़े हुए विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों की ओर से उठते तो समझ में आता कि शिक्षा के मसौदे में कहाँ पर क्या-क्या ख़ामियाँ है ? अगर वहां का बौद्धिकवर्ग, क़ानून-विधिवेत्ता, वैज्ञानिक, अनुसंधानकर्ता और मध्यम और युवा वर्ग की ओर से आपत्ति उठाई जाती तो भी समझा जा सकता था। शिक्षा नीति के मसौदा तो देश के सभी वर्गों के लिए बनाया गया है। जो प्रसारित हुआ है। सरकार ने उस पर न विचार किया है और न सहमति दी है। उसे लागु करने की स्थिति बनी ही नहीं थी। उसे लागु किए जाने से पहले संसद में बहस और मतदान का अवसर मिलता। लोकतंत्र की प्रक्रिया को अपनाने की बजाय राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दे को राष्ट्र को जोड़ने वाली हिंदी भाषा के विरोध तक सीमित कर दिया गया।
राजनैतिक दबाव बनाने वाले यह सत्य स्वीकार करना नहीं चाहते हैं कि पिछले तिहत्तर साल से विदेशी भाषा अंग्रेज़ीआठवीं अनुसूचि में भी नहीं है। पूरे देश की युवा पीढ़ी पर अनिवार्य करके थोपी हुई है। अगर दुनिया की भाषाओं के साथ अंग्रेज़ी का भी ज्ञान अर्जित करके अपने देश की भाषाओं के माध्यम से लाभ पहुँचाने की ऐच्छिक व्यवस्था होती तो सर्वमान्य होता। तमिलनाडु की सरकारों ने हिंदी की पढ़ाई की सुविधा ही स्कूलों से हटा रखी है वहाँ पर तमिल भाषी और देश के अन्य राज्यों के बसे हुए सभी निवासियों के बच्चे हिंदी और अपने राज्यों की भाषाओं की पढ़ाई से वंचित हैं। मजबूर होकर निजी स्कूलों में पढ़ रहे है। उन्हें आर्थिक भार के साथ मानसिक तनाव और दोहरा समय भी देना पड़ रहा है।
नरेन्द्र मोदी की केन्द्र सरकार के समक्ष अब जैसा कि मानव संशाधन मंत्रालय ने जानकारी दी है, उस पर देश के हर क्षेत्र से राष्ट्रीय शिक्षा नीति की पूर्णता के लिए सुझाव प्रेषित करना चाहिए कि तीन भाषा पढ़ाने की नीति व्यवहार में अव्यवहारिक सिद्ध हो चुकी है।
-पूरे देशमें अंग्रेज़ी भाषा और उसके माध्यम से शिक्षा में अनिवार्यता समाप्त कर दी जाए। कक्षा छ: से आठवीं तक शिक्षा में जो चाहें ऐच्छिक रूप से अंग्रेज़ी या अन्य अंतरराष्ट्रीय भाषाओं का प्रावधान राज्यों की इच्छा के अनुसार किया जाए। अंग्रेज़ी के माध्यम से दुनिया का बासी ज्ञान आता रहा है। अब ताज़े ज्ञान का निर्बाध प्रवाह देश में आ सकेगा। भारत सरकार के कामकाजमें से अंग्रेज़ी भाषा की अनिवार्यता हटाई जाए, तथा भारत सरकार की सभी प्रकार की सेवाओं में से अंग्रेज़ी भाषा में कामकाज की अनिवार्यता हटाई जाए। पूरे देश में सिर्फ दो भाषाओं मातृभाषा और आठवीं अनुसूचि में से कोई एक भाषा का प्रावधान हो। यह निर्णय राज्यों की सरकारें स्वयं करें।

— निर्मलकुमार पाटोदी