कल और आज
कल आषाढी पूर्णिमा है !! निम्मी ! दही बरे और करायल (उरद पकौड़ी की सब्जी )जरूर बना लेना परसों से सावन लग जाएगा | खुद भी हरी चूड़ियाँ पहन लेना और मेरे लिये भी ले आना |
माँ जी आज के जमाने में ये सब ढकोसले कोई नहीं करता रेवा और रवि तो पिज्जा बर्गर खाने वाले ये सब कोई नहीं खायेगा |
कमला सोंच में पड़ जाती है | प्रीत – रीत दोनो से अनभिग्य मोबाइल और लैप टोप ने बड़ा किया जिन्हे कितने यान्त्रिक होकर रह गये थे सब |
मेरी बेटी को ये सब पसंद था काश आज भी उसे ये सब पसंद हो |
कमला अतीत की स्म्रतियों के झुरमुट में खो सी गयी थी वो हरी चूड़ि याँ वो हरी फ्राक माँ के हाथ की बनी | इमली पे पड़ा झूला और वो लंबी – लंबी पेंगे | सावनी मल्हार , कजरी और मेंहदी | अनकहा दर्द… कजरी के गीत न जाने कहाँ खो गये |भावनायें मूल्य हीन , न त्योहार न प्यार | तब सावन बरसता था मन भीगते थे अब सावन बरसता है पर मन रीते हैं | अब न झूले हैं न झूलों की पेंगे | अब सावन नहीं बरसता अब बच्चे कागज की नाव नहीं बनाते |
एक मौन सा व्याप्त हो जाता है कमला अपलक छाये बादलों को देख रही थी मानो पुराने बादलों का पता पूँछ रही हो |
— मंजूषा श्रीवास्तव ‘मृदुल’