कुछ अवधी कहावतें
1.अधाधुंध दरबार मां गदहा पंजीरी खांय.
(उदारता का गलत फायदा उठाना )
2.कत्त्थर गुद्दर सोवैं, मरजाला बैठे रोवैं.
(कथरी गुदड़ी ओढ़ने वाला आराम से सो रहा है लेकिन फैन्सी कपड़ों वाला जाड़े से ठिठुर रहा है।)
3.ठाढ़ा तिलक मधुरिया बानी,
दगाबाज़ कै यहै निसानी.
4.लरिकन का हम छेड़तेन नाहीं, ज्वान लगैं सग भाई,
बूढ़ेन का हम छोड़तेन नाहीं, चहे ओढ़ैं सात रजाई.
5.सोनरवा की ठुक ठुक, लोहरवा की धम्म.
6.जेकरे पांव ना फटी बेवाई, ऊ का जाने पीर पराई.
7.सूप बोलै त बोलै,
चलनी का बोलै जे मा बहत्तर छेद.
ये अवधी कहावतें हमें हमारे ब्लॉगर-पाठक-कामेंटेटर भाई डॉ. स्वास्तिक जैन ने भेजी थीं, जो 8 जुलाई, 2015 को प्रकाशित ‘विशेष सदाबहार कैलेंडर’ में सम्मिलित थीं. विशेष सदाबहार कैलेंडर का यह अंक बहुत विशेष था, क्योंकि यहीं से हमारा ‘सदाबहार कैलेंडर’ ‘विशेष सदाबहार कैलेंडर’ की पदवी से विभूषित हुआ था.
प्रिय गुरमैल भाई जी, रचना पसंद करने, सार्थक व प्रोत्साहक प्रतिक्रिया करके उत्साहवर्द्धन के लिए आपका हार्दिक अभिनंदन. आपकी एकदम सटीक प्रतिक्रिया ने सब कुछ कह दिया है. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.
घातै घात चमरऊ पूछैं, मलिकौ पड़वा नीके है। (पड़वा मर रहा है। अगर मर गया हो चमार उसे खाल के लिये ले जायेगा।)
2.घर माँ नाहीं दाने। अम्मा चलीं भुनाने।
लीला यह कहावतें पसंद आईं और सकूल के दिन याद आ गए .पंजाबी में भी ऐसी कहावतें होती थीं . सौ सुनार दी ,इक्क लुहार दी . छज ताँ बोले , छानणी क्यों बोले, ऐसी कितनी ही कहावतें होती थीं .