कविता

ऐसा भयावह मंजर देखा

सड़कों को सुनसान होते हुए देखा,

जिंदगी को खामोश होते हुए भी देखा,
बंद कमरों में कैसे घुट-घुट कर जीते हैं लोग,
इस कोरोना महामारी में ऐसा भयावह मंजर भी देखा।
आंखों से नींद को कहीं दूर जाते हुए देखा,
होठों से मुस्कुराहट को खोते हुए भी देखा,
अपनों से न मिल पाने का दर्द क्या होता है
इस कोरोना महामारी में ऐसा भयावह मंजर भी देखा।
दुश्मनों को भी दुश्मन का खैर पता करते हुए देखा,
गलियों में न  खेल पाने वाले बच्चों की बेबसी को भी देखा,
मौत का इतना खौफ न देखा कभी लोगों के दिलों में,
इस कोरोना महामारी में ऐसा भयावह मंजर भी देखा।
जो कभी करते रहते थे अट्ठहास महफ़िलों में,
उनको एक कोने में छिपकर सिसकते हुए भी देखा,
सदा गूंजती हुई गलियों को वीरान होते हुए देखा
इस कोरोना महामारी में ऐसा भयावह मंजर भी देखा।
कुछ लोग अभी भी बेफिक्र हैं इस बात से,
वो अवगत नहीं हैं शायद इस महामारी के प्रभाव से,
उन्होंने शायद तूफान में फंसे किश्ती को कभी नहीं देखा,
इस कोरोना महामारी में ऐसा भयावह मंजर उन्होंने अभी नहीं देखा।
अपनों को अंतिम विदाई भी न दे पाए अनेकों लोग,
इस विरह वेदना से अवगत हैं इटली के अनेकों लोग,
कई महाशक्तियों ने बेबस होकर अपनी जनता को मरते हुए देखा,
इस कोरोना महामारी में ऐसा भयावह मंजर देखा।।
— बिप्लव कुमार सिंह

बिप्लव कुमार सिंह

बेलडीहा, बांका, बिहार