कविता

इज्जत का बोझ

मैं लड़की हूं
हाँ मैं लड़की हूं
सबकी इज्जत लेकर चलती हूं
घर की इज्जत, परिवार की इज्जत
माँ की इज्जत, पिता की इज्जत
भाई की इज्जत, पति की इज्जत
सब की इज्जत मेरे पास है…
पर मेरी इज्जत न जाने किसके पास है
मेरे खुलकर हंसने से परिवार की इज्जत जाती है
मेरे देर से घर आने से कुल की इज्जत जाती है
मेरे पश्चिमी लिबास से भाई की इज्जत खोती है
और मेरे घूंघट के नीचे मेरी इज्जत रोती है
सबको अपनी इज्जत मेरे हाथों में दिखाई देती है
पर मेरे लिए इज्जत किसी की आँखों में नजर नहीं आती है
अपनी इज्जत के लिए मैं खून के घूट पीती हूं
और उसे बचाने के लिए मैं मर-मर के जिंदा रहती हूं
मुझे मेरे एक सवाल का जवाब दे दो
और अपनी इज्जत तुम अपने पास ही रख लो
क्यों तुम बेटी से कहते हो घर की इज्जत मत खोना
पर बेटे से क्यों नहीं कहते किसी घर की इज्जत से खिलवाड़ न करना।।
— प्रो. वन्दना जोशी

प्रो. वन्दना जोशी

प्रोफेसर पत्रकारिता अनुभव -10 वर्ष शैक्षणिक अनुभव- 10 वर्ष शैक्षणिक योग्यता- एम.कॉम., एम.ए. एम.सी., एम.एस. डब्ल्यू., एम.फील.,बी.एड., पी.जी.डी. सी.ए.