लघुकथा

मन की छुअन

आज भी तुमने मेरी जेब चेक किए बिना ही पेंट धो दी जिसमें दो मूवी टिकट थीं। ऑफिस की परेशानियों को सिर हिलाकर झाड़ते हुए  जैसे ही मैं घर मे घुसा तुम पहले से ही तैयार बेटे का रिपोर्ट कार्ड दिखाकर शिकायतों का पुलिंदा लेकर बैठ गई ।
पिछले शनिवार को भी मैं कितने अरमानों से ऑफिस से निकलते हुए सोचता हुआ आया था कि तुम्हारे हाथ की चाय पीते हुए तुमसे पूरे दिन की दिनचर्या पूछूंगा और मेरी बॉस से चल रही तनातनी के बारे में सलाह करूंगा।
लेकिन मेरे घर पहुंचते ही तुमने बेटे के प्रोजेक्ट की सामग्री लाने हेतू मुझे उल्टे पांव बाजार भेज दिया था और उसकी बीड्स ,गोटा ,लेस ढूंढते ढूंढते मुझे रात के 9 बज गए थे । मेरी परेशानियों को तुमसे न बता पाने का ही परिणाम रहा कि मैं अगले दो दिन तक भयानक सिर दर्द से पीड़ित रहा ।
तुमने चाय-पानी, खाना  सब समय पर दिया लेकिन एक मिनट भी मेरे पास आकर मुझे नहीं टटोला कि मैं क्या चाहता हूँ?”
मेरी चाहत एक छुअन  चाह रही थी जिसकी ठंडक पाकर मेरा दग्ध हृदय शीतल हो पाता। आज भी जब मैंने मेरी धुली हुई पैंट में हाथ डाला तो मूवी टिकट एक कोने में तुड़े-मुड़े पड़े थे। जब मैंने तुमने पूछा ,” पेंट की जेब चेक नहीं की थी क्या?”
तुम्हारा सपाट सा जवाब था , “हाँ की न ! मैं कभी भी तुम्हारे कपड़ों की  जेब में हाथ डाले बिना धोने नहीं डालती हूँ।”
मेरी आँखों की कोर गीली हो गई जिन्हें पोंछते हुए मैं  मन ही मन बुदबुदाया ,” हाँ, हाथ तो जरूर डालती हो लेकिन गहराई तक टटोलती नहीं हो ।”
— कुसुम पारीक

कुसुम पारीक

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