कहानी

पदचिन्ह

पिछले महीने ही मेरा ट्रांसफर हुआ तब से मेरे पांव जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे । मैं बार बार सुधा के सामने खुशी जाहिर करते हुए कह रहा था ,”अच्छा है!अब हम लोग भैया से मिल पाएंगे ,देखना वे हमें देखकर कितने खुश होते हैं !”
थोड़े दिनों बाद जब  हम लोग नए घर मे शिफ्ट हो गए, तब भैया के ऑफिस से उनके घर का पता लिया व  एक रविवार को समय निकाल कर सुधा  के साथ भैया-भाभी से  मिलने चल पड़ा । घण्टी बजाने पर एक लड़की ने दरवाजा खोला । अंदर गया तो देखा ,भैया एक कमरे में लेटे हुए थे । कृशकाय देह और वह भी हिलने डुलने में असमर्थ !  सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि भैया लकवाग्रस्त हो चुके हैं ।भाभी भी इतने वर्षों में काफी कमजोर हो चुकी थी जिनके चेहरे पर वेदना व दुःख को साफ तौर पर महसूस किया जा सकता था ।
मैंने कहा ,” भैया आपकी यह हालत कैसे हो गई ? बच्चे कहाँ हैं ,आपकी देखभाल करने के लिए कोई नहीं है क्या ?
भैया की आंखों से तो केवल गंगा जमुना ही बह रही  थी । भाभी ने ही  बताया ,”दोनों बच्चे अपनी अपनी गृहस्थी में मस्त हैं, यहां आकर हमें सम्भालने के लिए उनके पास समय ही नहीं है । तुम्हारे भैया को अब अच्छे डॉक्टर व देखभाल की जरूरत है जो पैसों की कमी की वजह से नहीं हो पा रही है ।”
सुनते ही मुझे धक्का लगा और यादों की परत दर पर खुलती हुई उस दिन पर जा अटकी जब भैया का सामान पैक हो चुका था और वह मुझे व माँ को छोड़कर जा रहे थे ।
“आज आप हमें इस तरह छोड़ कर नहीं जा सकते भैया, मैं आपके बिना नहीं रह पाऊंगा ।”
“प्लीज भाभी—आप ही भैया को समझाओ न !  हम कम खाकर गुजारा कर लेंगे लेकिन अलग नहीं रहेंगे।”
भाभी ने भी उस समय उन्हें समझाने की कोशिश की थी लेकिन वह भी भैया की ज़िद्द तोड़ने में कामयाब न हो पाई थीं। मैं गिड़गिड़ाए जा रहा था ,लेकिन भैया संवेदनाओं को नकारते हुए हमें अनदेखा कर दिया और भाभी के साथ आज से पच्चीस वर्ष पूर्व घर छोड़ दिया था ।
वह दिन मेरे जीवन में काले अध्याय के रूप में अंकित हो गया था, किशोरवय का अबोध बच्चा अपनी पिता की तस्वीर हाथ में लेकर विधवा मां के आंचल में सिर रख कर फफक पड़ा था । जब मेरे  पिताजी की मृत्यु हुई तब मैं केवल आठ वर्ष का  था और अपने भैया को ही हमेशा पिता की जगह समझता हुआ बड़ा हो रहा था। लेकिन नई नौकरी का मोह कहो या जिम्मेदारियां भारी लगने लगी हो, भैया मुझे व मां को छोड़ कर सपरिवार शहर चले गए  थे ।
कुछ सालों तक भैया ने आना जाना व पैसे भेजना निरन्तर जारी रखा परन्तु बाद में वह सब भी बंद हो गया था लेकिन समय भी कहाँ किसे के रोके रुकता है ,अच्छा निकले या बुरा ,निकलता जाता है। हम मां-बेटे भी अपनी जिंदगी को किसी तरह जीने की कोशिश कर रहे थे । मैं पढ़ाई में अच्छा था , मुझे छात्रवृति भी मिलने लगी थी और थोड़ी ट्यूशन पढ़ानी भी शुरू कर दी थी जिससे खर्च चलाना आसान हो गया था।  माँ के हौंसलों और मेरी निरन्तर मेहनत से एक ऊंचाई को नापता हुआ मैं बड़ा प्रशासनिक अधिकारी बन गया था ।
मेरी शादी में भी भैया-भाभी औपचारिकता के लिए केवल दो दिन आए थे । उसके बाद इन पंद्रह वर्षों में कभी मिलना भी नही हुआ ।
भैया की गर्र गर्र ररर की आवाज से में वर्तमान में लौट आया। मैंने देखा जैसे कि वे कुछ कहना चाह रहे हैं । भाभी को देखते हुए मैंने कहा ,” भाभी आप चिंता मत करिए ,आज से हम लोग एक साथ ही रहेंगे और भैया का अच्छा इलाज़ भी करवाएंगे ।
तभी सुधा बोल उठी ,” हाँ भाभी ,आप बिलकुल चिंता मत करिए, सब ठीक हो जाएगा । इतने वर्षों तक इनकी आंखों में मैंने एक सूनापन देखा है जो भैया के घर छोड़कर जाते हुए पदचिन्हों का हमेशा पीछा करता रहा है और आज आप लोगों को देख कर उनके चेहरे पर जो चमक आई है वह किसी सपने के पूरे होने से कम नहीं है। भैया की आँखें एक तरफ़ घूमकर वहाँ अटक गई जहां उनके दोनों बच्चे भैया के कंधे पर बैठे थे । आंखों से अनवरत बहते आँसू शायद कह रहे थे ,”तुम जैसे पदचिन्ह छोड़कर आए,उन्हीं का अनुसरण तुम्हारे पुत्र कर रहे हैं।”
— कुसुम पारीक

कुसुम पारीक

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