लघुकथा

लश्कारा

सीरियल ‘श्रीकृष्ण’ चल रहा था. श्रीकृष्ण-सुदामा का दृश्य पटल पर चित्रित हो रहा था. श्रीकृष्ण अपनी पटरानी रुक्मिणी के साथ सुदामा के द्वारिका आने का भावभीना दृश्य देख रहे थे.

लक्ष्मी का अवतार रुक्मिणी का किरदार अदा करने वाली अदाकारा की सुष्ठु देहयश्टि पर शाही ठाठ-बाठ के वस्त्र-आभूषण सुशोभित हैं. मनोहारी रूपसी तीनों लोकों की सम्पदा और सुख-सुविधाओं से सम्पन्न है, त्रिलोकीनाथ श्रीकृष्ण का सुहाना साथ है. मुखमंडल पर खुशी की आभा का लश्कारा है. लगातार चार दिनों तक वह श्रीकृष्ण के साथ सुदामा की दीनदशा को देखकर वे कभी व्यथित तो कभी उनकी मित्रता की पराकाष्ठा से भावविभोर हो रही हैं, साथ ही श्रीकृष्ण की उदारता पर मोहित भी हो रही हैं. कैमरा बार-बार रुक्मिणी के शाही ठाठ-बाठ के वस्त्र-आभूषण और उनकी मोहक मुस्कान का लश्कारा दिखा रहा है. पर जैसे ही वह लश्कारा रुक्मिणी के नाक की लौंग का लश्कारा दिखाता है, एक अनुपम सौंदर्य की आभा का दृश्य उपस्थित हो जाता है. लौंग का लश्कारा विनीत को अतीत में अपनी मां के लौंग के लश्कारे की स्मृति के दरीचे में ले जाता है.

ह्रदयाघात से मां का औचक देहावसान हो गया था. उनके सुच्चे हीरे की लौंग का लश्कारा कितना मनोहारी होता था. बिना कैमरा के भी वह अपनी शाही उपस्थिति दर्ज कराता रहता था. अब उस लौंग के लश्कारे की भी विदाई हो रही थी. अंत समय में लौंग को उतारना जरूरी था. बहुत समय से लौंग का पेच घूमा नहीं था, सो बुजुर्ग महिलाओं से घूम नहीं पाया. बरबस रोते-बिलखते भाई बहिनों को छोड़कर विनीत को ही यह कठिन कार्य संपन्न करना पड़ा. वह बड़ा बेटा जो था! अश्रुपूर्ण आंखों से उसने लौंग के लश्कारे को भावभीनी विदाई दी. लेकिन उस लश्कारे को क्या कभी वह भुला पाया था!

कैसे भुला पाता, किस-किस लश्कारे को भुलाता! मां के हाथ की लजीज रोटी का लश्कारा क्या कम था! मां की पूजा का लश्कारा, मां की लोरी का लश्कारा, मां के प्रिय भजन का लश्कारा, मां के हाथ की सिली कमीज-पैंट का लश्कारा, मां की प्रेमिल डांट का लश्कारा, मां के स्नेहिल दुलार का लश्कारा, मां के की हाथ की कढ़ाई-बुनाई का लश्कारा, मां ने जो भारतीय सभ्यता-संस्कृति के संस्कार हस्तांतरित किए थे उन संस्कारों का लश्कारा, मां द्वारा वर्धित किए गए आत्मविश्वास का लश्कारा, किस-किस लश्कारे को भुलाता! प्रत्यक्षतः तो वह रुक्मिणी के लौंग के लश्कारे को देखकर भावविभोर हो रहा था, लेकिन मन-ही-मन मां की लौंग के लश्कारे में खो जाता और उसे पता ही नहीं चलता, कि कब सीरियल का एक घंटा खत्म हो जाता और अगली कड़ी में दिखाए जाने वाले दृश्यों का चित्रांकन होने लगता था.

मां की लौंग का लश्कारा एक बार फिर उसके सम्मुख नर्तन कर रहा था. लक्ष्मी का अवतार रुक्मिणी भी तो एक माता ही थी, जगतमाता. उसकी लौंग के लश्कारे में तो वह कशिश होनी ही थी. उस लश्कारे में मां की ममता का लश्कारा जो था!

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

3 thoughts on “लश्कारा

  • डॉ. सदानंद पॉल

    आदरणीया मैडम,
    ‘पटरानी’ से क्या आशय है ?

    • लीला तिवानी

      प्रिय सदानंद भाई जी, ‘पटरानी’ से आशय है, सब रानियों नें बड़ी और श्रेष्ठ पदवी वाली रानी. आप इसे महारानी भी कह सकते हैं. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.

  • लीला तिवानी

    मां की लौंग के लश्कारे को क्या, मां के किसी भी रूप को भुलाया जा सकता है, न ऐसी कल्पना भी की जा सकती है! मां का वजूद सदैव साथ ही रहता है. किसी झीने-से अवसर की तलाश होती है और मां का अस्तित्व समक्ष आ जाता है. मां तो वस मां ही होती है न! उसके हर कार्य में, हर अदा में एक लश्कारा होता है. यही लश्कारा हमें संसार के हर लश्कारे से परिचित भी कराता है और उससे आंख मिलाकर आगे बढ़ने को प्रेरित भी करता है. हर चमक की पृष्ठभूमि में मां का लश्कारा होता है.

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