कविता

ऊर्ध्व उठ देख हैं प्रचुर पाते

ऊर्ध्व उठ देख हैं प्रचुर पाते,
झाँक आवागमन बीच लेते
तलों के नीचे पर न तक पाते,
रहा क्या छत के परे ना लखते !

छूट भी बहुत कुछ है जग जाता,
मिलना नज़दीक से न हो पाता
भीड़ से वास्ता न बहु होता,
रहा टक्कर का डर भी ना होता !

देख पाते हैं यान जो उड़ते,
टोलियाँ बादलों की नित तकते
नचते तूफ़ान नज़र आ जाते,
आते जो मिलने पहले लख जाते !

नहीं आते हैं यहाँ हर कोई,
यात्री विरले ही लेते मग यह भी
सुहानी ठंड सी प्राय रहती,
लगती रमणीक यहाँ से धरती !

होते स्तर भी मनों के ऐसे,
आत्म आलोक भी रहे वैसे
पाते कुछ खोते ‘मधु’ भव रहते,
भाव आयाम विश्व तक चलते !

✍🏻 गोपाल बघेल ‘मधु’