कविता

लहरों की क्या अवकात

कड़ी चुनौती स्वीकार करने,
       खड़ी हुई दिन रात।
चट्टानों को तोड़ के रख दे,
       लहरों की क्या अवकात।
इस तरह भरमार हिलोर,
       वापस चले जाना फ़ितरत।
फिरभी साहस की साँसे,
   अडिग चुनौती जल प्रपात।
दम भरना अजब स तेरे
       हवाओ से बदलता रुख़।
चट्टानों से जाकर टकराना,
         कुछ रेत में जाता सूख।
दृण प्रतिज्ञा भरी हृदय में,
         साहस मन में जड़ता।
संकल्पों की ओत प्रोत से,
      चट्टान तूफान से लड़ता।
सिपाही कलमकार की तलाश,
     बेहतरीन कलम की आगाज़।
   फ़नकार भरता जिंदगी महज,
         इंतिजार नेकी सुर आवाज़।
साँस भी हिलते होंगे,
          लिख रहा है कलमकार।
 फितरत चट्टानों की खड़ी,
         अचल साहसी पहरेदार।
दृढ़ इरादे बुलन्द खड़ी,
         जो दिब्यानन्द की बात।
चट्टानों को तोड़ के रख दे,
         लहरों की क्या अवकात।
राग अलापता रहता अपना,
               खुद की करे बड़ाई।
ठोकर जमी पे खात है,
           करे चटटानों पे चढ़ाई।
बूंद बूंद में बिखर पड़े,
    जाकर लौट वापिस आना।
 हराने की होड़ में बढ़ता,
         बहते तिनके को डुबाना।
  कभी खामोशी पन भरा,
       कभी बवण्डर की सौगात।
चट्टानों को तोड़ के रख दे,
       लहरों की क्या अवकात।
— दिब्यानन्द पटेल

दिव्यानन्द पटेल

विद्युत नगर दर्री कोरबा छत्तीसगढ़